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01 ऋ    01 None    01 ग्र    03 अष्ट    303 अध्या   

                        
                        
आरण्यकम् आरण्यके प्रथम प्रपाठकः (काठकेषु चतुर्थः) आ।का।10 आरुणकेतुक चयन मन्त्र ब्राह्मणात्मकम् (1-32)  भद्रङ्कर्णेभि श्शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभि र्यजत्राः। स्थिरै रङ्गै स्तुष्टुवास स्तनूभिः। व्यशेम देवहितँ यदायुः।।  स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति न पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पति र्दधातु।।  ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।।    भद्रङ्कर्णेभि श्शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्ये माक्षभिर्यजत्राः। स्थिरै रङ्गैस्तुष्टुवास स्तनूभिः। व्यशेम देवहितँ यदायुः।।  स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति न पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पति र्दधातु।।  आपमापा मप स्सर्वाः। अस्मादस्मा दितोमुतः।। 1।।  अग्नि र्वायुश्च सूर्यश्च। सहस ञ्चस्करर्धिया।।  वाय्वश्वा रश्मि पतयः। मरीच्यात्मानो अद्रुहः। देवीर्भुवन सूवरीः। पुत्रवत्त्वाय मे सुत।।  महानाम्नी र्महामानाः। महसो महसस्स्वः। देवी पर्जन्य सूवरीः। पुत्रवत्त्वाय मे सुत।। 2।।   अपाश्न्युष्णि मपारक्षः। अपाश्न्युष्णि मपारघम्। अपाघ्रा मप चावर्तिम्। अपदेवी रितो हित।।  वज्र न्देवी रजीताश्च। भुवन न्देव सूवरीः। आदित्या नदिति न्देवीम्। योनिनोर्ध्व मुदीषत।।  शिवा न श्शन्तमा भवन्तु। दिव्या आप ओषधयः।।  सुमृडीका सरस्वति। मा ते व्योम सन्दृशि।। 3।। (अमुत स्सुतौषधयो द्वे च। 1।)    स्मृति प्रत्यक्ष मैतिह्यम्। अनुमान श्चतुष्टयम्। एतै रादित्यमण्डलम्। सर्वैरेव विधास्यते।।  सूर्यो मरीचि मा दत्ते। सर्वस्मा द्भुवना दधि। तस्या पाकविशेषेण। स्मृत ङ्कालविशेषणम्।।  नदीव प्रभवा त्काचित्। अक्षय्यात्स्यन्दते यथा।। 4।।  तान्नद्योभि समायन्ति। सोरु स्सती न निवर्तते।।  एव न्नाना समुत्थानाः। काला स्सँवत्सर श्रिताः। अणुशश्च महशश्च। सर्वे समवयन्त्रितम्।।  सतै स्सर्वै स्समाविष्टः। ऊरु स्सन्न निवर्तते। अधि सँवथ्सरँ विद्यात्। तदेव लक्षणे।। 5।।   अणुभिश्च महद्भिश्च। समारूढ प्रदृश्यते। सँवथ्सर प्रत्यक्षेण। नाधिसत्व प्रदृश्यते।।  पटरो विक्लिध पिङ्गः। एत द्वरुणलक्षणम्। यत्रैत दुपदृश्यते। सहस्र न्तत्र नीयते।।  एक हि शिरो नानामुखे। कृथ्स्न न्तदृतु लक्षणम्।। 6।।  उभयत स्सप्तेन्द्रियाणि। जल्पितन्त्वेव दिह्यते।। शुक्लकृष्णे सँवथ्सरस्य। दक्षिणवामयो पार्श्वयोः। तस्यैषा भवति।  शुक्रन्ते अन्य द्यजतन्ते अन्यत्। विषुरूपे अहनी द्यौरिवासि। विश्वा हि माया अवसि स्वधावः। भद्रा ते पूषन्निह राति र-स्त्विति। नात्र भुवनम्। न पूषा। न पशवः। नादित्य स्सँवथ्सर एव प्रत्यक्षेण प्रियतमँ विद्यात्। एतद्वै सँवथ्सरस्य प्रियतम रूपम्। योस्य महा नर्थ उत्पथ्स्यमानो भवति। इदं पुण्य ङ्कुरुष्वेति। तमाहरणन्दद्यात्।। 7।। (यथा लक्षण ऋतुलक्षणं भुवन सप्त च। 2।)    साकञ्जाना सप्तथ माहु रेकजम्। षडुद्यमा ऋषयो देवजा इति। तेषा मिष्टानि विहितानि धामशः। स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः।।  कोनु मर्या अमिथितः। सखा सखाय मब्रवीत्। जहाको अस्म दीषते।।  यस्तित्याज सखिविद सखायम्। न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति। यदी शृणो त्यलक शृणोति।। 8।।  न हि प्र वेद सुकृतस्य पन्था-मिति।।  ऋतुर्‌ ऋतुना नुद्यमानः। विननादाभिधावः। षष्टिश्च त्रिशका वल्गाः। शुक्लकृष्णौ च षाष्टिकौ।।  सारागवस्त्रै र्जरदक्षः। वसन्तो वसुभि स्सह। सँवथ्सरस्य सवितुः। प्रैषकृ त्प्रथम स्स्मृतः।।  अमू नादयतेत्यन्यान्।। 9।।  अमूश्च परिरक्षतः। एता वाच प्रयुज्यन्ते। यत्रैत दुपदृश्यते।।  एतदेव विजानीयात्। प्रमाण ङ्कालपर्यये। विशेषणन्तु वक्ष्यामः। ऋतूना न्तन्निबोधत।।  शुक्लवासा रुद्रगणः। ग्रीष्मेणावर्तते सह। निजह न्पृथिवी सर्वाम्।। 10।।  ज्योतिषा प्रतिख्येन सः।।  विश्वरूपाणि वासासि। आदित्याना न्निबोधत। सँवथ्सरीण ङ्कर्मफलम्। वर्‌षाभि र्ददता सह।।  अदुखो दुखचक्षु रिव। तद्मापीत इव दृश्यते। शीतेनाव्यथयन्निव। रुरुदक्ष इव दृश्यते।।  ह्लादयते ज्वलतश्चैव। शाम्यतश्चास्य चक्षुषी। या वै प्रजा भ्रश्यन्ते। सँवथ्सरात्ता भ्रश्यन्ते।। या प्रतितिष्ठन्ति। सँवथ्सरे ता प्रति तिष्ठन्ति। वर्‌षाभ्य इत्यर्थः।। 11।। (शृणोत्यन्या न्थ्सर्वामेव षट्च। 3।)    अक्षि दुखोत्थितस्यैव। विप्रसन्ने कनीनिके। आङ्क्ते चाद्गणन्नास्ति। ऋभूणान्त न्निबोधत।।  कनकाभानि वासासि। अहतानि निबोधत। अन्न मश्नीत मृज्मीत। अहँ वो जीवनप्रदः।।  एता वाच प्र युज्यन्ते। शर द्यत्रोपदृश्यते।। 12।।  अभिधून्वन्तोभिघ्नन्त इव। वातवन्तो मरुद्गणाः।।  अमुतो जेतु मिषुमुख मिव। सन्नद्धा स्सह ददृशेह। अपध्वस्तै र्वस्तिवर्णैरिव। विशिखास कपर्दिनः।।  अक्रुद्धस्य योत्स्यमानस्य। क्रुद्धस्येव लोहिनी। हेमत श्चक्षुषी विद्यात्। अक्ष्णयो क्षिपणोरिव।। 13।।   दुर्भिक्ष न्देवलोकेषु। मनूना मुदक ङ्गृहे। एता वाच प्रवदन्तीः। वैद्युतो यान्ति शैशिरीः।। ता अग्नि पवमाना अन्वैक्षत। इह जीविका मपरिपश्यन्न्। तस्यैषा भवति।  इहेह व स्स्वतपसः। मरुत स्सूर्यत्वचः। शर्म सप्रथा आवृणे।। 14।। (दृश्यत इवावृणे।4।)    अतिताम्राणि वासासि। अष्टिवज्रि शतघ्नि च। विश्वे देवा वि प्र हरन्ति। अग्निजिह्वा असश्चत।।  नैव देवो न मर्त्यः। न राजा वरुणो विभुः। नाग्नि र्नेन्द्रो न पवमानः। मातृक्कच्चन विद्यते।।  दिव्यस्यैका धनुरार्त्निः। पृथिव्या मपराश्रिता।। 15।।  तस्येन्द्रो वम्रिरूपेण। धनु र्ज्यामच्छिन थ्स्वयम्।।  तदिन्द्र धनु रित्यज्यम्। अब्भ्रवर्णेषु चक्षते। एतदेव शँयो र्बार्‌हस्पत्यस्य। एत द्रुद्रस्य धनुः।। रुद्रस्य त्वेव धनु रार्त्निः। शिर उत्पिपेष। स प्रवर्ग्योभवत्। तस्मा द्य स्सप्रवर्ग्येण यज्ञेन यजते। रुद्रस्य स शिर प्रति दधाति। नैन रुद्र आरुको भवति। य एवँ वेद।। 16।। (श्रिता यजते त्रीणि च। 5।)    अत्यूर्ध्वाक्षोतिरश्चात्। शिशिर प्रदृश्यते। नैव रूप न्न वासासि। न चक्षु प्रति दृश्यते।।  अन्योन्यन्तु न हिस्रातः। सत स्तद्देव लक्षणम्। लोहितोक्ष्णि शारशीर्ष्णिः। सूर्यस्योदयनं प्रति।।  त्वङ्करोषि न्यञ्जलिकाम्। त्वङ्करोषि निजानुकाम्।। 17।।  निजानुका मे न्यञ्जलिका। अमी वाच मुपासता- मिति। तस्मै सर्व ऋतवो नमन्ते। मर्यादाकरत्वा त्प्रपुरोधाम्। ब्राह्मण आप्नोति। य एवँ वेद। स खलु सँवथ्सर एतै स्सेनानीभि स्सह। इन्द्राय सर्वान्कामा नभिवहति। स द्रफ्सः। तस्यैषा भवति।। 18।।   अवद्रफ्सो अशुमती मतिष्ठत्। इयान कृष्णो दशभि स्सहस्रैः। आवर्त मिन्द्र श्शच्या धमन्तम्। उपस्नुहि तन्नृमणा मथ द्रा- मिति। एतयैवेन्द्र स्सलावृक्या सह। असुरा न्परि वृश्चति। पृथिव्यशुमती। तामन्ववस्थित स्सँवथ्सरो दिवञ्च। नैवँ विदुषाचार्यान्तेवासिनौ। अन्योन्यस्मै द्रुह्याताम्। यो द्रुह्यति। भ्रश्यते स्वर्गा ल्लोकात्। इत्यृतुमण्डलानि। सूर्यमण्डला न्याख्यायिकाः। अत ऊर्ध्व सनिर्वचनाः।। 19।। (निजानुकां भवति द्रुह्यातां पञ्च च। 6।)    आरोगो  भ्राज  पटर  पतङ्गः।  स्वर्णरो  ज्योतिषीमान्  विभासः।  ते अस्मै सर्वे दिव मा तपन्ति। ऊर्जन्दुहाना अनपस्फुरन्त - इति।  कश्यपो- ष्टमः। स महामेरुन्न जहाति। तस्यैषा भवति।  यत्ते शिल्प ङ्कश्यप रोचनावत्। इन्द्रियाव त्पुष्कल ञ्चित्रभानु। यस्मिन्थ्सूर्या अर्पिता स्सप्त साकम्।। 20।।  तस्मि न्राजान मधि वि श्रयेम- मिति। ते अस्मै सर्वे कश्यपा ज्ज्योति र्लभन्ते। तान्थ्सोम कश्यपा दधि निर्धमति। भ्रस्ता कर्मकृदिवैवम्। प्राणो जीवानीन्द्रियजीवानि। सप्त शीर्‌षण्या प्राणाः। सूर्या इत्याचार्याः। अपश्य मह मेता न्थ्सप्त सूर्या निति। पञ्चकर्णो वाथ्स्यायनः। सप्तकर्णश्च प्लाक्षिः।। 21।।  आनुश्रविक एव नौ कश्यप इति। उभौ वेदयिते। न हि शेकुमिव महामेरु ङ्गन्तुम्। अपश्य मह मेतथ्सूर्यमण्डलं परिवर्तमानम्। गार्ग्य प्राणत्रातः। गच्छन्त महामेरुम्। एक ञ्चाजहतम्। भ्राजपटर पतङ्गानिहने। तिष्ठ न्ना तपन्ति। तस्मादिह तप्त्रितपाः।। 22।।  अमुत्रेतरे। तस्मादिहा तप्त्रितपाः। तेषामेषा भवति।  