अग्निमुख प्रयोगः (षट्पात्र प्रयोगः) यजुर्वेद - आपस्तम्बीयः
होमविधानम्
आचम्य। प्राणानायम्य। एवङ्गुण विशेषण विशिष्टायं अस्यां शुभतिथौ श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं... आयुष्याभिवृद्ध्यर्थं..... अमुकहोमं करिष्ये।।
उपविश्य, शुचौ देशे श्वेत तण्डुल चूर्णेन चतुरस्रं प्रादेशमात्रं स्थंडिलं कल्पयित्वा। द्वाभ्यां दर्भाभ्या मुल्लिख्य।
यत्र क्वचाग्नि मुपसमाधास्य न्थ्स्यात्, तत्र प्राची रुदीचीश्च तिस्र स्तिस्रो रेखा लिखित्वा, नैरृत्यां निरस्य, अप उपस्पृश्य, अद्भि रनुमृज्य, अवोक्षण तोय शेष मुत्सिच्य, प्रागुदग्वा अन्यत्तोयं निदधाति।
• प्राची पूर्व मुदक्संस्थं दक्षिणारंभ मालिखेत्।
अथोदीची पुरस्संस्थं पश्चिमारंभमालिखेत्।।
• रेखाद्वयन्तु मूलेन चतस्रोग्रेण चोल्लिखेत्।
कर्मान्ते द्विविधा च्छित्वा नैर्ऋत्यां दर्भ मुत्सृजेत्।।
• अवाक्करोभ्युक्ष्य निधाय वह्नि मुत्सिच्यते वोक्षण तोयशेषम्।
प्राक्तोय मन्य न्निदधा त्युदग्वा यथाबहि स्स्याच्च परिस्तराणाम्।।
ओम् भूर्भुवस्सुव रोमित्यग्निं प्रतिष्ठाप्य।
ओम् भूर्भुवस्सुवरोम्। अग्नि मिद्ध्वा।
ओम् चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वेशीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मर्त्या आविवेश।।
• सप्तहस्त श्चतुशृङ्ग स्सप्त जिह्वो द्विशीर्षकः।
त्रिपात्प्रसन्न वदन स्सखासीन श्शुचिस्मितः।।
• स्वाहान्तु दक्षिणे पार्श्वे देवीँ वामे स्वधान्तथा।
बिभ्र द्दक्षिण हस्तैस्तु शक्ति मन्नं स्रुचं स्रुवम्।।
• तोमरँ व्यजनँ वामै र्घृत पात्रन्तु धारयन्न्।
मेषारूढं जटाबद्धं गौरवर्णं महौजसम्।।
• धूमध्वजं लोहिताक्षं सप्तार्चि स्सर्वकामदम्।
आत्माभिमुख मासीन मेवं ध्याये द्धुताशनम्।।
ओम् एष हि देव प्रदिशो नु सर्वा पूर्वो हि जात स्स उ गर्भे अन्तः। स विजायमान स्स जनिष्यमाण प्रत्यङ्मुखा स्तिष्ठति विश्वतो मुखः।।
(इति प्राच्यां साक्षतोदकं निनीय)
• प्राङ्मुखाग्ने। ममाभिमुखो भव। सुमुखोभव। सुप्रसन्नो भव। वरदो भव। यथोक्तजिह्वया हविर्गृहाण।
ओम् भूर्भुवस्सुवः। ओम् तथ्सवितु र्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न प्रचोदयात्।।
सोदकेनपाणिना प्रदक्षिणमग्निं परिसमूह्य। अग्नि मलङ्कृत्य।।
• अग्नये नमः। हुतवहाय नमः। हुताशिने नमः। कृष्णवर्त्मने नमः। देवमुखाय नमः। सप्तजिह्वाय नमः। वैश्वानराय नमः। जातवेदसे नमः।
परिस्तरणम्
प्रागग्रै र्दर्भै रग्निं परिस्तृणाति, प्रागुदगग्रैर्वा, दक्षिणा नुत्तरान्करोति, उत्तरा नधरान्, पुरस्तात्, दक्षिणतः, पश्चात्, उत्तरतः।
पात्रासादनम् –
उत्तरेणाग्निं प्रागग्रा न्दर्भान्थ्सस्तीर्य, द्वंद्वं न्यञ्चि पात्राणि प्रयुनक्ति (देवसंयुक्तानि)। दर्व्याज्यस्थाल्यौ, प्रोक्षणी प्रणीत्यौ, इध्मस्रुवाविति।
पवित्र करणम्, प्रोक्षण, पूर्णपात्र संस्कारः
समा वप्रच्छिन्नाग्रा वनंतर्गर्भौ दर्भौ प्रादेशमात्रौ पवित्रे कुरुते। तृणं काष्ठं वान्तर्धाय, छिनत्ति। (न नखेन) अप उपस्पृश्य, अद्भि रनुमृज्य।
प्रोक्षण्या मवधाय, प्रोक्ष्य, तस्या मप आनीय (अक्षतै स्सह उदकमापूर्य), हस्तयो.रङ्गुष्ठोपकनिष्ठिकाभ्या.मुत्तानाभ्या.पाणिभ्या.मुदगग्रे गृहीत्वा, प्राची.स्त्रिरुत्पूय, अभिमन्त्र्य, सपवित्रेण पाणिना पात्राणि संस्पृश्य, पात्रा.ण्युदक्प्रवण मुत्तानानि कृत्वा, विस्रस्येध्मं, त्रि प्रोक्षति। (प्रोक्षणशेष मग्ने र्दक्षिणतो निधाय)
