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संक्षेप रामायणम्।। तपस्स्वाध्याय निरतं - तपस्वी वाग्विदां वरम्। नारदं परिपप्रच्छ - वाल्मीकिर् मुनिपुंगवम्।। 1।। कोन्वस्मिन् सांप्रतं लोके - गुणवान् कश्च वीर्यवान्। धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च - सत्यवाक्यो दृढव्रतः।। 2।। चारित्रेण च को युक्तः - सर्व भूतेषु को हितः। विद्वान् कः क स्समर्थश्च - कश्चैक प्रियदर्शनः।। 3।। आत्मवान् को जितक्रोधो - द्युतिमान् कोनसूयकः। कस्य बिभ्यति देवाश्च - जात रोषस्य संयुगे।। 4।। एत दिच्छाम्यहं श्रोतुं - परं कौतूहलं हि मे। महर्षे त्वं समर्थोसि - ज्ञातु मेवं विधं नरम्।। 5।। श्रुत्वा चैतत् त्रिलोकज्ञो - वाल्मीके र्नारदो वचः। श्रूयता मिति चामन्त्र्य - प्रहृष्टो वाक्य मब्रवीत्।। 6।। बहवो दुर्लभा श्चैव - ये त्वया कीर्तिता गुणाः। मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा - तैर्युक्त श्श्रूयतां नरः।। 7।। इक्ष्वाकु वंश प्रभवः - रामो नाम जनै श्श्रुतः। नियतात्मा महावीर्यः - द्युतिमान् धृतिमान् वशी।। 8।। बुद्धिमान् नीतिमान् वाग्मी - श्रीमान् शत्रु निबर्हणः। विपुलांसो महाबाहुः - कंबु ग्रीवो महाहनुः।। 9।। महोरस्को महेष्वासः - गूढ जत्रु ररिन्दमः। आजानु बाहु स्सुशिराः - सुललाट स्सुविक्रमः ।। 10।। सम स्सम विभक्तांगः - स्निग्ध वर्णः प्रतापवान्। पीन वक्षा विशालाक्षः - लक्ष्मीवान् शुभ लक्षणः।। 11।। धर्मज्ञ स्सत्यसन्धश्च - प्रजानां च हिते रतः। यशस्वी ज्ञानसंपन्नः - शुचि र्वश्य स्समाधिमान्।। 12।। प्रजापति सम श्श्रीमान् - धाता रिपु निषूदनः। रक्षिता जीवलोकस्य - धर्मस्य परि रक्षिता।। 13।। रक्षिता स्वस्य धर्मस्य - स्वजनस्य च रक्षिता। वेद वेदांग तत्त्वज्ञः - धनुर्वेदे च निष्ठितः।। 14।। सर्व शास्त्रार्थ तत्त्वज्ञः - स्मृतिमान् प्रतिभानवान्। ।। सर्वलोक प्रिय स्साधुः - अदीनात्मा विचक्षणः।। 15।। सर्वदाभिगत स्सद्भिः - समुद्र इव सिन्धुभिः। आर्य स्सर्वसमश्चैव - सदैव प्रिय दर्शनः।। 16।। स च सर्व गुणोपेतः - कौसल्यानन्द वर्धनः। समुद्र इव गाम्भीर्ये - धैर्येण हिमवा निव।। 17।। विष्णुना सदृशो वीर्ये - सोमवत् प्रिय दर्शनः। कालाग्नि सदृशः क्रोधे - क्षमया पृथ्वी समः।। 18।। धनदेन सम स्त्यागे - सत्ये धर्म इवापरः। तमेवं गुण संपन्नं - रामं सत्य पराक्रमम्।। 19।। ज्येष्ठं श्रेष्ठ गुणैर्युक्तं - प्रियं दशरथ स्सुतम्। प्रकृतीनां हितैर्युक्तं - प्रकृति प्रिय काम्यया।। 20।। यौव राज्येन संयोक्तुं - ऐच्छत् प्रीत्या महीपतिः। तस्याभिषेक संभारान् - दृष्ट्वा भार्याथ कैकयी।। 21।। पूर्वं दत्तवरा देवी - वरमेन मयाचत। विवासनञ्च रामस्य - भरतस्याभिषेचनम् ।। 22।। स सत्य वचनाच्चैव - धर्म पाशेन संयतः। विवासयामास सुतं - रामं दशरथः प्रियम्।। 23।। स जगाम वनं वीरः - प्रतिज्ञा मनुपालयन्। पितुर्वचन निर्देशात् - कैकेय्या प्रिय कारणात्।। 