सप्त सूर्या दिव मनु प्रविष्टाः। तानन्वेति पथिभि र्दक्षिणावान्। ते अस्मै सर्वे घृत मा तपन्ति। ऊर्ज न्दुहाना अनस्फुरन्त - इति। सप्तर्त्विज स्सूर्या इत्याचार्याः। तेषा मेषा भवति।  सप्त दिशो नाना सूर्याः।। 23।।  सप्त होतार ऋत्विजः। देवा आदित्या ये सप्त। तेभि स्सोमाभी रक्षण - इति। तदप्याम्नायः। दिग्भ्राज ऋतू न्करोति। एतयैवावृता सहस्रसूर्यताया इति वैशम्पायनः। तस्यैषा भवति।  यद्द्याव इन्द्र ते शत शतं भूमीः। उत स्युः। नत्वा वज्रि‘2’न्थ्सहस्र सूर्याः।। 24।।  अनु न जातमष्टरोदसी - इति। नानालिङ्गत्वा दृतूना न्नानासूर्यत्वम्। अष्टौ तु व्यवसिता इति। सूर्यमण्डला न्यष्टा त ऊर्ध्वम्। तेषामेषा भवति।  चित्र न्देवाना मुदगा दनीकम्। चक्षु र्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षम्। सूर्य आत्मा जगत स्तस्थुष श्चे-ति।। 25।। (साकं प्लाक्षि स्तप्त्रितपा नानासूर्या स्सूर्या नव च। 7।)    क्वेद मब्भ्र न्निविशते। क्वाय सँवथ्सरो मिथः। क्वाह क्वेय न्देवरात्री। क्व मासा ऋतव श्श्रिताः।।  अर्धमासा मुहूर्ताः। निमेषा स्तृटिभि स्सह। क्वेमा आपो निविशन्ते। यदीतो यान्ति सम्प्रति।।  काला अफ्सु नि विशन्ते। आप स्सूर्ये समाहिताः।। 26।।  अब्भ्राण्यप प्र पद्यन्ते। विद्युथ्सूर्ये समाहिता।।  अनवर्णे इमे भूमी। इयञ्चासौ च रोदसी।।  किस्वि दत्रान्तरा भूतम्। येनेमे विधृते उभे। विष्णुना विधृते भूमी। इति वथ्सस्य वेदना।।  इरावती धेनुमती हि भूतम्। सूयवसिनी मनुषे दशस्ये।। 27।।  व्यष्टभ्ना द्रोदसी विष्णवेते। दाधर्थ पृथिवी मभितो मयूखैः।।  किन्तद्विष्णो र्बलमाहुः। का दीप्ति किं परायणम्। एको यद्धारय द्देवः। रेजती रोदसी उभे।।  वाता द्विष्णो र्बल माहुः। अक्षरा द्दीप्ति रुच्यते। त्रिपदा द्धारयद्देवः। यद्विष्णो रेक मुत्तमम्।। 28।।   अग्नयो वायवश्चैव। एतदस्य परायणम्।।  पृच्छामि त्वा परं मृत्युम्। अवमं मध्यमञ्चतुम्। लोकञ्च पुण्यपापानाम्। एत त्पृच्छामि सम्प्रति।।  अमु माहु परं मृत्युम्। पवमानन्तु मध्यमम्। अग्नि रेवावमो मृत्युः। चन्द्रमा श्चतु रुच्यते।। 29।।   अनाभोगा परं मृत्युम्। पापा स्सँयन्ति सर्वदा। आभोगा स्त्वेव सँयन्ति। यत्र पुण्यकृतो जनाः।।  ततो मध्यम मायन्ति। चतु मग्निञ्च सम्प्रति।।  पृच्छामि त्वा पापकृतः। यत्र यातयते यमः। त्वन्न स्तद्ब्रह्म न्प्र ब्रूहि। यदि वेत्थासतो गृहान्।। 30।।   कश्यपा दुदिता स्सूर्याः। पापा न्निर्घ्नन्ति सर्वदा। रोदस्यो रन्तर्देशेषु। तत्र न्यस्यन्ते वासवैः।।  तेशरीराः प्रपद्यन्ते। यथा पुण्यस्य कर्मणः। अपाण्यपादकेशासः। तत्र तेयोनिजा जनाः।।  मृत्वा पुनर्मृत्यु मापद्यन्ते। अद्यमाना स्स्वकर्मभिः।। 31।।  आशातिका क्रिमय इव। तत पूयन्ते वासवैः।। अपैतं मृत्यु ञ्जयति। य एवँ वेद। सखल्वैवँवि द्ब्राह्मणः। दीर्घश्रुत्तमो भवति। कश्यपस्यातिथि स्सिद्धगमन स्सिद्धागमनः। तस्यैषा भवति।  आ यस्मि न्थ्सप्त वासवाः। रोहन्ति पूर्व्या रुहः।। 32।।  ऋषिर्‌ ह दीर्घश्रुत्तमः। इन्द्रस्य घर्मो अतिथि- रिति। कश्यप पश्यको भवति। यथ्सर्वं परिपश्यतीति सौक्ष्म्यात्। अथाग्ने रष्टपुरुषस्य। तस्यैषा भवति।  अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्। विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्म ज्जुहुराण मेनः। भूयिष्ठान्ते नमउक्तिँ विधे- मेति।। 33।। (समाहिता दशस्ये उत्तम मुच्यते गृहा न्थ्स्वकर्मभि पूर्व्या रुह इति। 8।)    अग्निश्च  जातवेदाश्च।  सहोजा  अजिराप्रभुः।  वैश्वानरो  नर्यापाश्च।  पङ्क्तिराधाश्च सप्तमः।  विसर्पे- वाष्टमोग्नीनाम्। एतेष्टौ वसव क्षिता इति। यथर्त्वेवाग्ने रर्चि र्वर्णविशेषाः। नीलार्चिश्च पीतकार्चिश्चेति। अथ वायो रेकादश पुरुषस्यैकादशस्त्रीकस्य।  प्रभ्राजमाना  व्यवदाताः।। 34।।  याश्च  वासुकिवैद्युताः।  रजता  परुषा  श्श्यामाः।  कपिला  अतिलोहिताः।  ऊर्ध्वा  अवपतन्ताश्च।  वैद्युत- इत्येकादश। नैनँ वैद्युतो हिनस्ति। य एवँ वेद। स होवाच व्यास पाराशर्यः। विद्युद्वध मेवाहं मृत्यु मैच्छमिति। न त्वकाम हन्ति।। 35।।  य एवँ वेद।अथ गन्धर्वगणाः।  स्वान  भ्राट्।  अङ्घारि  र्बम्भारिः।  हस्त  स्सुहस्तः।  कृशानु  र्विश्वावसुः।  मूर्ध्वन्वा  न्थ्सूर्यवर्चाः।  कृति- रित्येकादश गन्धर्वगणाः। देवाश्च महादेवाः। रश्मयश्च देवा गरगिरः।। 36।।  नैन ङ्गरो हिनस्ति। य एवँ वेद।  गौरी मिमाय सलिलानि तक्षती। एकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी। अष्टापदी नवपदी बभूवुषी। सहस्राक्षरा परमे व्योम- न्निति। वाचो विशेषणम्। अथ निगदव्याख्याताः। ताननु क्रमिष्यामः।  वराहव  स्स्वतपसः।। 37।।   विद्युन्महसो  धूपयः।  श्वापयो  गृहमेधाश्चे- त्येते। ये चेमे  शिमिविद्विषः। पर्जन्या स्सप्त पृथिवी मभिवर्‌षन्ति। वृष्टिभि रिति। एतयैव विभक्ति विपरीताः। सप्तभि र्वातै रुदीरिताः। अमू न्लोका नभिवर्‌षन्ति। तेषामेषा भवति।  समान मेत दुदकम्।। 38।।  उच्चैत्यव चाहभिः। भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति। दिवञ्जिन्व न्त्यग्नय- इति।  यदक्षरं भूतकृतम्। विश्वे देवा उपासते। महर्‌षि मस्य गोप्तारम्। जमदग्नि मकुर्वत।।  जमदग्नि राप्यायते। छन्दोभि श्चतु रुत्तरैः। राज्ञ स्सोमस्य तृप्तासः।। 39।।  ब्रह्मणा वीर्यावता। शिवा न प्रदिशो दिशः।।  तच्छँयो रावृणीमहे। गातुँ यज्ञाय। गातुँ यज्ञपतये। दैवी स्वस्तिरस्तु नः। स्वस्ति र्मानुषेभ्यः। ऊर्ध्व ञ्जिगातु भेषजम्। शन्नो अस्तु द्विपदे। शञ्चतुष्पदे।। सोमपा ‘3’ असोमपा ‘3’ इति निगदव्याख्याताः।। 40।। (व्यवदाता हन्ति गरगिर स्स्वतपस उदक न्तृप्तास श्चतुष्पद एकञ्च। 9।)    सहस्रवृदियं भूमिः। परँ व्योम सहस्रवृत्। अश्विना भुज्यू नासत्या। विश्वस्य जगतस्पती।।  जाया भूमि पति र्व्योम। मिथुनन्ता अतुर्यथुः। पुत्त्रो बृहस्पती रुद्रः। सरमा इति स्त्रीपुमम्।।  शुक्रँ वा मन्य द्यजतँ वा मन्यत्। विषुरूपे अहनी द्यौ रिव स्थः।। 41।।  विश्वा हि माया अवथ स्स्वधावन्तौ। भद्रा वां पूषणा विह रातिरस्तु।।  वासात्यौ चित्रौ जगतो निधानौ। द्यावाभूमी चरथ स्स सखायौ। तावश्विना रासभाश्वा हवं मे। शुभस्पती आगत सूर्यया सह।।  त्युग्रो ह भुज्ज्यु मश्विनोदमेघे। रयिन्न कश्चिन्ममृवाँ ‘2’ अवाहाः। तमूहथु र्नौभि रात्मन्वतीभिः। अन्तरिक्ष प्रुड्भि रपोदकाभिः।। 42।।   तिस्र क्षप स्त्रिरहाति व्रजद्भिः। नासत्या भुज्ज्यु मूहथु पतङ्गैः। समुद्रस्य धन्व न्नार्द्रस्य पारे। त्रिभी रथै श्शतपद्भि ष्षडश्वैः।।  सवितारँ वितन्वन्तम्। अनु बध्नाति शाम्बरः। आपपूरु षम्बरश्चैव। सविता रेपसोभवत्।  त्य सु तृप्तँ विदित्वैव। बहु सोम गिरँ वशी।। 43।।  अन्वेति तुग्रो वक्रियान्तम्। आयसूया न्थ्सोम तृप्सुषु।।  स सङ्ग्राम स्तमोद्योत्योतः। वाचो गा पिपाति तत्। स तद्गोभि स्तवात्येत्यन्ये। रक्षसा नन्विताश्च ये।।  अन्वेति परिवृत्यास्तः। एवमेतौ स्थो अश्विना। ते एते द्युपृथिव्योः। अहरह र्गर्भ न्दधाथे।। 44।।  तयो रेतौ वत्सा वहोरात्रे। पृथिव्या अहः। दिवो रात्रिः। ता अविसृष्टौ। दम्पती एव भवतः। तयो रेतौ वथ्सौ। अग्निश्चादित्यश्च। रात्रे र्वथ्सः। श्वेत आदित्यः। अह्नोग्निः।। 45।।  ताम्रो अरुणः। ता अविसृष्टौ। दम्पती एव भवतः। तयोरेतौ वथ्सौ। वृत्रश्च वैद्युतश्च। अग्नेर्वृत्रः। वैद्युत आदित्यस्य। ता अविसृष्टौ। दम्पती एव भवतः। तयोरेतौ वथ्सौ।। 46।।  उष्मा च नीहारश्च। वृत्रस्योष्मा। वैद्युतस्य नीहारः। तौ तावेव प्रतिपद्येते। सेय रात्री गर्भिणी पुत्रेण सँवसति। तस्या वा एत दुल्बणम्। यद्रात्रौ रश्मयः। यथा गोर्गर्भिण्या उल्बणम्। एव मेतस्या उल्बणम्। प्रजयिष्णु प्रजया च पशुभिश्च भवति। य एवँ वेद। एत मुद्यन्त मपियन्तञ्चेति। आदित्य पुण्यस्य वथ्सः। अथ पवित्राङ्गिरसः।। 47।। (स्थोपोदकाभि र्वशी दधाथे अग्नि स्तयो रेतौ वथ्सौ भवति चत्वारि च। 10।)    पवित्रवन्त परि वाज मासते। पितैषां प्रत्नो अभि रक्षति व्रतम्। महस्समुद्रँ वरुण स्तिरो दधे। धीरा इच्छेकु र्धरुणेष्वारभम्।।  पवित्रन्ते विततं ब्रह्मणस्पते। प्रभु र्गात्राणि पर्येषि विश्वतः। अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते। शृतास इद्वहन्त स्तथ्समाशत।।  ब्रह्मा देवानाम् ।।  असत स्सद्येततक्षुः।। 48।।  ऋषय स्सप्तात्रिश्च यत्। सर्वे त्रयो अगस्त्यश्च। नक्षत्रै श्शङ्कृतो वसन्न्।। अथ सवितु श्श्यावाश्वस्यावर्तिकामस्य।  अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा। नक्त न्ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः। अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि। विचाकश च्चन्द्रमा नक्षत्रमेति।।  तथ्सवितु र्वरेण्यम्। भर्गो देवस्य धीमहि।। 49।।  धियो यो नप्रचोदयात्।।  तथ्सवितु र्वृणीमहे। वयन्देवस्य भोजनम्। श्रेष्ठ सर्वधातमम्। तुरं भगस्य धीमहि।।  अपागूहत सवितातृभीन्। सर्वा न्दिवो अन्धसः। नक्तन्ता न्यभव न्दृशे। अस्थ्यस्थ्ना सं भविष्यामः।।  नाम नामैव नाम मे।। 50।।  नपुसकं पुमा स्त्र्यस्मि। स्थावरोस्म्यथ जङ्गमः। यजे यक्षि यष्टाहे च।।  मया भूतान्ययक्षत। पशवो मम भूतानि। अनूबन्ध्योस्म्यहँ विभुः।।  स्त्रिय स्सतीः। ता उ मे पुस आहुः। पश्य दक्षण्वा न्न विचेत दन्धः। कवि र्य पुत्त्र स्स इमा चिकेत।। 51।।  यस्ता विजाना थ्सवितु पितासत्।।  अन्धो मणि मविन्दत्। तमनङ्गुलि रावयत्। अग्रीव प्रत्यमुञ्चत्। तमजिह्वा असश्चत।।  ऊर्ध्वमूल मवाक्छाखम्। वृक्षँ यो वेद सम्प्रति। न स जातु जन श्श्रद्दध्यात्। मृत्यु र्मा मारयादितिः।।  हसित रुदित ङ्गीतम्।। 52।।  वीणापणव लासितम्। मृत ञ्जीवञ्च यत्किञ्चित्। अङ्गानिस्नेव विद्धि तत्।।  अतृष्य स्तृष्य द्ध्यायत्। अस्मा ज्जाता मे मिथू चरन्न्। पुत्त्रो निर्‌ऋत्या वैदेहः। अचेता यश्च चेतनः।।  सतं मणि मविन्दत्। सोनङ्गुलि रावयत्। सोग्रीवः प्रत्यमुञ्चत्।। 53।।  सोजिह्वो असश्चत।। नैतमृषिँ विदित्वा नगरं प्रविशेत्। यदि प्रविशेत्। मिथौ चरित्वा प्रविशेत्। तत्सम्भवस्य व्रतम्।  आतमग्ने रथन्तिष्ठ। एकाश्व मेकयोजनम्। एकचक्र मेकधुरम्। वातध्राजि गतिँ विभो।।  न रिष्यति न व्यथते।। 54।।  नास्याक्षो यातु सज्जति। यच्छ्वेता न्रोहिता श्चाग्नेः। रथे युक्त्वाधितिष्ठति।।  एकया च दशभिश्च स्व भूते। द्वाभ्यामिष्टये विशत्या च। तिसृभिश्च वहसे त्रिशता च। नियुद्भि र्वायविहता विमुञ्च।। 55।। (ततक्षु र्धीमहि नाम मे चिकेत गीतं प्रत्यमुञ्च द्व्यथते सप्त च। 11।)    आ तनुष्व प्र तनुष्व। उद्धमाधम सन्धम। आदित्ये चन्द्रवर्णानाम्। गर्भ मा धेहि य पुमान्।।  इतस्सिक्त सूर्यगतम्। चन्द्रमसे रसङ्कृधि। वारादञ्जनयाग्रेग्निम्। य एको रुद्र उच्यते।।  असङ्ख्याता स्सहस्राणि। स्मर्यते न च दृश्यते।। 56।।  एव मेत न्निबोधत।।  आमन्द्रै रिन्द्र हरिभिः। याहि मयूररोमभिः। मा त्वा केचिन्नि ये मुरिन्न पाशिनः। दधन्वेव ता इहि।।  मामन्द्रै रिन्द्र हरिभिः। यामि मयूर रोमभिः। मा मा केचिन्नि ये मुरिन्नपाशिनः। निधन्वेव ताँ ‘2’ इमि।।  अणुभिश्च महद्भिश्च।। 57।।  निघृष्वै रसमायुतैः। कालैर्‌ हरित्व मापन्नैः। इन्द्रायाहि सहस्रयुक्।।  अग्नि र्विभ्राष्टिवसनः। वायु श्श्वेतसिकद्रुकः। सँवथ्सरो विषूवर्णैः। नित्या स्तेनुचरास्तव।।  सुब्रह्मण्यो सुब्रह्मण्यो सुब्रह्मण्योम्। इन्द्रागच्छ हरिव आगच्छ मेधातिथेः। मेषवृषण श्वस्य मेने।। 58।।  गौरावस्कन्दि न्नहल्यायै जार। कौशिक ब्राह्मण गौतम ब्रुवाण।।  अरुणाश्वा इहागताः। वसव पृथिविक्षितः। अष्टौ दिग्वाससोग्नयः। अग्निश्च जातवेदा श्चे- त्येते।।  ताम्राश्वा स्ताम्ररथाः। ताम्रवर्णा स्तथासिताः। दण्डहस्ता खादग्दतः। इतो रुद्रा पराङ्गताः।। 59।।  उक्तस्थानं प्रमाणञ्च पुर इत।  बृहस्पतिश्च सविता च। विश्वरूपै रिहागताम्। रथेनोदकवर्त्मना। अप्सुषा इति तद्द्वयोः।। उक्तो वेषो वासासि च। कालावयवाना मित प्रतीच्या । वासात्या इत्यश्विनोः। कोन्तरिक्षे शब्दङ्करोतीति। वासिष्ठो रौहिणो मीमासाञ्चक्रे। तस्यैषा भवति।  वाश्रेव विद्यु  -दिति।  ब्रह्मण उदरणमसि।  ब्रह्मण उदीरणमसि।  ब्रह्मण आस्तरणमसि।  ब्रह्मण उपस्तरणमसि।। 60।। (दृश्यते च मेने पराङ्गता श्चक्रे षट्च। 12।) (अपक्रामत गर्भिण्यः - गर्भिणी सन्निवेशात्, मन्द्रस्थाय्युच्चारणं सामयिकम्)    अष्टयोनी मष्टपुत्त्राम्। अष्टपत्नी मिमां महीम्। अहँ वेद न मे मृत्युः। न चामृत्यु रघाहरत्।।  अष्टयो न्यष्टपुत्त्रम्। अष्टप दिद मन्तरिक्षम्। अहँ वेद न मे मृत्युः। न चामृत्यु रघाहरत्।।  अष्टयोनी मष्टपुत्त्राम्। अष्टपत्नी ममू न्दिवम्।। 61।।  अहँ वेद न मे मृत्युः। न चामृत्यु रघाहरत्।।  सुत्रामाणं  मही मूषु।  अदिति र्द्यौ रदिति रन्तरिक्षम्। अदिति र्माता स पिता स पुत्त्रः। विश्वे देवा अदिति पञ्च जनाः। अदिति र्जात मदिति र्जनित्वम्।।  अष्टौ पुत्रासो अदितेः। ये जाता स्तन्व परि। देवाँ ‘2’ उपप्रै थ्सप्तभिः।। 62।।  परा मार्ताण्ड मास्यत्।।  सप्तभि पुत्त्रै रदितिः। उप प्रैत्पूर्व्यँ युगम्। प्रजायै मृत्यवे तत्। परामार्ताण्ड माभर- दिति। ताननु क्रमिष्यामः।  मित्रश्च  वरुणश्च।  धाता  चार्यमा च।  अशश्च  भगश्च।  इन्द्रश्च  विवस्वाश्चे- त्येते।  हिरण्यगर्भो   हस श्शुचिषत् ।  ब्रह्म जज्ञान   न्तदित्पद - मिति।। गर्भ प्राजापत्यः। अथ पुरुष स्सप्तपुरुषः।। 63।। (अमून्दिव सप्तभि रेते चत्वारि च। 13। यथास्थानङ्गर्भिण्यः)    योसौ तप न्नुदेति। स सर्वेषां भूतानां प्राणानादा योदेति। मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणानादा योदगाः।।  असौ योस्तमेति। स सर्वेषां भूतानां प्राणानादा यास्त मेति। मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणानादायास्तङ्गाः।।  असौ य आपूर्यति। स सर्वेषां भूतानां प्राणै रापूर्यति।। 64।।  मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणै रापूरिष्ठाः।।  असौ योपक्षीयति। स सर्वेषां भूतानां प्राणै रपक्षीयति। मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणै रपक्षेष्ठाः।। (1)।।  अमूनि नक्षत्राणि। सर्वेषां भूतानां प्राणै रप प्रसर्पन्ति चोथ्सर्पन्ति च। मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणै रप प्रसृपत मोथ्सृपत।। 65।।   इमे मासा श्चार्धमासाश्च। सर्वेषां भूतानां प्राणै रपप्रसर्पन्ति चोथ्सर्पन्ति च। मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणै रप प्रसृपत मोथ्सृपत।।  इम ऋतवः। सर्वेषां भूतानां प्राणै रपप्रसर्पन्ति चोथ्सर्पन्ति च। मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणै रप प्रसृपत मोथ्सृपत।। (2)।।  अय सँवथ्सरः। सर्वेषां भूतानां प्राणै रपप्रसर्पति चोथ्सर्पति च।। 66।।  मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणै रपप्रसृप मोथ्सृप।।  इद महः। सर्वेषां भूतानां प्राणै रपप्रसर्पति चोथ्सर्पति च। मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणै रपप्रसृप मोथ्सृप।।  इय रात्रिः। सर्वेषां भूतानां प्राणै रप प्रसर्पति चोथ्सर्पति च। मा मे प्रजाया मा पशूनाम्। मा मम प्राणै रपप्रसृप मोथ्सृप।।  ओं भूर्भुवस्स्वः।  एतद्वो मिथुनं मा नो मिथुन रीढ्वम्।। 67।। (3) (प्राणै रापूर्यति मोथ्सृपत चोथ्सर्पति च मोथ्सृप द्वे च। 14। योसौ षोडशामूनि द्वादशाय ञ्चतुर्दश। उदेत्यस्त मेत्यापूर्य त्यपक्षीय त्यमूनि नक्षत्राणीमे मासा इम ऋतवोय सँवथ्सर इदमह रिय रात्रिर्दश।)   अथादित्यस्याष्टपुरुषस्य।  वसूना मादित्या स्थाने स्वतेजसा भानि।  रुद्राणा मादित्याना स्थाने स्वतेजसा भानि।  आदित्याना मादित्याना स्थाने स्वतेजसा भानि।  सता सत्यानाम्। आदित्याना स्थाने स्वतेजसा भानि।  अभिधून्वता मभिघ्नताम्। वातवतां मरुताम्। आदित्याना स्थाने स्वतेजसा भानि।  ऋभूणा मादित्याना स्थाने स्वतेजसा भानि।  विश्वेषा न्देवानाम्। आदित्याना स्थाने स्वतेजसा भानि।  सँवथ्सरस्य सवितुः। आदित्यस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  ओं भूर्भुवस्स्वः।  रश्मयो वो मिथुनं मा नो मिथुन रीढ्वम्।। 68।। (ऋभूणा मादित्याना स्थाने स्वतेजसा भानि षट्च। 15।)    आरोगस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  भ्राजस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  पटरस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  पतङ्गस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  स्वर्णरस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  ज्योतिषीमतस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  विभासस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  कश्यपस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  ओं भूर्भुवस्स्वः।  