(सपवित्रं) पूर्णपात्र मादाय। अपरेणाग्निं पवित्रान्तर्हिते पात्रेप आनीय। उदगग्राभ्यां पवित्राभ्या न्त्रिरुत्पूय। उत्तरेणाग्निं (द्वादश) दर्भेषु सादयित्वा। (अष्ट) दर्भैः प्रच्छाद्य।
ब्रह्म वरणम्
ब्राह्मणं (त्रिषु) दक्षिणतो दर्भेषु निषाद्य।
अस्मिन् ........प्रकृते कर्मणि त्वं ब्रह्मा भव। ब्रह्मणः - इदमासनं।
(प्रतिवचनम्) सुखासनं।
आज्य संस्कारः
सपवित्र माज्यस्थाली मादाय, आज्यं विलाप्य, अपरेणाग्निं पवित्रान्तर्हिताया माज्यस्थाल्या माज्यं निरुप्य, उदीचोङ्गारा न्निरूह्य, तेष्वधिश्रित्य, ज्वलता तृणेनावद्युत्य, (अधोगामिन्या दीप्त्या, आज्ये प्रतिफलीकृत्य), द्वे दर्भाग्रे प्रच्छिद्य, प्रक्षाळ्य, प्रत्यस्य (आज्ये प्रास्य)
(चरुहोम पक्षे) चरु श्रपयित्वा, अभिघार्य, प्राचीन मुदीचीनं वोद्वास्य, प्रतिष्ठितं पुन रभिघार्य। चरुणा सह त्रिः पर्यग्नि कृत्वा, उदगुद्वास्य, अङ्गारा न्प्रत्यूह्य, उदगग्राभ्यां पवित्राभ्यां पुनराहार माज्यं त्रिरुत्पूय,
(प्रागारभ्य पश्चान्नीत्वा पुन प्रागेव समाप्तिः (एवंत्रिः) पवित्र ग्रन्थिं विस्रस्य, प्रक्षाल्य, प्रागग्र.मग्नौ पवित्रे अनुप्रहृत्य।
स्रुक् स्रुव संमार्गः -
स्रुक् स्रुवावादाय, (संमार्जन दर्भैस्सह) येन जुहोति तदग्नौ प्रतितप्य, दर्भाग्रै स्संमृज्य, पुन प्रतितप्य, प्रोक्ष्य, (स्रुव मुत्तरतो) निधाय, दर्भा नद्भिस्सस्पृश्याग्नौ प्रहरति।
इध्म तन्त्रम्
इध्म मादाय, (इध्मरज्जुं पूर्णपात्रे निधाय) परिधीन्परि दधाति। स्थविष्ठं पश्चात्। दक्षिणतोणीयास न्दीर्घम्, अणिष्ठ ह्रस्व मुत्तरतः। उदगग्रं मध्यमम्। प्रागग्रा वितरौ मध्यम परिधि मुपस्पृश्य, पुरस्ता दूर्ध्वे द्वे आघार समिधा वा दधाति। आग्नेय्या.मेकां इतरा मैशान्याम्।
परिषेचनम् अग्निं परिषिञ्चति।।
अदितेनुमन्यस्व। (इति दक्षिणत प्राचीनम्)।।
अनुमतेनुमन्यस्व। (इति पश्चा दुदीचीनम्)
सरस्वतेनुमन्यस्व। (इत्युत्तरत प्राचीनम्)।।
देव सवित प्रसुव। (इति समन्तं परिषिच्य)
इध्ममलङ्कृत्य। स्वयमलङ्कृत्य। ब्रह्माण मलङ्कृत्य।
स्रुवेणेध्म मभिघार्य।।
ओम् चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वेशीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मर्त्या आविवेश।।
अस्मिन् प्रकृते ........ कर्मणि ब्रह्मन्न् - इध्म माधास्ये।।
• आधत्स्व – (इति ब्रह्मावदेत्)
इध्माधान मुहूर्त स्सुमुहूर्तोस्त्विति भवन्तो ब्रुवन्तु। इध्माधान मुहूर्त स्सुमुहूर्तो अस्तु।
आघार होमः
आघारावाघारयति दर्शपूर्णमासव त्तूष्णीम्। इतर दर्वीमदाय। उत्तर परिधि सन्धि मन्ववहृत्य। दक्षिणत प्राञ्च मृजु सन्तत माघारयति।। प्रजापतिं मनसा ध्यायन्।
वायव्या दाग्नेयान्तं जुहुयात्।। (प्रजापतय इदं न मम।। इत्युक्त्वा।।
(प्रधान दर्वी मादाय) द्वितीय मैंद्र मितर परिधि सन्धि मन्ववहृत्य। प्रागुदञ्चं पूर्वव दाघारयति।।
नैर्ऋत्या.दीशानान्तं जुहुयात्। इन्द्रायेदं न मम।।
अथाज्यहोमः (आज्यभागौ (चक्षुषी) जुहोति)।।
एकं। द्वे। त्रीणि। चत्वारि।।( इति चतुर्गृहीतेनाज्येन जुहोति)
ओम् अग्नये स्वाहा।। (उत्तरार्धपूर्वार्धे) अग्नय इदं न मम।
एकं। द्वे। त्रीणि। चत्वारि।। समं पूर्वेण।।
ओम् सोमाय स्वाहा।। (दक्षिणार्ध पूर्वार्धे) सोमायेदं न मम।
मुखाहुतिः (चरुहोम पक्षे – अवदान धर्मः)
दर्व्यामुपस्तीर्य। चरुमध्या द्द्विरवदाय। अभिघार्य। हवि प्रत्यभिघारयति।।
ओम् अग्नये स्वाहा।। (मध्ये) अग्नय इदं न मम।