24।। तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता - लक्ष्मणो नुजगाम ह। स्नेहा द्विनय संपन्नः - सुमित्रानन्द वर्धनः।। 25।। भ्रातरं दयितो भ्रातुः – सौभ्रात्र मनु दर्शयन्। रामस्य दयिता भार्या - नित्यं प्राण समाहिता।। 26।। जनकस्य कुले जाता - देव मायेव निर्मिता। सर्व लक्षण संपन्ना - नारीणा मुत्तमा वधूः।। 27।। सीताप्यनुगता रामं - शशिनं रोहिणी यथा। पौरै रनुगतो दूरं - पित्रा दशरथेन च।। 28।। शृंगिबेर पुरे सूतं - गंगा कूले व्यसर्जयत्। गुह मासाद्य धर्मात्मा - निषादाधिपतिं प्रियम्।। 29।। गुहेन सहितो रामः - लक्ष्मणेन च सीतया। ते वनेन वनं गत्वा - नदी स्तीर्त्वा बहूदकाः।। 30।। चित्रकूट मनुप्राप्य - भरद्वाजस्य शासनात्। रम्य मावसथं कृत्वा - रममाणा वने त्रयः।। 31।। देव गन्धर्व संकाशाः - तत्र ते न्यवसन् सुखम्। चित्रकूटं गते रामे - पुत्र शोकातुर स्तथा।। 32।। राजा दशरथ स्स्वर्गं - जगाम विलपन् सुतम्। गते तु तस्मिन् भरतः - वसिष्ठ प्रमुखै र्द्विजैः।। 33।। नियुज्यमानो राज्याय - नैच्छ द्राज्यं महाबलः। स जगाम वनं वीरः - राम पाद प्रसादतः।। 34।। गत्वा तु स महात्मानं - रामं सत्य पराक्रमम्।। अयाच द्भ्रातरं रामं - आर्य भाव पुरस्कृतः।। 35।। त्वमेव राजा धर्मज्ञः - इति रामं वचोब्रवीत्। रामोपि परमोदारः - सुमुख स्सुमहायशाः।। 36।। न चैच्छत् पितु रादेशात् - राज्यं रामो महाबलः। पादुके चास्य राज्याय - न्यासं दत्त्वा पुनः पुनः।। 37।। निवर्तयामास ततः - भरतं भरताग्रजः। स काम मनवाप्यैव - राम पादा वुपस्पृशन्।। 38।। नन्दि ग्रामेकरोत् राज्यं - रामागमन कांक्षया। गते तु भरते श्रीमान् - सत्य सन्धो जितेन्द्रियः।। 39।। रामस्तु पुन रालक्ष्य - नगरस्य जनस्य च। तत्र आगमन मेकाग्रः - दण्डकान् प्रविवेश ह।। 40।। प्रविश्य तु महारण्यं - रामो राजीव लोचनः। विराधं राक्षसं हत्वा - शरभंगं ददर्श ह।। 41।। सुतीक्ष्णं चाप्यगस्त्यं च - अगस्त्य भ्रातरं तथा। अगस्त्य वचनाच्चैव - जग्राहैन्द्रं शरासनम्।। 42।। खड्गं च च परम प्रीतः - तूणी चाक्षय सायकौ। वसत स्तस्य रामस्य - वने वनचरै स्सह।। 43।। ऋषयो भ्यागमन् सर्वे - वधायासुर रक्षसाम्। स तेषां प्रति शुश्राव - राक्षसानां तथा वने।। 44।। प्रतिज्ञातश्च च रामेण - वध स्संयति रक्षसाम्। ऋषीणा मग्नि कल्पानां - दंडकारण्य वासिनाम्।। 45।। तेन तत्रैव वसता - जन स्थान निवासिनी। विरूपिता शूर्पणखा - राक्षसी काम रूपिणी।। 46।। तत श्शूर्पणखा वाक्यात् - उद्युक्तान् सर्व राक्षसान्। खरं त्रिशिरसं चैव – दूषणं चैव राक्षसम्।। 47।। निजघान रणे रामः – तेषां चैव पदानुगान्। वने तस्मिन् निवसता - जनस्थान निवासिनाम्।। 48।। रक्षसां निहतान्यासन् - सहस्राणि चतुर्दश। ततो ज्ञाति वधं श्रुत्वा - रावणः क्रोध मूर्छितः।। 49।। सहायं वरयामास - मारीचं नाम राक्षसम्। वार्यमाण स्सुबहुशः - मारीचेन स रावणः।। 50।। न विरोधो बलवता - क्षमो रावण तेन ते। अनादृत्य तु तद्वाक्यं - रावणः काल चोदितः।। 