आपो वो मिथुनं मा नो मिथुन रीढ्वम्।। 69।। (आरोगस्य दश। 16।)   अथ वायो रेकादशपुरुष स्यैकादशस्त्रीकस्य।  प्रभ्राजमानाना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  व्यवदाताना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  वासुकिवैद्युताना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  रजताना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  परुषाणा रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  श्यामाना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  कपिलाना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  अतिलोहिताना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  ऊर्ध्वाना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।। 70।।   अवपतन्ताना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  वैद्युताना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भानि।  प्रभ्राजमानीना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  व्यवदातीना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  वासुकिवैद्युतीना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  रजताना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  परुषाणा रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  श्यामाना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  कपिलाना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  अतिलोहितीना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  ऊर्ध्वाना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  अवपतन्तीना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  वैद्युतीना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि।  ओं भूर्भुवस्स्वः।  रूपाणि वो मिथुनं मा नो मिथुन रीढ्वम्।। 71।। (ऊर्ध्वाना रुद्राणा स्थाने स्वतेजसा भान्यतिलोहितीना रुद्राणीना स्थाने स्वतेजसा भानि पञ्च च। 17।)   अथाग्ने रष्टपुरुषस्य।  अग्ने पूर्वदिश्यस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  जातवेदस उपदिश्यस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  सहोजसो दक्षिणदिश्यस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  अजिराप्रभव उपदिश्यस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  वैश्वानरस्यापरदिश्यस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  नर्यापस उपदिश्यस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  पङ्क्तिराधस उदग्दिश्यस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  विसर्पिण उपदिश्यस्य स्थाने स्वतेजसा भानि।  ओं भूर्भुवस्स्वः।  दिशो वो मिथुनं मा नो मिथुन रीढ्वम्।। 72।। (स्वरेकञ्च। 18। एतद्रश्मय आपो रूपाणि दिश पञ्च।)    दक्षिणपूर्वस्या न्दिशि विसर्पी नरकः। तस्मान्न परिपाहि।  दक्षिणापरस्या न्दिश्यविसर्पी नरकः। तस्मान्न परिपाहि।  उत्तरपूर्वस्या न्दिशि विषादी नरकः। तस्मान्न परिपाहि।  उत्तरापरस्या न्दिश्यविषादी नरकः। तस्मान्न परिपाहि।  आ यस्मि‘2’ न्थ्सप्त वासवा   इन्द्रियाणि शतक्रत  वित्येते।। 73। (दक्षिण पूर्वस्यान्नव। 19।)    इन्द्रघोषा वो वसुभि पुरस्ता दुप दधताम्।  मनोजवसो व पितृभि र्दक्षिणत उप दधताम्।  प्रचेता वो रुद्रै पश्चा दुप दधताम्।  विश्वकर्मा व आदित्यै रुत्तरत उप दधताम्।  त्वष्टा वो रूपै रुपरिष्टा- दुप दधताम्।  सँ‘2’ज्ञानँ व पश्चा- दिति।  आदित्य स्सर्वोग्नि पृथिव्याम्।  वायु रन्तरिक्षे।  सूर्यो दिवि।  चन्द्रमा दिक्षु।  नक्षत्राणि स्वलोके।  एवा ह्येव--।  एवा ह्यग्ने--।  एवा हि वायो--।  एवा हीन्द्र --।  एवा हि पूषन्न्--।  एवा हि देवाः--।। 74।। (दिक्षु सप्त च। 20।)    आप मापा मप स्सर्वाः। अस्मादस्मा दितोमुतः। अग्नि र्वायुश्च सूर्यश्च। सहस ञ्चस्करर्धिया।।  वाय्वश्वा रश्मिपतयः। मरीच्यात्मानो अद्रुहः। देवी र्भुवनसूवरीः। पुत्त्रवत्त्वाय मे सुत।।  महानाम्नी र्महामानाः। महसो महसस्स्वः।। 75।।  देवी पर्जन्यसूवरीः। पुत्त्रवत्त्वाय मे सुत।।  अपाश्न्युश्नि मपारक्षः। अपाश्न्युष्णि मपारघम्। अपाघ्रा मप चावर्तिम्। अप देवी रितो हित।।  वज्र न्देवी रजीताश्च। भुवन न्देवसूवरीः। आदित्या नदिति न्देवीम्। योनिनोर्ध्व मुदीषत।। 76।।   भद्र ङ्कर्णेभि श्शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्ये माक्षभि र्यजत्राः। स्थिरै रङ्गै स्तुष्टुवास स्तनूभिः। व्यशेम देवहितँ यदायुः।।  स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नपूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति न स्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पति र्दधातु।।  केतवो अरुणासश्च। ऋषयो वातरशनाः। प्रतिष्ठा शतधा हि। समाहितासो सहस्रधायसम्।  शिवा न श्शन्तमा भवन्तु। दिव्या आप ओषधयः।।  सुमृडीका सरस्वति। मा ते व्योम सन्दृशि।। 77।। (स्व रुदीषत वातरशना ष्षट्च। 21।)   योपां पुष्पँ वेद। पुष्पवा न्प्रजावा न्पशुमा न्भवति। चन्द्रमा वा अपां पुष्पम्। पुष्पवा न्प्रजावा न्पशुमा न्भवति। य एवँ वेद। योपा मायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। अग्निर्वा अपा मायतनम्। आयतनवा न्भवति। योग्ने रायतनँ वेद।। 78।।  आयतनवा न्भवति। आपो वा अग्ने रायतनम्। आयतनवा न्भवति। य एवँ वेद। योपा मायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। वायुर्वा अपा मायतनम्। आयतनवा न्भवति। यो वायो रायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति।। 79।।  आपो वै वायो रायतनम्। आयतनवा न्भवति। य एवँ वेद। योपा मायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। असौ वै तप न्नपा मायतनम्। आयतनवा न्भवति। योमुष्य तपत आयतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। आपो वा अमुष्य तपत आयतनम्।। 80।।  आयतनवा न्भवति। य एवँ वेद। योपामायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। चन्द्रमा वा अपा मायतनम्। आयतनवा न्भवति। यश्चन्द्रमस आयतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। आपो वै चन्द्रमस आयतनम्। आयतनवा न्भवति।। 81।।  य एवँ वेद। योपा मायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। नक्षत्राणि वा अपा मायतनम्। आयतनवा न्भवति। यो नक्षत्राणा मायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। आपो वै नक्षत्राणा मायतनम्। आयतनवा न्भवति। य एवँ वेद।। 82।।  योपा मायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। पर्जन्यो वा अपा मायतनम्। आयतनवा न्भवति। य पर्जन्यस्यायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। आपो वै पर्जन्यस्यायतनम्। आयतनवा न्भवति। य एवँ वेद। योपा मायतनँ वेद।। 83।।  आयतनवा न्भवति। सँवथ्सरो वा अपा मायतनम्। आयतनवा न्भवति। यस्सँवथ्सरस्यायतनँ वेद। आयतनवा न्भवति। आपो वै सँवथ्सरस्यायतनम्। आयतनवा न्भवति। य एवँ वेद। योप्सु नावं प्रतिष्ठिताँ वेद। प्रत्येव तिष्ठति।। 84।।  इमे वै लोका अफ्सु प्रतिष्ठिताः। तदेषाभ्यनूक्ता।  अपारस मुदयसन्न्। सूर्ये शुक्र समाभृतम्। अपा रसस्य यो रसः। तँ वो गृह्णाम्युत्तम- मिति। इमे वै लोका अपा रसः। तेमुष्मि न्नादित्ये समाभृताः। जानुदघ्नी मुत्तरवेदी ङ्खात्वा। अपां पूरयित्वा गुल्फदघ्नम्।। 85।।  पुष्करपर्णै पुष्करदण्डै पुष्करैश्च सस्तीर्य। तस्मिन्विहायसे। अग्निं प्रणीयोपसमाधाय। ब्रह्मवादिनो वदन्ति। कस्मात्प्रणीतेय मग्नि श्चीयते। सा प्रणीतेय मफ्सु ह्यय ञ्चीयते। असौ भुवनेप्यनाहिताग्नि रेताः। तमभित एता अबीष्टका उप दधाति। अग्निहोत्रे दर्‌शपूर्णमासयोः। पशुबन्धे चातुर्मास्येषु।। 86।।  अथो आहुः। सर्वेषु यज्ञक्रतुष्विति। एतद्धस्म वा आहु श्शण्डिलाः। कमग्नि ञ्चिनुते। सत्त्रिय मग्नि ञ्चिन्वानः। सँवथ्सरं प्रत्यक्षेण। कमग्नि ञ्चिनुते। सावित्र मग्नि ञ्चिन्वानः। अमु मादित्यं प्रत्यक्षेण। कमग्नि ञ्चिनुते।। 87।।  नाचिकेत मग्नि ञ्चिन्वानः। प्राणा न्प्रत्यक्षेण। कमग्नि ञ्चिनुते। चातुर्‌होत्रिय मग्नि ञ्चिन्वानः। ब्रह्म प्रत्यक्षेण। कमग्नि ञ्चिनुते। वैश्वसृज मग्नि ञ्चिन्वानः। शरीरं प्रत्यक्षेण। कमग्नि ञ्चिनुते। उपानुवाक्य माशु मग्नि ञ्चिन्वानः।। 