चर्वभावे, चतुर्गृहीतेनाज्येन मुखाहुतिं जुहुयात्।
प्रधानाहुतिषु, चर्वादि विहित द्रव्यपक्षे चतुरवत्तं कुर्यात्। केवलाज्यहोमे, चतुर्गृहीतेनाज्येन जुहुयात्। अङ्ग देवताभ्यः, स्रुवेणोपहोमः।
• यथोपदेशं प्रधानाहुतीर्हुत्वा
अग्नि स्विष्टकृद्धोमः
दर्व्यामुपस्तीर्य। उत्तरार्धात् सकृत् स्विष्टकृतेवदाय। ततो द्विरभिघार्य। न हवि प्रत्यभिघारयति।।
(बौधायन पक्षे) - ओम् हव्यवाह मभिमातिषाह रक्षोहणं पृतनासु जिष्णुं। ज्योतिष्मन्तं दीद्यतं पुरन्धि मग्नि स्विष्ट कृतमाहुवेमों (3)
स्विष्टमग्ने अभितत्पृणाहि विश्वादेव पृतना अभिष्य। उरुन्न पन्थांप्रदिशन् विभाहि ज्योतिष्म द्धेह्यजर न्न आयु स्स्वाहा।। अग्नये स्विष्टकृत इदं न मम।।
(आपस्तम्ब पक्षे तु सौविष्टकृती जयादिषु पठ्यते)
जया – (अ)भ्यातानान् – राष्ट्रभृत- प्राजापत्यां – व्याहृती र्विहृता - स्सौविष्टकृती मित्युपजुहोति (स्रुवेण)।
इध्मसन्नहना.न्यद्भिस्सस्पृश्याग्नौ प्रहरति। रुद्राय तन्तिचरायेदं न मम।। अप उपस्पृश्य।।
• प्रथमाघारहोमश्च प्रधानाहुत्यनन्तरम्।
यद्धोतव्यन्तु तत्सर्वं स्रुवेणोक्तं कपर्दिना।।
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जयादिहोमः
अस्य कर्मणः, होम प्रतिष्ठा सिद्ध्यर्थं वृद्धिकामः, जयादि होमं करिष्ये।। स्रुवेणाज्य मादाय। अथ जयादिहोमं कुर्यात्।।
जयाः
ओम् चित्तञ्च स्वाहा। चित्तायेद न्न मम।।
ओम् चित्तिश्च स्वाहा। चित्त्या इद न्न मम।।
ओम् आकूतञ्च स्वाहा। आकूतायेद न्न मम।।
ओम् आकूतिश्च स्वाहा। आकूत्या इद न्न मम।।
ओम् विज्ञातञ्च स्वाहा। विज्ञातायेद न्न मम ।।
ओम् विज्ञानञ्च स्वाहा। विज्ञानायेद न्न मम।।
ओम् मनश्च स्वाहा। मनस इद न्न मम।।
ओम् शक्वरीश्च स्वाहा। शक्वरीभ्य इद न्न मम।।
ओम् दर्शश्च स्वाहा। दर्शायेद न्न मम।।
ओम् पूर्णमासश्च स्वाहा। पूर्णमासायेद न्न मम।।
ओम् बृहच्च स्वाहा। बृहत इद न्न मम।।
ओम् रथंतरञ्च स्वाहा। रथन्तरायेदं न्न मम।।
ओम् प्रजापति र्जया निन्द्राय वृष्णे प्रायच्छ दुग्र पृतनाज्येषु तस्मै विश स्समनमन्त सर्वा स्स उग्र स्स हि हव्यो बभूव स्वाहा।। प्रजापतय इद न्न मम।।
अभ्यातानाः -
ओम् अग्निर्भूताना मधिपति स्स मावत्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मि न्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मिन्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। अग्नये भूतानामधिपतय इद न्न मम।।
ओम् इन्द्रो ज्येष्ठाना मधिपति स्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मिन्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। इन्द्राय ज्येष्ठाना मधिपतय इद न्न मम।।
ओम् यम पृथिव्या अधिपति स्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।।।। यमाय पृथिव्या अधिपतय इद न्न मम।।
ओम् वायु रन्तरिक्षस्याधिपति स्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मि न्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। वायवेन्तरिक्षस्याधिपतय इद न्न मम।।
ओम् सूर्यो दिवोधिपति स्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। सूर्याय दिवोधिपतय इद न्न मम।।
ओम् चन्द्रमा नक्षत्राणा मधिपति स्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। चन्द्रमसे नक्षत्राणा मधिपतय इद न्न मम।।
ओम् बृहस्पति र्ब्रह्मणोधिपति स्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। बृहस्पतये ब्रह्मणोधिपतय इद न्न मम।।