51।। जगाम सह मारीचः - तस्याश्रम पदं तदा। तेन मायाविना दूरं - अपवाह्य नृपात्मजौ।। 52।। जहार भार्यां रामस्य - गृध्रं हत्वा जटायुषम्।। गृध्रञ्च निहतं दृष्ट्वा - हृतां श्रुत्वा च मैथिलीम्।। 53।। राघव श्शोक सन्तप्तः - विललापाकुलेन्द्रियः। तत स्तेनैव शोकेन - गृध्रं दग्ध्वा जटायुषम्।। 54।। मार्गमाणो वने सीतां - राक्षसं सन्ददर्श ह। कबन्धं नाम रूपेण - विकृतं घोर दर्शनम्।। 55।। त.न्निहत्य महाबाहुः - ददाह स्वर्गतश्च सः। स चास्य कथयामास - शबरीं धर्म चारिणीम्।। 56।। श्रमणीं धर्म निपुणां – अभिगच्छेति राघवम्। सोभ्यगच्छ न्महातेजाः - शबरीं शत्रु सूदनः।। 57।। शबर्या पूजित स्सम्यक् - रामो दशरथात्मजः। पंपा तीरे हनुमता - संगतो वानरेण ह।। 58।। हनुम द्वचना च्चैव - सुग्रीवेण समागतः। सुग्रीवाय च तत् सर्वं - शंसद्रामो महाबलः।। 59।। आदित स्तद् यथा वृत्तं - सीतायाश्च विशेषतः। सुग्रीव श्चापि तत्सर्वं - श्रुत्वा रामस्य वानरः।। 60।। चकार सख्यं रामेण - प्रीतश्चैवाग्नि साक्षिकम्।। ततो वानर राजेन - वैरानुकथनं प्रति।। 61।। रामायावेदितं सर्वं - प्रणया द्दुःखितेन च। प्रतिज्ञातं च रामेण - तदा वालि वधं प्रति।। 62।। वालिनश्च बलं तत्र - कथयामास वानरः।। सुग्रीव श्शंकित श्चासीत् - नित्यं वीर्येण राघवे ।। 63।। राघव प्रत्ययार्थन्तु - दुंदुभेः काय मुत्तमम्। दर्शयामास सुग्रीवो - महापर्वत सन्निभम्।। 64।। उत्स्मयित्वा महाबाहुः - प्रेक्ष्य चास्थि महाबलः। पादांगुष्ठेन चिक्षेप - संपूर्णं दश योजनम्।। 65।। बिभेद च पुन स्सालान् - सप्तैकेन महेषुणा।। गिरिं रसातलं चैव - जनयन् प्रत्ययं तथा ।। 66।। ततः प्रीतमना स्तेन - विश्वस्त स्स महाकपिः। किष्किन्धां राम सहितः - जगाम च गुहां तदा।। 67।। ततो गर्ज द्धरिवरः - सुग्रीवो हेम पिङ्गलः। तेन नादेन महता - निर्जगाम हरीश्वरः।। 68।। अनुमान्य तदा तारां - सुग्रीवेण समागतः। निजघान च तत्रैनं - शरेणैकेन राघवः।। 69।। तत स्सुग्रीव वचनात् - हत्वा वालिन माहवे। सुग्रीवमेव तद्राज्ये - राघवः प्रत्यपादयत् ।। 70।। स च सर्वान् समानीय - वानरान् वानरर्षभः। दिशः प्रस्थापयामास - दिदृक्षु र्जनकात्मजाम्।। 71।। ततो गृध्रस्य वचनात् - संपाते र्हनुमान् बली। शत योजन विस्तीर्णं - पुप्लुवे लवणार्णवम्।। 72।। तत्र लङ्कां समासाद्य - पुरीं रावण पालिताम्। ददर्श सीतां ध्यायन्तीं - अशोक वनिकां गताम्।। 73।। निवेदयित्वाभिज्ञानं – प्रवृत्तिं च निवेद्य च। समाश्वास्य च वैदेहीं - मर्दयामास तोरणम् ।। 74।। पंच सेनाग्रगान् हत्वा - सप्त मन्त्रि सुतानपि। शूरमक्षं च निष्पिष्य - ग्रहणं समुपागमत्।। 75।। अस्त्रेणोन्मुक्त मात्मानं - ज्ञात्वा पैतामहा द्वरात्। मर्षयन् राक्षसान् वीरो - यन्त्रिण स्तान् यदृच्छया।। 76।। ततो दग्ध्वा पुरीं लंकां - ऋते सीतां च मैथिलीम्। रामाय प्रिय माख्यातुं - पुन राया न्महाकपिः।। 77।। सोभिगम्य महात्मानं - कृत्वा रामं प्रदक्षिणम्। न्यवेदय दमेयात्मा - दृष्टा सीतेति तत्त्वतः।। 