88।।  इमा न्लोका न्प्रत्यक्षेण। कमग्नि ञ्चिनुते। इम मारुणकेतुक मग्नि ञ्चिन्वान इति। य एवासौ। इतश्चामुतश्चाव्यतीपाती। तमिति। योग्ने र्मिथूया वेद। मिथुनवा न्भवति। आपो वा अग्ने र्मिथूयाः। मिथुनवा न्भवति। य एवँ वेद।। 89।। (वेद भव त्यायतन मायतनवा न्भवति य एवँ वेद वेद तिष्ठति गुल्फदघ्न ञ्चातुर्मास्येष्वमु मादित्यं प्रत्यक्षेण कमग्निञ्चिनुत उपानुवाक्य माशु मग्नि ञ्चिन्वानो मिथूया मिथुनवा न्भव त्येकञ्च। 22। पुष्प मग्नि र्वायु रसौ वै तप न्चन्द्रमा नक्षत्राणि पर्जन्य स्सँवथ्सरो योप्सु नाव मेतद्धस्म वै सत्त्रिय सँवथ्सर सावित्र ममु न्नाचिकेतं प्राणा श्चातुर्‌होत्रियं ब्रह्म वैश्वसृज शरीर मुपानुवाक्य माशु मिमा न्लोका निम मारुणकेतुक मग्नि ञ्चिन्वानो य एवासौ।)   आपो वा इद मास‘2’न्थ्सलिल मेव। स प्रजापति रेक पुष्करपर्णे समभवत्। तस्यान्त र्मनसि काम स्समर्तत। इद सृजेयमिति। तस्मा द्यत्पुरुषो मनसाभिगच्छति। तद्वाचा वदति। तत्कर्मणा करोति। तदेषाभ्यनूक्ता।  काम स्तदग्रे समवर्तताधि। मनसो रेत प्रथमँ यदासीत्।। 90।।  सतो बन्धु मसति निरविन्दन्न्। हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषे- ति। उपैन न्तदुप नमति। यत्कामो भवति। य एवँ वेद। स तपोतप्यत। स तपस्तप्त्वा। शरीर मधूनुत। तस्य यन्मास मासीत्। ततोरुणा केतवो वातरशना ऋषय उदतिष्ठन्न्।। 91।।  ये नखाः। ते वैखानसाः। ये वालाः। ते वालखिल्याः। यो रसः। सोपाम्। अन्तरत कूर्मं भूत सर्पन्तम्। तमब्रवीत्। मम वै त्वङ्मासा। समभूत्।। 92।।  नेत्यब्रवीत्। पूर्व मेवाह मिहास मिति। तत्पुरुषस्य पुरुषत्वम्। स सहस्रशीर्‌षा पुरुषः। सहस्राक्ष स्सहस्रपात्। भूत्वोदतिष्ठत्। तमब्रवीत्। त्वँ वै पूर्व समभूः। त्वमिदं पूर्व कुरुष्वेति। स इत आदायापः।। 93।।  अञ्जलिना पुरस्ता दुपादधात्। एवा ह्येवेति। तत आदित्य उदतिष्ठत्। सा प्राची दिक्। अथारुण केतु र्दक्षिणत उपादधात्। एवा ह्यग्न इति। ततो वा अग्नि रुदतिष्ठत्। सा दक्षिणा दिक्। अथारुण केतु पश्चा दुपादधात्। एवा हि वायो इति।। 94।।  ततो वायु रुदतिष्ठत्। सा प्रतीची दिक्। अथारुण केतु रुत्तरत उपादधात्। एवाहीन्द्रेति। ततो वा इन्द्र उदतिष्ठत्। सोदीची दिक्। अथारुण केतुर्मध्य उपादधात्। एवाहि पूषन्निति। ततो वै पूषोदतिष्ठत्। सेयन्दिक्।। 95।।  अथारुण केतु रुपरिष्टा दुपादधात्। एवाहि देवा इति। ततो देवमनुष्या पितरः। गन्धर्वाप्सरस श्चोदतिष्ठन्न्। सोर्ध्वा दिक्। या विप्रुषो वि परापतन्न्। ताभ्योसुरा रक्षसि पिशाचा श्चोदतिष्ठन्न्। तस्मात्ते पराभवन्न्। विप्रुड्भ्यो हि ते समभवन्न्। तदेषाभ्यनूक्ता।। 96।।   आपो ह यद्बृहती र्गर्भ मायन्न्। दक्ष न्दधाना जनयन्ती स्वयम्भुम्। तत इमेध्यसृज्यन्त सर्गाः।-- अद्भ्यो वा इद समभूत्। --तस्मादिद सर्वं ब्रह्म स्वयम्भ्वि-ति। तस्मादिद सर्व शिथिल मिवाध्रुव मिवाभवत्। प्रजापति र्वाव तत्। आत्मनात्मानँ विधाय। तदेवानु प्राविशत्। तदेषाभ्यनूक्ता।। 97।।   विधाय लोकान् विधाय भूतानि। विधाय सर्वा प्रदिशो दिशश्च। प्रजापति प्रथमजा ऋतस्य। आत्मनात्मान मभि सँ विवेशे- ति। सर्व मेवेद माप्त्वा। सर्व मवरुद्ध्य। तदेवानु प्रविशति। य एवँ वेद।। 98।। (आसी दतिष्ठ न्नभू दपो वायो इति सेय न्दिगभ्यनूक्ता भ्यनूक्ताष्टौ च। 23।)   चतुष्टय्य आपो गृह्णाति। चत्वारि वा अपा रूपाणि। मेघो विद्युत्। स्तनयित्नु र्वृष्टिः। तान्येवाव रुन्धे। आतपति वर्ष्या गृह्णाति। ता पुरस्ता दुप दधाति। एता वै ब्रह्मवर्चस्या आपः। मुखत एव ब्रह्मवर्चस मव रुन्धे। तस्मान्मुखतो ब्रह्मवर्चसितरः।। 99।।  कूप्या गृह्णाति। ता दक्षिणत उप दधाति। एता वै तेजस्विनी रापः। तेज एवास्य दक्षिणतो दधाति। तस्मा द्दक्षिणोर्ध स्तेजस्वितरः। स्थावरा गृह्णाति। ता पश्चादुप दधाति। प्रतिष्ठिता वै स्थावराः। पश्चादेव प्रति तिष्ठति। वहन्ती र्गृह्णाति।। 100।।  ता उत्तरत उप दधाति। ओजसा वा एता वहन्ती रिवोद्गतीरिव आकूजतीरिव धावन्तीः। ओज एवास्योत्तरतो दधाति। तस्मादुत्तरोर्ध ओजस्वितरः। सम्भार्या गृह्णाति। ता मध्य उप दधाति। इयँ वै सम्भार्याः। अस्यामेव प्रति तिष्ठति। पल्वल्या गृह्णाति। ता उपरिष्टा दुपादधाति।। 101।।  असौ वै पल्वल्याः। अमुष्यामेव प्रति तिष्ठति। दिक्षूप दधाति। दिक्षु वा आपः। अन्नँ वा आपः। अद्भ्यो वा अन्न ञ्जायते। यदेवाद्भ्यो न्न ञ्जायते। तदव रुन्धे। तँ वा एत मरुणा केतवो वातरशना ऋषयोचिन्वन्न्। तस्मा दारुणकेतुकः। तदेषाभ्यनूक्ता।  केतवो अरुणासश्च। ऋषयो वातरशनाः। प्रतिष्ठा शतधा हि। समाहितासो सहस्रधायस- मिति। शतशश्चैव सहस्रशश्च प्रति तिष्ठति। य एत मग्नि ञ्चिनुते। य उ चैनमेवँ वेद।। 102।। (ब्रह्मवर्चसितरो वहन्तीर्गह्णाति ता उपरिष्टा दुपादधात्यारुण केतुकोष्टौ च। 24।)   जानुदघ्नी मुत्तरवेदी ङ्खात्वा। अपां पूरयति। अपा सर्वत्वाय। पुष्करपर्ण रुक्मं पुरुष मित्युप दधाति। तपो वै पुष्करपर्णम्। सत्य रुक्मः। अमृतं पुरुषः। एताव द्वावास्ति। यावदेतत्। यावदेवास्ति।। 103।।  तदवरुन्धे। कूर्म मुप दधाति। अपामेव मेध मव रुन्धे। अथो स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै।  आपमापा मप स्सर्वाः। अस्मादस्मा दितोमुतः। अग्निर्वायुश्च सूर्यश्च। सह सञ्चस्करर्धिया - इति।  वाय्वश्वा रश्मिपतयः  ।  लोकं पृणच्छिद्रं पृण।। 104।।  यास्तिस्र परमजाः।  इन्द्रघोषा वो वसुभि   रेवाह्येवे-ति । पञ्च चितय उपदधाति। पाङ्क्तोग्निः। यावानेवाग्निः। तञ्चिनुते। लोकंपृणया द्वितीया मुप दधाति। पञ्चपदा वै विराट्। तस्या वा इयं पादः। अन्तरिक्षं पादः। द्यौ पादः। दिश पादः। परोरजा पादः। विराज्येव प्रतितिष्ठति। य एत मग्नि ञ्चिनुते। य उ चैनमेवँ वेद।। 105।। (अस्ति पृणान्तरिक्षं पादष्षट्च। 25।)   अग्निं प्रणीयोपसमाधाय। तमभित एता अबीष्टका उपदधाति। अग्निहोत्रे दर्‌शपूर्णमासयोः। पशुबन्धे चातुर्मास्येषु। अथो आहुः। सर्वेषु यज्ञक्रतुष्विति। अथ ह स्माहारुण स्स्वायम्भुवः। सावित्र स्सर्वोग्नि रित्यननुषङ्गं मन्यामहे। नाना वा एतेषाँ वीर्याणि। कमग्नि ञ्चिनुते।। 106।।  सत्रिय मग्नि ञ्चिन्वानः। कमग्नि ञ्चिनुते। सावित्र मग्नि ञ्चिन्वानः। कमग्नि ञ्चिनुते। नाचिकेत मग्नि ञ्चिन्वानः। कमग्नि ञ्चिनुते। चातुर्‌होत्रिय मग्नि ञ्चिन्वानः। कमग्नि ञ्चिनुते। वैश्वसृज मग्नि ञ्चिन्वानः। कमग्नि ञ्चिनुते।। 107।।  उपानुवाक्य माशु मग्नि ञ्चिन्वानः। कमग्नि ञ्चिनुते। इम मारुणकेतुक मग्नि ञ्चिन्वान इति। वृषा वा अग्निः। वृषाणौ सस्फालयेत्। हन्येतास्य यज्ञः। तस्मान्नानुषज्यः। सोत्तरवेदिषु क्रतुषु चिन्वीत। उत्तरवेद्या ह्यग्नि श्चीयते। प्रजाकाम श्चिन्वीत।। 108।।  प्राजापत्यो वा एषोग्निः। प्राजापत्या प्रजाः। प्रजावा न्भवति। य एवँ वेद। पशुकाम श्चिन्वीत। सँ‘‘ज्ञानँ वा एतत्पशूनाम्। यदापः। पशूनामेव सँ‘2‘ज्ञानेग्नि ञ्चिनुते। पशुमा न्भवति। य एवँ वेद।। 109।।  वृष्टिकाम श्चिन्वीत। आपो वै वृष्टिः। पर्जन्यो वर्‌षुको भवति। य एवँ वेद। आमयावी चिन्वीत। आपो वै भेषजम्। भेषज मेवास्मै करोति। सर्वमायु रेति। अभिचर श्चिन्वीत। वज्रो वा आपः।। 110।।  वज्र मेव भ्रातृव्येभ्य प्रहरति। स्तृणुत एनम्। तेजस्कामो यशस्कामः। ब्रह्मवर्चसकाम स्वर्गकाम श्चिन्वीत। एताव द्वावास्ति। यावदेतत्। यावदेवास्ति। तदव रुन्धे। तस्यै तद्व्रतम्। वर्‌षति न धावेत्।। 111।।  अमृतँ वा आपः। अमृतस्यानन्तरित्यै। नाप्सु मूत्रपुरीष ङ्कुर्यात्। न निष्ठीवेत्। न विवसन स्स्नायात्। गुह्यो वा एषोग्निः। एतस्याग्ने रनतिदाहाय। न पुष्करपर्णानि हिरण्यँ वाभितिष्ठेत्। एतस्याग्ने रनभ्यारोहाय। न कूर्मस्याश्नीयात्। नोदकस्याघातुकान्येन मोदकानि भवन्ति। अघातुका आपः। य एत मग्नि ञ्चिनुते। य उ चैनमेवँ वेद।। 112।। (चिनुते चिनुते प्रजाकाम श्चिन्वीत य एवं वेदापो धावे दश्नीया च्चत्वारि च। 26।)    इमानुकं भुवना सीषधेम। इन्द्रश्च विश्वे च देवाः।।  यज्ञञ्च न स्तन्वञ्च प्रजाञ्च। आदित्यै रिन्द्र स्सह सीषधातु।।  आदित्यै रिन्द्र स्सगणो मरुद्भिः। अस्माकं भूत्वविता तनूनाम्।।  आप्लवस्व प्रप्लवस्व। आण्डीभवजमा मुहुः। सुखादी न्दुखनिधनाम्। प्रति मुञ्चस्व स्वां पुरम्।। 113।।   मरीचय स्स्वायम्भुवाः। ये शरीराण्यकल्पयन्न्। ते ते देहङ्कल्पयन्तु। मा च ते ख्यास्मती रिषत्।।  