ओम् मित्र स्सत्याना मधिपति स्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। मित्राय सत्याना मधिपतय इद न्न मम।।
ओम् वरुणोपा मधिपतिस्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। वरुणायापा मधिपतय इद न्न मम।।
ओम् समुद्र स्स्रोत्याना मधिपतिस्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। समुद्राय स्रोत्याना मधिपतय इद न्न मम।।
ओम् अन्न साम्राज्याना मधिपति तन्माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। अन्नाय साम्राज्याना मधिपतिन इद न्न मम।।
ओम् सोम ओषधीना मधिपतिस्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। सोमायौषधीनामधिपतय इद न्न मम।।
ओम् सविता प्रसवाना मधिपतिस्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। सवित्रे प्रसवाना मधिपतय इद न्न मम।।
ओम् रुद्र पशूना मधिपतिस्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। रुद्राय पशूनामधिपतय इद न्न मम।।(अप उपस्पृश्य)
ओम् त्वष्टा रूपाणा मधिपतिस्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। त्वष्ट्रे रूपाणा मधिपतय इद न्न मम।।
ओम् विष्णु पर्वताना मधिपतिस्स माव त्वस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मि न्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। विष्णवे पर्वताना मधिपतय इद न्न मम।।
ओम् मरुतो गणाना मधिपतय स्ते मावन्त्वस्मिन्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मिन्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। मरुद्भ्यो गणाना मधिपतिभ्य इद न्न मम।
पितृ पितामहयो रजीवतोः (तंड्रि, तात जीविंचिलेनप्पुडु ई मंत्रमु)
पितर पितामहा परेवरे तता स्ततामहा इहमावत। अस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मिन्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। मन्त्रोक्त देवताभ्य इद न्न मम।।
पितृपितामहयो र्जीवतो स्सतो र्जप एव कर्तव्यः। (इद्दरू जीविंचि वुंटे जपं मात्रमे चेयालि, होमं चेयनक्करलेदु)
(पितरि जीवति, मृते च पितामहे) तंड्रि वुंडि तात लेनिचो
पितामहा अवरे ततामहा इह मावत। अस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मिन्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। मन्त्रोक्त देवताभ्य इद न्न मम।।
जीवति पितामहे, मृते च पितरि। (तात वुंडि तंड्रि लेनिचो)
पितर परे तता इह मावत। अस्मि न्ब्रह्म न्नस्मिन्क्षत्रेस्या माशिष्यस्यां पुरोधाया मस्मिन्कर्म न्नस्या न्देवहूत्या स्वाहा।। मन्त्रोक्त देवताभ्य इद न्न मम।। (अप उपस्पृश्य)
राष्ट्रभृतः -
ओम् ऋताषा डृतधामाग्निर्गन्धर्व स्तस्यौषधयोफ्सरस ऊर्जो नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा। ऋतासाह ऋतधाम्नेग्नये गन्धर्वायेद न्न मम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। ओषधीभ्योफ्सरोभ्य ऊर्ग्भ्य इदं न मम।।
ओम् सहितो विश्वसामा सूर्यो गन्धर्व स्तस्य मरीचयोफ्सरस आयुवो नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा। सहिताय विश्वसाम्ने सूर्याय गन्धर्वायेदं नमम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। मरीचिभ्योफ्सरोभ्य आयुभ्य इदं न मम।।
सुषुम्न स्सूर्यरश्मि श्चन्द्रमा गन्धर्व स्तस्य नक्षत्राण्यफ्सरसो बेकुरयो नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा।। सुषुम्नाय सूर्यरश्मये चन्द्रमसे गन्धर्वायेदं न मम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। नक्षत्रेभ्योफ्सरोभ्यो बेकुरिभ्य इदं न मम।।