78।। तत स्सुग्रीव सहितः - गत्वा तीरं महोदधेः। समुद्रं क्षोभयामास - शरै रादित्य सन्निभैः।। 79।। दर्शयामास चात्मानं - समुद्र स्सरितां पतिः। समुद्र वचनाच्चैव - नलं सेतु मकारयत्।। 80।। तेन गत्वा पुरीं लंकां - हत्वा रावण माहवे। राम स्सीता मनुप्राप्य - परां व्रीडा मुपागमत्।। 81।। तामुवाच ततो रामः - परुषं जन संसदि। अमृष्यमाणा सा सीता - विवेश ज्वलनं सती।। 82।। ततोग्नि वचनात् सीतां - ज्ञात्वा विगत कल्मषाम्। कर्मणा तेन महता - त्रैलोक्यं स चराचरम्।। 83।। स देवर्षि गणं तुष्टं - राघवस्य महात्मनः। बभौ राम स्संप्रहृष्टः – पूजितः सर्व दैवतैः।। 84।। अभिषिच्य च लंकायां - राक्षसेन्द्रं विभीषणम्। कृतकृत्य स्तदा रामः - विज्वरः प्रमुमोद ह।। 85।। देवताभ्यो वरां प्राप्य - समुत्थाप्य च वानरान्।। अयोध्यां प्रस्थितो रामः - पुष्पकेण सुहृद्वृतः।। 86।। भरद्वाजाश्रमं गत्वा - राम स्सत्य पराक्रमः। भरतस्यान्तिकं रामः - हनुमन्तं व्यसर्जयत्।। 87।। पुन राख्यायिकां जल्पन् - सुग्रीव सहित स्तदा। पुष्पकं तत् समारूह्य - नंदिग्रामं ययौ तदा।। 88।। नन्दिग्रामे जटां हित्वा - भ्रातृभि स्सहितोनघः। राम स्सीता मनु प्राप्य - राज्यं पुन रवाप्तवान्।। 89।। प्रहृष्टो मुदितो लोकः - तुष्टः पुष्ट स्सुधार्मिकः। निरामयो ह्यरोगश्च - दुर्भिक्ष भय वर्जितः।। 90।। न पुत्र मरणं किंचित् - द्रक्ष्यन्ति पुरुषाः क्वचित्। नार्यश्चाविधवा नित्यं - भविष्यन्ति पति व्रताः।। 91।। न चाग्निजं भयं किंचित् - नाप्सु मज्जन्ति जन्तवः। न वातजं भयं किंचित् - नापि ज्वर कृत न्तथा।। 92।। न चापि क्षुद्भयं तत्र - न तस्कर भय न्तथा। नगराणि च राष्ट्राणि - धन धान्य युतानि च।। 93।। नित्यं प्रमुदिता स्सर्वे - यथा कृत युगे तथा। अश्वमेध शतैरिष्ट्वा - तथा बहु सुवर्णकैः।। 94।। गवां कोट्ययुतं दत्त्वा - विद्वद्भ्यो विधि पूर्वकम्। असंख्येयं धनं दत्त्वा - ब्राह्मणेभ्यो महायशाः।। 95।। राज वंशान् शत गुणान् - स्थापयिष्यति राघवः। चातुर्वर्ण्यञ्च लोकेस्मिन् - स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति।। 96।। दश वर्ष सहस्राणि - दश वर्ष शतानि च। रामो राज्यमुपासित्वा - ब्रह्म लोकं प्रयास्यति।। 97।। इदं पवित्रं पापघ्नं - पुण्यं वेदैश्च संमितम्। यः पठे द्राम चरितं - सर्व पापैः प्रमुच्यते।। 98।। एत दाख्यान मायुष्यं - पठन् रामायण.न्नरः। सपुत्रपौत्र.स्सगणः - प्रेत्य स्वर्गे महीयते।। 99।। पठन् द्विजो वागृऋषभत्व मीयात् स्यात् क्षत्रियो भूमि पतित्वमीयात्। वणिग्जन पण्य फलत्वमीयात् जनश्च शूद्रोपि महत्त्व मीयात्।। 100।। इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे आदि काव्ये, संक्षेपो नाम प्रथम स्सर्गः।। रामो राजमणि स्सदा विजयते, रामं रमेशं भजे। रामेणाभिहता निशाचर चमूः, रामाय तस्मै नमः। रामान्नास्ति परायणं परतरं, रामस्य दासोस्म्यहम् रामे चित्तलय स्सदा भवतु मे, भो राम मामुद्धर।।