उत्तिष्ठत मा स्वप्त। अग्निमिच्छध्वं भारताः। राज्ञ स्सोमस्य तृप्तासः। सूर्येण सयुजोषसः।।  युवा सुवासाः ।।  अष्टाचक्रा नवद्वारा।। 114।।  देवानां पू रयोद्ध्या। तस्या हिरण्मय कोशः। स्वर्गो लोको ज्योतिषावृतः।।  यो वै तां ब्रह्मणो वेद। अमृतेनावृतां पुरीम्। तस्मै ब्रह्म च ब्रह्मा च। आयु कीर्तिं प्रजान्ददुः।।  विभ्राजमाना हरिणीम्। यशसा सम्परीवृताम्। पुर हिरण्मयीं ब्रह्मा।। 115।।  विवेशापराजिता।।  पराङेत्यज्यामयी। पराङेत्यनाशकी। इह चामुत्र चान्वेति। विद्वा न्देवासुरा नुभयान्।।  यत्कुमारी मन्द्रयते। यद्योषि द्यत्पतिव्रता। अरिष्टँ यत्किञ्च क्रियते। अग्नि स्तदनु वेधति।।  अशृतास श्शृतासश्च।। 116।।  यज्वानो येप्ययज्वनः। स्वर्यन्तो नापेक्षन्ते। इन्द्र मग्निञ्च ये विदुः।।  सिकता इव सँयन्ति। रश्मिभि स्समुदीरिताः। अस्माल्लोका दमुष्माच्च। ऋषिभि रदा त्पृश्निभिः।।  अपेत वीत वि च सर्पतातः। येत्र स्थ पुराणा ये च नूतनाः। अहोभि रद्भि रक्तुभि र्व्यक्तम्।। 117।।  यमो ददा त्ववसान मस्मै।।  नृमुणन्तु नृपात्वर्यः। अकृष्टा ये च कृष्टजाः। कुमारीषु कनीनीषु। जारिणीषु च ये हिताः।।  रेतपीता आण्डपीताः। अङ्गारेषु च ये हुताः। उभया न्पुत्रपौत्रकान्। युवेहँ यमराजगान्।।  शतमिन्नु शरदः ।।  अदो यद्ब्रह्म विलबम्। पितृणाञ्च यमस्य च। वरुणस्याश्विनो रग्नेः। मरुताञ्च विहायसाम्।।  कामप्रयवणं मे अस्तु। स ह्येवास्मि सनातनः। इति नाको ब्रह्मिश्रवो रायोधनम्। पुत्रा नापो देवी रिहाहिता।। 118।। (पुर न्नवद्वारा ब्रह्मा च व्यक्त शरदोष्टौ च। 27।)    विशीर्ष्णी ङ्गृद्ध्रशीर्ष्णीञ्च। अपेतो निर्‌ऋति हथः। परिबाध श्वेतकुक्षम्। निजङ्घ शबलोदरम्।।  सतान् वाच्यायया सह। अग्ने नाशय सन्दृशः। ईर्ष्यासूये बुभुक्षाम्। मन्यु ङ्कृत्याञ्च दीधिरे। रथेन किशुकावता। अग्ने नाशय सन्दृशः।। 119।। (विशीर्ष्णी न्दश। 28।)    पर्जन्याय प्रगायत। दिवस्पुत्राय मीढुषे। स नो यवस मिच्छतु।।  इदँ वच पर्जन्याय स्वराजे। हृदो अस्त्वन्तर न्तद्युयोत। मयोभू र्वातो विश्वकृष्टय स्सन्त्वस्मे। सुपिप्पला ओषधी र्देवगोपाः।।  यो गर्भ मोषधीनाम्। गवाङ्कृणो त्यर्वताम्। पर्जन्य पुरुषीणाम्।। 120।। (पर्जन्याय दश। 29।)    पुन र्मामैत्विन्द्रियम्। पुन रायु पुनर्भगः। पुन र्ब्राह्मणमैतु मा। पुन र्द्रविण मैतु मा।।  यन्मेद्य रेत पृथिवी मस्कान्। यदोषधी रप्यसर द्यदापः। इद न्तत्पुन रा ददे। दीर्घायुत्वाय वर्चसे।।  यन्मे रेत प्रसिच्यते। यन्म आजायते पुनः। तेन मा ममृत ङ्कुरु। तेन सुप्रजस ङ्कुरु।। 121।। (पुनर्द्वे च। 30।)    अद्भ्य स्तिरोधा जायत। तव वैश्रवण स्सदा। तिरो धेहि सपत्नान्नः। ये अपोश्नन्ति केचन।।  त्वाष्ट्रीं मायाँ वैश्रवणः। रथ सहस्रवन्धुरम्। पुरुश्चक्र सहस्राश्वम्। आस्थाया याहि नो बलिम्।।  यस्मै भूतानि बलि मावहन्ति। धन ङ्गावो हस्ति हिरण्य मश्वान्।। 122।।  असाम सुमतौ यज्ञियस्य। श्रियं बिभ्रतोन्नमुखीँ विराजम्।।  सुदर्‌शने च क्रौञ्चे च। मैनागे च महागिरौ। सतद्वाट्टार गमन्ता। सहार्य न्नगर न्तव।। इति मन्त्राः। कल्पोत ऊर्ध्वम्। यदि बलि हरेत्।  हिरण्यनाभये वितुदये कौबेरायायं बलिः।। 123।।  सर्वभूताधिपतये नम- इति। अथ बलि हृत्वोपतिष्ठेत।  क्षत्रङ्क्षत्रँ वैश्रवणः। ब्राह्मणा वय स्मः। नमस्ते अस्तु मा मा हिसीः। अस्मात्प्रविश्यान्न मद्धी-ति। अथ तमग्नि मादधीत। यस्मिन्नेतत्कर्म प्रयुञ्जीत।  तिरोधा भूः। तिरोधा भुवः।। 124।।  तिरोधा स्वः। तिरोधा भूर्भुवस्स्वः। सर्वेषाँ लोकाना माधिपत्ये सीदे- ति। अथ तमग्नि मिन्धीत। यस्मि न्नेतत्कर्म प्रयुञ्जीत।  तिरोधा भूस्स्वाहा।।  तिरोधा भुवस्स्वाहा।।  तिरोधा स्स्व स्स्वाहा।।  तिरोधा भूर्भुव स्स्वस्स्वाहा।। यस्मिन्नस्य काले सर्वा आहुतीर्‌ हुता भवेयुः।। 125।।  अपि ब्राह्मणमुखीनाः। तस्मिन्नह्न काले प्रयुञ्जीत। पर स्सुप्तजना द्वेपि। मा स्म प्रमाद्यन्त माध्यापयेत्। सर्वार्था स्सिध्यन्ते। य एवँ वेद। क्षुध्य न्निद मजानताम्। सर्वार्था न सिध्यन्ते।  यस्ते विघातुको भ्राता। ममान्तर्‌हृदये श्रितः।। 126।।  तस्मा इम मग्रपिण्ड ञ्जुहोमि। समेर्था न्मा वि वधीत्। मयि स्वाहा।।  राजाधिराजाय प्रसह्यसाहिने। नमो वयँ वैश्रवणाय कुर्महे। स मे कामा न्कामकामाय मह्यम्। कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु। कुबेराय वैश्रवणाय। महाराजाय नमः।।  केतवो अरुणासश्च। ऋषयो वातरशनाः। प्रतिष्ठा शतधा हि। समाहितासो सहस्रधायसम्।।  शिवा न श्शन्तमा भवन्तु। दिव्या आप ओषधयः।।  सुमृडीका सरस्वति। मा ते व्योम सन्दृशि।। 127।। (अश्वा न्बलिर्भुवो भवेयु श्श्रितश्च सप्त च। 31।)   सँवथ्सर मेतद्व्रत ञ्चरेत्। द्वौ वा मासौ। नियम स्समासेन। तस्मि न्नियमविशेषाः। त्रिषवण मुदकोपस्पर्‌शी। चतुर्थकालपानभक्त स्स्यात्। अहरहर्वा भैक्ष मश्नीयात्। औदुम्बरीभि स्समिद्भि रग्निं परिचरेत्।  पुनर्मा मैत्विन्द्रिय  मित्येतेनानुवाकेन। उद्धृतपरिपूताभि रद्भि कार्य ङ्कुर्वीत।। 128।।  असञ्चयवान्।  अग्नये  वायवे  सूर्याय।  ब्रह्मणे  प्रजापतये। चन्द्रमसे  नक्षत्रेभ्यः।  ऋतुभ्य  स्सँवथ्सराय।  वरुणाया रुणाये-ति व्रतहोमाः। प्रवर्ग्यव दादेशः। अरुणा काण्डऋषयः। अरण्येधीयीरन्न्। भद्रङ्कर्णेभि  रिति द्वे जपित्वा।। 129।।  महानाम्नीभि  (3) रुदक सस्पर्श्य। तमाचार्यो दद्यात्। शिवानश्शन्तमे - त्योषधी रालभते। सुमृडीके ति - भूमिम्। एव मपवर्गे। धेनु र्दक्षिणा। कसँ वासश्च क्षौमम्। अन्यद्वा शुक्लम्। यथाशक्ति वा। एव स्वाध्यायधर्मेण। अरण्ये धीयीत। तपस्वी पुण्यो भवति तपस्वी पुण्यो भवति।। 130।। (कुर्वीत जपित्वा स्वाध्यायधर्मेण द्वे च। 31।) (भद्र स्मृति स्साकञ्जाना मक्ष्यतिताम्राण्यत्यूर्ध्वाक्ष आरोग क्वेदमग्निश्च सहस्रवृ त्पवित्रवन्त आतनुष्वाष्टयोनीँ योसा वथादित्य स्यारोगस्याथ वायो रथाग्ने र्दक्षिणपूर्वस्या मिन्द्रघोषा व आपमापाँ योपा मापो वै चतुष्टय्यो जानुदघ्नी मग्निं प्रणीयेमानुकँ विशीर्ष्णीं पर्जन्याय पुन रद्भ्य स्सँवत्सर न्द्वात्रिशत्। 31। भद्र ञ्ज्योतिषा तस्मिन्न्राजान ङ्कश्यपा त्सहस्रवृदिय न्नपुसक मष्टयोनी मवपतन्ताना मायतनवा न्भवति सतो बन्धुन्ता उत्तरतो वज्रमेव पुनर्मामैतु त्रिशदुत्तरशतम्। 130। भद्रन्तपस्वी पुण्यो भवति तपस्वी पुण्यो भवति।।)  भद्र ङ्कर्णेभि श्शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभि र्यजत्राः। स्थिरै रङ्गै स्तुष्टुवास स्तनूभिः। व्यशेम देवहितँ यदायुः।।  स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति न पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।  ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।। आरण्यके द्वितीय प्रपाठकः (स्वाध्याय प्रश्नः) (काठकेषु पञ्चमः)  नमो ब्रह्मणे नमो अस्त्वग्नये नम पृथिव्यै नम ओषधीभ्यः। नमो वाचे नमो वाचस्पतये नमो विष्णवे बृहते करोमि।।  ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।। स्वा।का। 1 यज्ञोपवीत ब्राह्मणम् 1 (एकोनुवाकः 1)   सह वै देवाना ञ्चासुराणाञ्च यज्ञौ प्रततावास्ताँ वय स्वर्गँ लोक मेष्यामो वयमेष्याम इति, तेसुरा स्सन्नह्य सहसैवाचर न्ब्रह्मचर्येण तपसैव देवा, स्तेसुरा अमुह्य, स्ते न प्राजानस्ते पराभवन्ते न स्वर्गँ लोकमाय, न्प्रसृतेन वै यज्ञेन देवा स्स्वर्गँ लोकमाय, न्न प्रसृतेनासुरा न्पराभावय, न्प्रसृतो ह वै यज्ञोपवीतिनो यज्ञो प्रसृतोनुपवीतिनो, यत्किञ्च ब्राह्मणो यज्ञोपवीत्यधीते यजत एव त,त्तस्मा द्यज्ञोपवीत्येवाधीयीत याजये द्यजेत वा यज्ञस्य प्रसृत्या, अजिनँ वासो वा दक्षिणत उपवीय दक्षिणं बाहु मुद्धरतेवधत्ते- सव्य मिति यज्ञोपवीत, -मेत देव विपरीतं प्राचीनावीत सँवीतं मानुषम्।। 1।।  स्वा।का। 2 आदित्याभिध्यान ब्राह्मणम् 1 (एकोनुवाकः 1)   रक्षासि ह वा पुरोनुवाके तपोग्र मतिष्ठन्त, ता न्प्रजापति र्वरेणोपामन्त्रयत, तानि वर मवृणीतादित्यो नो योद्धा इति, तान्प्रजापति रब्रवी द्योधयध्व मिति, तस्मा दुत्तिष्ठन्त ह वा तानि रक्षास्यादित्यँ योधयन्ति, याव दस्तमन्वगा त्तानि ह वा एतानि रक्षासि गायत्रियाभिमन्त्रितेनाम्भसा शाम्यन्ति, तदु ह वा एते ब्रह्मवादिन पूर्वाभिमुखा स्सन्ध्याया ङ्गायत्रिया भिमन्त्रिता आप ऊर्ध्वँ वि क्षिपन्ति, ता एता आपो वज्री भूत्वा तानि रक्षासि मन्देहारुणे द्वीपे प्रक्षिपन्ति, यत्प्रदक्षिणं प्रक्रमन्ति तेन पाप्मान मवधून्व, -न्त्युद्यन्त मस्तँ यन्त मादित्य मभिध्याय न्कुर्व न्ब्राह्मणो विद्वा न्थ्सकलं भद्रमश्नुते सावादित्यो ब्रह्मे-ति ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति य एवँ वेद।। 