भुज्यु स्सुपर्णो यज्ञो गन्धर्व स्तस्य दक्षिणा अफ्सरस स्तवा नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा। भुज्यवे सुपर्णाय यज्ञाय गन्धर्वायेदं नमम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। दक्षिणाभ्योफ्सरोभ्य स्स्तवाभ्य इद न्न मम।।
प्रजापति र्विश्वकर्मा मनो गन्धर्व स्तस्यर्ख्सामान्यफ्सरसो वह्नयो नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा। प्रजापतये विश्वकर्मणे मनसे गन्धर्वायेद न्न मम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। ऋख्सामेभ्योफ्सरोभ्यो वह्निभ्य इद न्न मम।।
इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्धर्व स्तस्यापोफ्सरसो मुदा नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा। इषिराय विश्वव्यचसे वाताय गन्धर्वायेद न्न मम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। अद्भ्योफ्सरोभ्यो मुदाभ्य इद न्न मम।।
भुवनस्य पते यस्य त उपरि गृहा इह च। स नो रास्वाज्यानि रायस्पोष सुवीर्य संवथ्सरीणा स्वस्ति स्वाहा।। भुवनस्य पत्य इद न्न मम।।
परमेष्ठ्यधिपति र्मृत्यु र्गन्धर्व स्तस्य विश्व मफ्सरसो भुवो नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा। परमेष्ठिनेधिपतये मृत्यवे गन्धर्वायेदं न मम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। विश्वस्मा अफ्सरोभ्यो भूभ्य इद न्न मम।।
सुक्षिति स्सुभूति र्भद्रकृ त्सुवर्वा न्पर्जन्यो गन्धर्व स्तस्य विद्युतोफ्सरसो रुचो नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा। सुक्षितये सुभूतये भद्रकृते सुवर्वते पर्जन्याय गन्धर्वायेद न्न मम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। विद्युद्भ्योफ्सरोभ्यो रुग्भ्य इद न्न मम।।
दूरेहेति रमृडयो मृत्यु र्गन्धर्व स्तस्य प्रजा अफ्सरसो भीरुवो नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा। दूरेहेतये मृडयाय मृत्यवे गन्धर्वायेद न्न मम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। प्रजाभ्योफ्सरोभ्यो भीरुभ्य इद न्न मम।।
चारु कृपणकाशी कामो गन्धर्व स्तस्याधयोफ्सरस श्शोचयन्ती र्नाम स इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ता इदं ब्रह्म क्षत्रं पान्तु तस्मै स्वाहा। चारवे कृपणकाशिने कामाय गन्धर्वायेद न्न मम।।
ताभ्य स्स्वाहा।। आधिभ्योफ्सरोभ्य श्शोचयन्तीभ्य इदं न मम ।।
स नो भुवनस्य पते यस्य त उपरि गृहा इह च। उरु ब्रह्मणेस्मै क्षत्राय महि शर्म यच्छ स्वाहा।। भुवनस्य पत्ये ब्रह्मणोधिपतय इद न्न मम।।
प्राजापत्या (प्रजापतिं मनसा ध्यायन्न्)
ओम् प्रजापते न त्वदेता न्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुम स्तन्नो अस्तु वय स्याम पतयो रयीणा स्वाहा।। प्रजापतय इदं न मम।।
व्याहृतयः (विहृताः)
ओम् भूस्स्वाहा। अग्नय इदं न मम।।
ओम् भुवस्स्वाहा। वायव इदं न मम।।
ओम् सुव स्स्वाहा। सूर्यायेदं न मम।।
सौविष्टकृती -
ओम् यदस्य कर्मणोत्यरीरिचँ यद्वा न्यून मिहाकरम्। अग्निष्टथ्स्विष्ट कृद्विद्वा न्थ्सर्व स्विष्ट सुहुतं करोतु स्वाहा।। अग्नये स्विष्टकृत इदं न मम।।
परिधि तन्त्रम्।
मध्यम परिधिं प्रहृत्य। इतरौ युगपत्प्रहरन्न्। उत्तरार्धस्याग्र मंगारेषूपोहति। परिधीनभिमन्त्र्य। आघार समिधौ प्रहरति – तनुभ्य इदं न मम।