2।। स्वा।का। 3 कूश्माण्ड मन्त्राः 1 (चत्वारोनुवाकाः 4)    यद्देवा देवहेळन न्देवास श्चकृमा वयम्। आदित्या स्तस्मान्मा मुञ्चतर्तस्यर्तेन मामित।।  देवा जीवनकाम्या यद्वाचानृत मूदिम। तस्मान्न इह मुञ्चत विश्वे देवा स्सजोषसः।।  ऋतेन द्यावापृथिवी ऋतेन त्व सरस्वति। कृतान्न पाह्येनसो यत्किञ्चानृत मूदिम।।  इन्द्राग्नी मित्रावरुणौ सोमो धाता बृहस्पतिः। ते नो मुञ्चन्त्वेनसो यदन्यकृत मारिम।।  सजातशसा दुत जामिशसा ज्ज्यायस श्शसा दुत वा कनीयसः। अनाधृष्ट न्देवकृतँ यदेन स्तस्मात्त्व मस्मा न्जातवेदो मुमुग्धि।। 3।।   यद्वाचा यन्मनसा बाहुभ्या मूरुभ्या मष्ठीवद्भ्या शिश्नै र्यदनृत ञ्चकृमा वयम्। अग्नि र्मा तस्मा देनस प्रमुञ्चतु चकृम यानि दुष्कृता।।  येन त्रितो अर्णवा न्निर्बभूव येन सूर्य न्तमसो निर्मुमोच। येनेन्द्रो विश्वा अजहा दराती स्तेनाह ञ्ज्योतिषा ज्योति रानशान आक्षि।।  यत्कुसीद मप्रतीत्तँ मयेह येन यमस्य निधिना चरामि। एत त्तदग्ने अनृणो भवामि जीवन्नेव प्रति तत्ते दधामि।।  यन्मयि माता  यदा पिपेष   यदन्तरिक्षँ  यदाशसा  ति क्रामामि   त्रिते देवा   दिवि जाता   यदाप  इमं मे वरुण   तत्त्वा यामि   त्वन्नो अग्ने   स त्वन्नो अग्ने  त्वमग्ने अयासि ।। 4।। (मुमुग्धि सप्त च। 3।)    यददीव्यन्नृण महं बभूवादिथ्सन्वास ञ्जगर जनेभ्यः। अग्नि र्मा तस्मा दिन्द्रश्च सँविदानौ प्रमुञ्चताम्।।  यद्धस्ताभ्या ञ्चकर किल्बिषाण्यक्षाणाँ वग्नु मुपजिघ्नमानः। उग्रंपश्या च राष्ट्रभृच्च तान्यफ्सरसा वनुदत्ता मृणानि।।  उग्रंपश्ये राष्ट्रभृ त्किल्बिषाणि यदक्षवृत्त मनुदत्त मेतत्। नेन्न ऋणा नृणव इथ्समानो यमस्य लोके अधिरज्जुराय।।  अव ते हेळ   उदुत्तम   मिमं मे वरुण   तत्त्वा यामि   त्वन्नो अग्ने   स त्वन्नो अग्ने  सङ्कुसुको विकुसुको निर्‌ऋथो यश्च निस्वनः। ते2(ए)स्मद्यक्ष्म मनागसो दूरा द्दूर मचीचतम्।।  निर्यक्ष्म मचीचते कृत्या न्निर्‌ऋतिञ्च। तेन यो2 (ओ)स्मथ्समृच्छातै तमस्मै प्रसुवामसि।।  दुश्शसानुशसाभ्या ङ्घणेनानुघणेन च। तेनान्यो2 (ओ) स्मथ्समृच्छातै तमस्मै प्र सुवामसि।।  सँवर्चसा पयसा सन्तनूभि रगन्महि मनसा सशिवेन। त्वष्टा नो अत्र विदधातु रायोनु मार्ष्टु तन्वो2 (ओ) यद्विलिष्टम्।। 4।। (कृत्या न्निर्‌ऋतिञ्च पञ्च च। 4।)    आयुष्टे विश्वतो दध दय मग्नि र्वरेण्यः। पुनस्ते प्राण आ याति परा यक्ष्म सुवामि ते।  आयुर्दा अग्ने हविषो जुषाणो घृतप्रतीको घृतयोनि रेधि। घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्र मभि रक्षता दिमम्।।  इम मग्न आयुषे वर्चसे कृधि तिग्म मोजो वरुण स शिशाधि। मातेवास्मा अदिते शर्म यच्छ विश्वे देवा जरदष्टि र्यथासत्।।  अग्न आयूषि पवस आ सुवोर्ज मिषञ्च नः। आरे बाधस्व दुच्छुनाम्।।  अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्च स्सुवीर्यम्। दध द्रयिं मयि पोषम्।। 6।।   अग्निर्‌ ऋषि पवमान पाञ्चजन्य पुरोहितः। तमीमहे महागयम्।।  अग्ने जाता न्प्रणुदा न स्सपत्ना न्प्रत्यजाता न्जातवेदो नुदस्व। अस्मे दीदिहि सुमना अहेळ ञ्छर्मन्ते स्याम त्रिवरूथ उद्भौ।।  सहसा जाता न्प्रणुदा न स्सपत्ना न्प्रत्यजाता न्जातवेदो नुदस्व। अधि नो ब्रूहि सुमनस्यमानो वय स्याम प्रणुदा न स्सपत्नान्।।  अग्ने यो नोभितो जनो वृको वारो जिघासति। तास्त्वँ वृत्रह न्जहि वस्वस्मभ्य मा भर।।  अग्ने यो नोभिदासति समानो यश्च निष्ट्यः। तँ वय समिधङ्कृत्वा तुभ्य मग्नेपि दध्मसि।। 7।।   यो न श्शपा दशपतो यश्च न श्शपत श्शपात्। उषाश्च तस्मै निम्रुक्च सर्वं पाप समूहताम्।।  यो न स्सपत्नो यो रणो मर्तोभिदासति देवाः। इध्मस्येव प्रक्षायतो मा तस्योच्छेषि किञ्चन।।  यो मा न्द्वेष्टि जातवेदो यञ्चाह न्द्वेष्मि यश्च माम्। सर्वा स्तानग्ने सन्दह याश्चाह न्द्वेष्मि ये च माम्।।  यो अस्मभ्य मरातीया द्यश्च नो द्वेषते जनः। निन्दाद्यो अस्मा न्दिफ्साच्च सर्वा स्तान्मष्मषा कुरु।।  सशितं मे ब्रह्म सशितँ वीर्य1(अं) बलम्। सशितङ्क्षत्रं मे जिष्णु यस्याह मस्मि पुरोहितः।।  उदेषां बाहू अतिर मुद्वर्चो अथो बलम्। क्षिणोमि ब्रह्मणामित्रा नुन्नयामि स्वाँ 2 अहम्।।  पुन र्मन पुन रायु र्म आगा त्पुन श्चक्षु पुनश्श्रोत्रं म आगा त्पुन प्राण पुनराकूतं म आगा त्पुनश्चित्तं पुन राधीतं म आगात्। वैश्वानरो मेदब्ध स्तनूपा अव बाधता न्दुरितानि विश्वा।। 8।। (पोष न्दध्मसि पुरोहित श्चत्वारि च। 5।)    वैश्वानराय प्रति वेदयामो यदीनृण सङ्गरो देवतासु। स एता न्पाशा न्प्रमुच न्प्र वेद स नो मुञ्चातु दुरिता दवद्यात्।।  वैश्वानर पवयान्न पवित्रै र्यथ्सङ्गर मभिधावा म्याशाम्। अनाजान न्मनसा याचमानो यदत्रैनो अव तथ्सुवामि।।  अमी ये सुभगे दिवि विचृतौ नाम तारके। प्रेहामृतस्य यच्छता मेत द्बद्धकमोचनम्।।  वि जिहीर्ष्व लोका न्कृधि बन्धा न्मुञ्चासि बद्धकम्। योने रिव प्रच्युतो गर्भ स्सर्वा न्पथो अनुष्व।।  स प्रजान न्प्रतिगृभ्णीत विद्वा न्प्रजापति प्रथमजा ऋतस्य। अस्माभि र्दत्त ञ्जरस परस्ता दच्छिन्न न्तन्तु मनु सञ्चरेम।। 9।।   तत न्तन्तु मन्वेके अनु सञ्चरन्ति येषा न्दत्तं पित्र्य मायनवत्। अबन्ध्वेके ददत प्रयच्छा द्दातु ञ्चेच्छक्नवा स स्वर्ग एषाम्।।  आ रभेथा मनु स रभेथा समानं पन्था मवथो घृतेन। यद्वां पूर्तं परिविष्टँ यदग्नौ तस्मै गोत्रायेह जायापती सरभेथाम्।।  यदन्तरिक्षं पृथिवी मुत द्याँ यन्मातरं पितरँ वा जिहिसिम। अग्नि र्मा तस्मा देनसो गार्‌हपत्य उन्नो नेष द्दुरिता यानि चकृम।।  भूमि र्मातादिति र्नो जनित्रं भ्रातान्तरिक्ष मभिशस्त एनः। द्यौर्न पिता पितृयाच्छं भवासि जामि मित्वा मा विविथ्सि लोकात्।।  यत्र सुहार्द स्सुकृतो मदन्ते विहाय रोग न्तन्वा(आ) स्वायाम्। अश्लोणाङ्गै रह्रुता स्स्वर्गे तत्र पश्येम पितरञ्च पुत्रम्।।  यदन्न मद्म्यनृतेन देवा दास्य न्नदास्य न्नुत वा करिष्यन्न्। यद्देवाना ञ्चक्षुष्यागो अस्ति यदेव किञ्च प्रतिजग्राह मग्निर्मा तस्मा दनृणङ्करोतु।।  यदन्न मद्मि बहुधा विरूपँ वासो हिरण्य मुत गा मजा मविम्।। यद्देवाना ञ्चक्षुष्यागो अस्ति य देव किञ्च प्रतिजग्राह मग्नि र्मा तस्मा दनृण ङ्करोतु।।  यन्मया मनसा वाचा कृत मेन कदाचन। सर्वस्मा त्तस्मा न्मेळितो मोग्धि त्व हि वेत्थ यथातथम्।। 10।। (चरेम पुत्र षट्च। 6।) स्वा।का। 3 कूश्माण्ड ब्राह्मणम् 1 (द्वावनुवाकौ 2)   वातरशना ह वा ऋषय श्श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूवु, स्तानृषयोर्थ माय स्ते निलाय मचर, स्तेनु प्रविशु कूश्माण्डानि तास्तेष्वन्वविन्द,ञ्छ्रद्धया च तपसा च तानृषयो ब्रुव,न्कथा निलायञ्चरथेति त ऋषी नब्रुव, न्नमो वोस्तु भगवन्तोस्मि न्धाम्नि केन व स्सपर्यामेति, तानृषयोब्रुव- न्पवित्र न्नो ब्रूत येनारेपस स्स्यामेति, त एतानि सूक्तान्यपश्यन् यद्देवा देवहेळनँ- यददीव्यन्नृणमहं बभूवा-युष्टे विश्वतो दध दित्येतै राज्य ञ्जुहुत- वैश्वानराय प्रतिवेदयाम इत्युपतिष्ठत- यदर्वाचीन मेनो भ्रूणहत्याया स्तस्मा न्मोक्ष्यध्व इति, त एतै रजुहवु स्तेरेपसोभव, न्कर्मादिष्वेतै र्जुहुया त्पूतो देवलोका न्थ्समश्नुते।। 11।। 7।   कूश्माण्डै र्जुहुया द्योपूत इव मन्येत यथा स्तेनो यथा भ्रूणहैव मेष भवति योयोनौ रेत स्सिञ्चति यदर्वाचीन मेनो भ्रूणहत्याया स्तस्मा न्मुच्यते, यावदेनो दीक्षा मुपैति दीक्षित एतै स्सतति जुहोति, सँवथ्सर न्दीक्षितो भवति सँवथ्सरा देवात्मानं पुनीते मास न्दीक्षितो भवति यो मास स्स सँवथ्सर स्सँवथ्सरा देवात्मानं पुनीते, चतुर्विशति रात्री र्दीक्षितो भवति चतुर्विशति रर्धमासा स्सँवथ्सर स्सँवथ्सरा देवात्मानं पुनीते, द्वादश रात्री र्दीक्षितो भवति द्वादश मासा स्सँवथ्सर स्सँवथ्सरा देवात्मानं पुनीते, षड्रात्री र्दीक्षितो भवति षड्वा ऋतव स्सँवथ्सर स्सँवथ्सरा देवात्मानं पुनीते, तिस्रो रात्री र्दीक्षितो भवति त्रिपदा गायत्री गायत्रिया एवात्मानं पुनीते, न मास मश्नीया न्न स्त्रिय मुपेया न्नोपर्यासीत जुगुफ्सेतानृता, त्पयो ब्राह्मणस्य व्रतँ- यवागू राजन्यस्या-मिक्षा वैश्यस्याथो सौम्येप्यध्वर एतद्व्रतं ब्रूया, द्यदि मन्येतोपदस्यामी त्योदन न्धाना स्सक्तू न्घृत मित्यनुव्रतये दात्मनोनुपदासाय।। 