दर्व्यामितरदर्व्यग्रमवधाय। स स्रावेणाभि जुहोति।
वसुभ्यो रुद्रेभ्य आदित्येभ्यस्सग्ग् स्रावभागेभ्य इदं न मम।।
प्रायश्चित्त होमः
अस्मिन् प्रकृते कर्मणि ज्ञाताज्ञातादि सकलदोषनिर्हरणार्थं अनाज्ञातत्रयम्,
कर्मान्तरित कर्म विपर्यास प्रायश्चित्तार्थं त्वन्नो अग्ने सत्वन्नो अग्न इति,
स्वराक्षर पदवृत्त वर्णलोप प्रायश्चित्तार्थ माभि र्गीर्भि रिति,
वाङ्नियम लोप प्रायश्चित्तार्थ मिदं विष्णु स्त्र्यंबकमिति,
ऋत्विङ्मौढ्य प्रायश्चित्तार्थं यद्विद्वास इति,
स्कन्नादि दोष प्रायश्चित्तार्थं अस्कान्द्यौरिति,
मिन्दादिदोष प्रायश्चित्तार्थं यन्म आत्मन इति,
समस्त भयाद्युपद्रव निर्हरणार्थं पुन रग्नि श्चक्षु रिति,
अग्न्युपघात प्रायश्चित्तार्थं पुनस्त्वादित्या इति,
सर्व प्रायश्चित्तार्थं भूर्भुवस्सुवरिति – एतै र्मन्त्रै राज्याहुती र्होष्यामि।।
ओम् अनाज्ञातँ यदाज्ञातँ यज्ञस्य क्रियते मिथु। अग्ने तदस्य कल्पय त्व हि वेत्थ यथातथ स्वाहा। अग्नय इद न्न मम।।
ओम् पुरुष सम्मितो यज्ञो यज्ञ पुरुषसम्मितः। अग्ने तदस्य कल्पय त्व हि वेत्थ यथातथ स्वाहा। अग्नय इद न्न मम।।
ओम् यत्पाकत्रा मनसा दीन दक्षान यज्ञस्य मन्वते मर्तासः। अग्नि ष्टद्धोता क्रतुवि द्विजानन् यजिष्ठो देवा ऋतुशो यजाति स्वाहा। अग्नय इद न्न मम।।
ओम् त्वन्नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडोव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितम श्शोशुचानो विश्वा द्वेषासि प्रमुमुग्ध्यस्म थ्स्वाहा। अग्नी वरुणाभ्यामिदं न मम।।
ओम् स त्वन्नो अग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुण रराणो वीहि मृडीक सुहवो न एधि स्वाहा। अग्नीवरुणाभ्या मिदं न मम।।
ओम् आभि र्गीर्भि र्यदतो न ऊन मा प्यायय हरिवो वर्धमानः। यदा स्तोतृभ्यो महि गोत्रा रुजासि भूयिष्ठभाजो अध ते स्याम स्वाहा। इन्द्राय हरिवते वर्धमानायेदं न मम।।
ओम् इदँ विष्णु र्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदं। समूढ मस्य पासुरे स्वाहा। श्रीविष्णव इदं न मम।।
ओम् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम्। उर्वारुक मिव बन्धना न्मृत्यो र्मुक्षीय मामृता थ्स्वाहा।। मृत्युञ्जयायेदं न मम।।
ओम् यद्विद्वासो यदविद्वासो मुग्धा कुर्व न्त्यृर्त्विजः। अग्नि र्मा तस्मा देनस श्श्रद्धा देवी च मुञ्चता स्वाहा। अग्निश्रद्धाभ्या मिदं न मम।
ओम् अस्कान्द्यौ पृथिवी मस्का नृषभो युवा गाः। स्कन्नेमा विश्वा भुवना स्कन्नो यज्ञ प्रजनयतु। अस्का नजनि प्राजन्यास्कन्ना ज्जायते वृषा। स्कन्ना त्प्रजनिषीमहि स्वाहा। स्कन्नादिभ्यो देवताभ्य इदं न मम।।
ओम् यन्म आत्मनो मिन्दाभू दग्नि स्तत्पुन राहा र्जातवेदा विचर्षणि स्स्वाहा। अग्नये जातवेदसे विचर्षणय इद न्न मम।।
ओम् पुन रग्निश्चक्षु रदा त्पुन रिन्द्रो बृहस्पतिः। पुन र्मे अश्विना युव ञ्चक्षु राधत्त मक्ष्यो स्स्वाहा।। अग्नीन्द्र बृहस्पत्यश्विभ्य इदं न मम।।
ओम् पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसव स्समिन्धतां पुन र्बह्माणो वसुनीथ यज्ञैः। घृतेन त्व न्तनुवो वर्धयस्व सत्या स्सन्तु यजमानस्य कामा स्स्वाहा।। अग्नये वसुनीथायेदं न्न मम।।
ओम् भूर्भुव स्सुव स्स्वाहा।। प्रजापतय इद न्न मम।।
पूर्णाहुतिः
एवं गुण......... प्रीत्यर्थं, अस्मिन्प्रकृते कर्मणि, होम संपूर्णता सिद्ध्यर्थं पूर्णाहुति होमं करिष्ये।। होमद्रव्याणि पात्रे निधाय।। पूजादिकं कुर्यात्।।
• आज्य न्द्वादशकृत्वस्तु गृहीत्वा पूरयेत्स्रुचम्।
तया चाज्याहुति कार्या सा पूर्णाहुति रिष्यते।।
द्वादश गृहीतेनाज्येन स्रुचं पूरयित्वा। एकं। द्वे। त्रीणि। चत्वारि। पञ्च। षट्। सप्त। अष्टौ। नव। दश। एकादश। द्वादश।।
ओम् सप्तते अग्ने समिध स्सप्त जिह्वा स्सप्तर्षय स्सप्त धाम प्रियाणि। सप्त होत्रा स्सप्तधा त्वा यजन्ति सप्त योनी रापृणस्वा घृतेन स्वाहा।। अग्नये सप्तवत इद न्न मम।।
पूर्णाहुति ब्राह्मणवाक्यानि
पूर्णाहुति मुत्तमा ञ्जुहोति। सर्वँ वै पूर्णाहुतिः। सर्वमेवा प्नोति। अथो इयँ वै पूँर्णाहुतिः। अस्या मेव प्रतितिष्ठति।।
वसोर्धारा ब्राह्मणम्
वसो र्धारा ञ्जुहोति वसो र्मे धारा सदिति वा एषा हूयते घृतस्य वा एन मेषा धारामुष्मि न्लोके पिन्वमानोप तिष्ठत आज्येन जुहोति तेजो वा आज्य न्तेजो वसो र्धारा तेजसैवास्मै तेजोवरुन्धेथो कामा वै वसो र्धारा कामानेवाव रुन्धे।।
पूर्णाहुति मुहूर्त स्सुमुहूर्तोस्तु।।
प्रायश्चित्त होमौ
अस्मिन् प्रकृते कर्मणि यजुर्भ्रेष प्रायश्चित्तं करिष्ये। (अयं होमो यजुर्मन्त्र भ्रंशदोष प्रायश्चित्तार्थं कर्तव्य इति विपश्चितो मन्वते।
ओम् भुव स्स्वाहा। वायव इदं न मम।
हस्तं प्रक्षाळ्य। आतमितो प्राणा नायम्य। विष्णु र्विष्णु विष्णुः।
सङ्कल्प प्रभृत्येतावत्पर्यन्तं नाना प्रकारेण संभावित सकलदोष निर्हरणार्थं सर्व प्रायश्चित्तं होष्यामि।।
ओम् भूर्भुवस्सुवस्स्वाहा।। प्रजापतय इदं न मम।।
(उत्तर परिषेचनम्) अदितेन्वमस्थाः। अनुमतेन्वमस्थाः। सरस्वतेन्वमस्थाः। देवसवित प्रासावीः।।
प्रणीतास्वप आनीय। (पुनः) अक्षतोदकै पूरयित्वा।।
ओम् सदसि सन्मे भूया स्सर्व मसि सर्वं मे भूया पूर्ण मसि पूर्णं मे भूया अक्षित मसि मा मे क्षेष्ठाः।। (इत्यभिमंत्र्य)
(अथ दिङ्मार्जनं)
प्राच्या न्दिशि देवा ऋत्विजो मार्जयन्ताम्।
दक्षिणाया न्दिशि मासा पितरो मार्जयन्ताम्।
प्रतीच्या न्दिशि गृहा पशवो मार्जयन्ताम्।।
उदीच्या न्दिश्याप ओषधयो वनस्पतयो मार्जयन्ताम्।
ऊर्ध्वाया न्दिशि यज्ञ स्सँवत्सरो यज्ञपति र्मार्जयन्ताम्।।
इतिदिङ्मार्जनं कृत्वा।।
पूर्णपात्र निनयनम् (पत्न्यञ्जलौ)
समुद्रं व प्रहिणोमि स्वां योनि मपि गच्छत। अच्छिद्र प्रजया भूयासं मा परा सेचि मत्पयः। अञ्जलौ पूर्णपात्र मानयति। रेत एवास्यां प्रजा न्दधाति। प्रजया हि मनुष्य पूर्णः। मुखं विमृष्टे। अवभृथस्यैव रूप ङ्कृत्वो त्तिष्ठति।।
भूमिष्ठोदकं शिरसि धारयेत्। अक्षता ञ्छिरसि धारयेत्।
येन देवा पवित्रेण। आत्मानं पुनते सदा। तेन सहस्र धारेण। पावमान्य पुनन्तु मा।
प्राजापत्यं पवित्रम्। शतोद्याम हिरण्मयम्। तेन ब्रह्मविदो वयम्। पूतं ब्रह्म पुनीमहे।।
इन्द्र स्सुनीती सह मा पुनातु। सोम स्स्वस्त्या वरुण स्समीच्या। यमो राजा प्रमृणाभि पुनातु मा। जातवेदा मोर्जयन्त्या पुनातु।। इति मार्जयित्वा।।
ब्रह्मत्व दक्षिणा
ब्रह्माणं पूजयामि। ब्रह्मन् - वरन्ते ददामि।
जयादि ब्रह्म विसर्जनान्ते भवत्कृत ब्रह्मत्व दक्षिणां मानसोत्साह परिमित हिरण्य न्तुभ्य महं संप्रददे न मम।।
परिस्तरण विसर्जनम् –
प्रागादि परिस्तरणान्युत्तरे विसृजेत्। अग्ने स्तृणा न्यपचिनोति।
तेजस्वी यशस्वी ब्रह्मवर्चसी भवति - इति विज्ञायते। पुन रलङ्कृत्य। अग्नये नमः, हुतवहाय नमः, हुताशिने नमः, कृष्ण वर्त्मने नमः, देवमुखाय नमः, सप्तजिह्वाय नमः, वैश्वानराय नमः, जात वेदसे नमः।। मध्ये श्री मद्यज्ञेश्वराय नमः।
हुतशिष्ट माज्योपहारं निवेदयामि।
अग्नि प्रदक्षिणम्
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्म ज्जुहुराण मेनो भूयिष्ठा न्ते नम उक्तिँ विधेम।
प्र व श्शुक्राय भानवे भरध्व हव्यं मति ञ्चाग्नये सुपूतम्। यो दैव्यानि मानुषा जनूष्यन्त र्विश्वानि विद्मना जिगाति।
अच्छा गिरो मतयो देवयन्ती रग्निँ यन्ति द्रविणं भिक्षमाणाः। सुसन्दृश सुप्रतीक स्वञ्च हव्यवाह मरतिं मानुषाणाम्।
अग्ने त्वमस्म द्युयोध्यमीवा अनग्नित्रा अभ्यमन्त्र कृष्टीः। पुन रस्मभ्य सुविताय देव क्षाँ विश्वेभि रजरेभि र्यजत्र।
अग्ने त्वं पारया नव्यो अस्मा न्थ्स्वस्तिभि रति दुर्गाणि विश्वा। पूश्च पृथ्वी बहुला न उर्वी भवा तोकाय तनयाय शँयोः।
प्रकारवो मनना वच्यमाना देवद्रीची न्नयथ देवयन्तः। दक्षिणावा ड्वाजिनी प्राच्येति। हवि र्भर न्नग्नये घृताची।
सृकृत्ते अग्ने नमः। द्विस्ते नमः। त्रिस्ते नमः। चतुस्ते नमः। पञ्चकृत्वस्ते नमः। दशकृत्वस्ते नमः। शतकृत्वस्ते नमः। आ सहस्रकृत्वस्ते नमः। अपरिमित कृत्वस्ते नमः। नमस्ते अस्तु मा मा हिसीः।
• नमस्ते गार्हपत्याय नमस्ते दक्षिणाग्नये।
नम आहवनीयाय महावेद्यै नमो नमः।।
• काण्डद्वयोपपाद्याय कर्म ब्रह्म स्वरूपिणे।
स्वर्गापवर्ग रूपाय यज्ञेशाय नमो नमः।।
• यज्ञेशाच्युत गोविन्द माधवानन्त केशव।
कृष्ण विष्णो हृषीकेश वासुदेव नमोस्तुते।।
अहं परस्ता दह मवस्ता दह ञ्ज्योतिषा वितमो ववार। यदन्तरिक्ष न्तदु मे पिताभू दह सूर्य मुभयतो ददर्शाहं भूयास मुत्तम स्समानानाम्।।
अभिवादये (नमस्कारः) चतुस्सागरपर्यन्तं... शर्माहं भो अभिवादये।।
(प्रत्यभिवादाभावेन, अभिवादनस्य निषेधेपि पूर्वाचारानुरोधः)
ओम् स्वस्ति।
• श्रद्धां मेधां यश प्रज्ञां विद्यां बुद्धिं श्रियं बलम्।
आयुष्य न्तेज आरोग्यं देहि मे हव्यवाहन।।
श्रियं देहि मे हव्यवाहन ओन्नम इति।।
• यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपो होम क्रियादिषु।
न्यूनं संपूर्णताँ याति सद्यो वन्दे हुताशनम्।।
• मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं हुताशन।
यद्धुतन्तु मया देव परिपूर्णं तदस्तु ते।।
अनेन मया कृतेन ... होम कर्मणा, भगवान् सर्वात्मक श्श्री यज्ञेश्वर स्सुप्रीणातु। एतत् फलं श्री परमेश्वरार्पणमस्तु।।
• यत्कर्म कुर्वतां पुंसां कर्मलोपो भवे द्यदि।
तत्कर्म सफलं कुर्यु स्तिस्र कोट्यो महर्षयः।।
• अपराध सहस्राणि क्रियन्ते हर्निशं मया।
दासोय मिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
• यत्करोमि यदश्च्ञामि यज्जुहोमि ददामि यत्।
यत्तपस्स्यामि वार्ष्णेय तत्करोमि त्वदर्पणम्।।
• प्रमादा त्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरे यदि।
स्मरणादेव तद्विष्णो स्संपूर्णं स्यादिति स्मृतिः।।
• गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थानं परमेश्वर।
यत्र ब्रह्मादयो देवा स्तत्र गच्छ हुताशन।।
यज्ञेश्वराय नमः, यथास्थानं प्रतिष्ठापयामि। शोभनार्थं क्षेमाय पुनरागमनाय च।।
भस्म धारणम्
मा न स्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। वीरान्मा नो रुद्र भामितो वधीर् हविष्मन्तो नमसा विधेम ते।। इत्युत्तरतो भस्म गृहीत्वा।।
त्र्यायुष ञ्जमदग्ने कश्यपस्य त्र्यायुषम्। यद्देवाना न्त्र्यायुष न्तन्मे अस्तु त्र्यायुषम्। इति ललाटादि स्थानेषु धरति।
समाप्त श्चापस्तम्बीयोग्निमुख प्रयोगः।
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