12।।  । 8। स्वा।का। 4 पञ्चयज्ञ ब्राह्मणम् 1 (द्वावनुवाकौ 2)   अजान् ह वै पृश्नी स्तपस्यमाना न्ब्रह्म स्वयम्भ्वभ्यानर्‌ष त्त ऋषयोभव, न्तदृषीणा मृषित्व, न्तान्देवता मुपातिष्ठन्त यज्ञकामा, स्त एतं ब्रह्मयज्ञ मपश्य न्तमाहर न्तेनायजन्त, यदृचोध्यगीषत ता पयआहुतयो देवाना मभवन्, यद्यजूषि घृताहुतयो यत्सामानि सोमाहुतयो यदथर्वाङ्गिरसो मध्वाहुतयो यद्ब्राह्मणानीतिहासा न्पुराणानि कल्पा न्गाथा नाराशसी र्मेदाहुतयो देवाना मभव न्ताभिः~ क्षुधं पाप्मान मपाघ्न, न्नपहतपाप्मानो देवा स्स्वर्गँ लोक माय, न्ब्रह्मण स्सायुज्य मृषयोगच्छन्न्।। 13।।  । 9 ।   पञ्च वा एते महायज्ञा स्सतति प्र तायन्ते सतति सन्तिष्ठन्ते देवयज्ञ पितृयज्ञो भूतयज्ञो मनुष्य यज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति, यदग्नौ जुहोत्यपि समिध न्तद्देवयज्ञ स्सन्तिष्ठते, यत्पितृभ्य स्स्वधा करोत्यप्यप स्तत्पितृयज्ञ स्सन्तिष्ठते, यद्भूतेभ्यो बलि हरति तद्भूतयज्ञ स्सन्तिष्ठते, यद्ब्राह्मणेभ्योन्न न्ददाति तन्मनुष्ययज्ञ स्सन्तिष्ठते, यथ्स्वाध्याय मधीयीतैका मप्यृचँ यजु स्साम वा तद्ब्रह्मयज्ञ स्सन्तिष्ठते, यदृचोधीते पयस कूल्या अस्य पितॄन्थ्स्वधा अभि वहन्ति, यद्यजूषि घृतस्य कूल्या यथ्सामानि सोम एभ्य पवते यदथर्वाङ्गिरसो मधो कूल्या, यद्ब्राह्मणानीतिहासा न्पुराणानि कल्पा न्गाथा नाराशसी र्मेदस कूल्या अस्य पितॄन्थ्स्वधा अभि वहन्ति, यदृचोधीते पयआहुतिभिरेव तद्देवा स्तर्पयति, यद्यजूषि घृताहुतिभि र्यथ्सामानि सोमाहुतिभि र्यदथर्वाङ्गिरसो मध्वाहुतिभि र्यद्ब्राह्मणानीतिहासा न्पुराणानि कल्पा न्गाथानाराशसी र्मेदाहुतिभिरेव तद्देवा स्तर्पयति, त एन न्तृप्ता आयुषा तेजसा वर्चसा श्रिया यशसा ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन च तर्पयन्ति।। 14।।  ।10 । स्वा।का। 5 स्वाध्याय ब्राह्मणम्, मन्त्राश्च 1 (सप्त अनुवाकाः 7)   ब्रह्मयज्ञेन यक्ष्यमाण प्राच्या न्दिशि ग्रामा दछदिर्दर्‌श उदीच्यां प्रागुदीच्याँ वोदित आदित्ये दक्षिणत उपवीयोपविश्य हस्ताववनिज्य त्रिराचामे, द्द्वि परिमृज्य सकृदुपस्पृश्य शिरश्चक्षुषी नासिके श्रोत्रे, हृदय मालभ्य यत्त्रिराचामति तेन ऋच प्रीणाति- यद्द्वि परिमृजति तेन यजूषि- यथ्सकृदुपस्पृशति तेन सामानि- यथ्सव्यं पाणिं पादौ प्रोक्षति यच्छिर श्चक्षुषी नासिके श्रोत्रे हृदय मालभते- तेनाथर्वाङ्गिरसो ब्राह्मणानीतिहासा न्पुराणानि कल्पान्गाथा नाराशसी प्रीणाति, दर्भाणां मह दुपस्तीर्योपस्थङ्कृत्वा प्राङासीन स्स्वाध्याय मधीयीता,पाँ वा एष ओषधीना रसो यद्दर्भा स्सरसमेव ब्रह्म कुरुते, दक्षिणोत्तरौ पाणी पादौ कृत्वा सपवित्रा वो मिति प्रति पद्यत, एतद्वै यजु स्त्रयीँ विद्यां प्रत्येषा वागेतत्परम मक्षरन्तदेत दृचाभ्युक्त  मृचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदु र्यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्त द्विदुस्त इमे समासत- इति त्रीनेव प्रायुङ्क्त  भू  र्भुव  स्स्व -रित्याहैतद्वै वाच स्सत्यँ यदेव वाच स्सत्यँ तत्र्पायुङ्क्ता थ सावित्री ङ्गायत्री न्त्रिरन्वाह, पच्छोर्धर्चशो नवान सविता श्रिय प्रसविता श्रिय मेवाप्नो त्यथो प्रज्ञातयैव प्रतिपदा छन्दासि प्रतिपद्यते।। 15।। 11 ।   ग्रामे मनसा स्वाध्याय मधीयीत दिवा नक्तँ वेति ह स्माह शौच आह्नेय उतारण्ये बल उत वाचोत तिष्ठन्नुत व्रजन्नुतासीन उत शयानोधीयीतैव स्वाध्याय न्तपस्वी पुण्यो भवति य एवँ विद्वा न्थ्स्वाध्याय मधीते  नमो ब्रह्मणे नमो अस्त्वग्नये नम पृथिव्यै नम ओषधीभ्यः। नमो वाचे नमो वाचस्पतये नमो विष्णवे बृहते करोमि।। 16।। 12 ।   मध्यन्दिने प्रबल मधीयीतासौ खलु वावैष आदित्यो यद्ब्राह्मण स्तस्मात्तर्‌हि तेक्ष्णिष्ठ न्तपति तदेषाभ्युक्ता।  चित्र न्देवाना मुदगा दनीक ञ्चक्षु र्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगत स्तस्थुषश्चे-ति, स वा एष यज्ञ स्सद्य प्रतायते सद्य स्सन्तिष्ठते तस्य प्राख्साय मवभृथो नमो ब्रह्मण इति परिधानीया न्त्रिरन्वाहाप उपस्पृश्य गृहानेति ततो यत्किञ्च ददाति सा दक्षिणा।। 17।। 13 ।   तस्य वा एतस्य यज्ञस्य मेघो हविर्धानँ विद्यु दग्नि र्वर्‌ष हवि स्स्तनयित्नु र्वषट्कारो यदवस्फूर्जति सोनुवषट्कारो वायु रात्मामावास्या स्विष्टकृ,द्य एवँ विद्वा न्मेघे वर्‌षति विद्योतमाने स्तनय त्यवस्फूर्जति पवमाने वाया वमावास्याया स्वाध्याय मधीते तप एव तत्तप्यते, तपो हि स्वाध्याय इत्युत्तम न्नाक रोहत्युत्तम स्समानानां भवति, यावन्त ह वा इमाँ वित्तस्य पूर्णा न्दद थ्स्वर्गँ लोक ञ्जयति तावन्तँ लोक ञ्जयति, भूयासञ्चाक्षय्य ञ्चाप पुन र्मृत्यु ञ्जयति ब्रह्मण स्सायुज्य ङ्गच्छति।। 18।। 14 ।   तस्य वा एतस्य यज्ञस्य द्वावनध्यायौ यदात्मा शुचि र्यद्देशस्समृद्धि र्दैवतानि, य एवँ विद्वा न्महारात्र उषस्युदिते व्रज स्तिष्ठ न्नासीन श्शयानोरण्ये ग्रामे वा यावत्तरस स्वाध्याय मधीते सर्वान्लोका न्जयति सर्वान्लोका ननृणोनु सञ्चरति तदेषाभ्युक्ता।  अनृणा अस्मि न्ननृणा परस्मि स्तृतीये लोके अनृणा स्स्याम। ये देवयाना उत पितृयाणा स्सर्वान्पथो अनृणा आक्षीयेमे- त्यग्निँ वै जातं पाप्मा जग्राह तन्देवा आहुतीभि पाप्मान मपाघ्न, न्नाहुतीनाँ यज्ञेन यज्ञस्य दक्षिणाभि र्दक्षिणानां ब्राह्मणेन ब्राह्मणस्य छन्दोभि श्चन्दसा स्वाध्यायेना,पहतपाप्मा स्वाध्यायो, देवपवित्रं वा एत,त्तँ योनूथ्सृजत्यभागो वाचि भवत्यभागो नाके तदेषाभ्युक्ता।  य स्तित्याज सखिविद सखायन्न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति। यदी शृणो त्यलक शृणोति न हि प्र वेद सुकृतस्य पन्था- मिति तस्मा थ्स्वाध्यायोध्येतव्यो, यँ यङ्क्रतु मधीते तेनतेनास्येष्टं भव त्यग्ने र्वायो रादित्यस्य सायुज्य ङ्गच्छति, तदेषाभ्युक्ता।  ये अर्वाङुत वा पुराणे वेदँ विद्वास मभितो वदन्त्यादित्य मेव ते परि वदन्ति सर्वे अग्नि न्द्वितीय न्तृतीयञ्च हस- मिति, यावती र्वै देवता स्तास्सर्वा वेदविदि ब्राह्मणे वसन्ति तस्माद्ब्राह्मणेभ्यो वेदविद्भ्यो दिवेदिवे नमस्कुर्या न्नाश्लीलङ्कीर्तये देता एव देवता प्रीणाति।। 19।। 15।   रिच्यत इव वा एष प्रेव रिच्यते यो याजयति प्रति वा गृह्णाति याजयित्वा प्रतिगृह्य वानश्न न्त्रिस्स्वाध्यायँ वेद मधीयीत त्रिरात्रँ वा सावित्री ङ्गायत्री मन्वातिरेचयति, वरो दक्षिणा वरेणैव वर स्पृणो त्यात्मा हि वरः।। 20।। 16।   दुहे ह वा एष छन्दासि यो याजयति स येन यज्ञक्रतुना याजये थ्सोरण्यं परेत्य शुचौ देशे स्वाध्याय मेवैन मधीय न्नासीत, तस्यानशन न्दीक्षा स्थान मुपसद आसन सुत्या वाग्जुहू र्मन उपभृ द्धृति र्ध्रुवा प्राणो हवि स्सामाध्वर्यु, स्स वा एष यज्ञ प्राणदक्षिणोनन्त दक्षिण स्समृद्धतरः।। 21।। 17। स्वा।का। 6 अवकीर्ण प्रायश्चित्त ब्राह्मणम्, मन्त्राश्च 1 (एकोनुवाकः 1)   कतिधावकीर्णी प्रविशति चतुर्धेत्याहु र्ब्रह्मवादिनो, मरुत प्राणै- रिन्द्रं बलेन- बृहस्पतिं ब्रह्मवर्चसे-नाग्नि मेवेतरेण सर्वेण, तस्यैतां प्रायश्चित्तिँ विदाञ्चकार सुदेव काश्यपो, यो ब्रह्मचार्यवकिरे- दमावास्याया रात्र्या मग्निं प्रणीयोपसमाधाय द्विराज्यस्योपघात ञ्जुहोति  कामावकीर्णो स्म्यवकीर्णोस्मि काम कामाय स्वाहा  कामाभिद्रुग्धो स्म्यभिद्रुग्धोस्मि काम कामाय स्वाहे- त्यमृतँ वा आज्य ममृत मेवात्म न्धत्ते, हुत्वा प्रयताञ्जलि कवातिर्यङ्ङग्नि मभिमन्त्रयेत-  सं मा सिञ्चन्तु मरुत स्समिन्द्र स्सं बृहस्पतिः। सं माय मग्नि स्सिञ्च त्वायुषा च बलेन चायुष्मन्त ङ्करोत मे-ति, प्रतिहास्मै मरुत प्राणा न्दधति प्रतीन्द्रो बलं प्रति बृहस्पति र्ब्रह्मवर्चसं प्रत्यग्नि रितरथ्सर्व, सर्वतनु र्भूत्वा सर्व मायुरेति, त्रिरभि मन्त्रयेत त्रिषत्या हि देवा, योपूत इव मन्येत स इत्थ ञ्जुहुया दित्थ मभि मन्त्रयेत, पुनीत एवात्मान मायु रेवात्म न्धत्ते, वरो दक्षिणा वरेणैव वर स्पृणोत्यात्मा हि वरः।। 22।। 18। स्वा।का। 7 ब्रह्मोपस्थान मन्त्राः, ब्राह्मणञ्च 1 (एकोनुवाकः 1)    भू प्र पद्ये भुव प्र पद्ये स्व प्र पद्ये भूर्भुवस्स्व प्र पद्ये ब्रह्म प्र पद्ये ब्रह्मकोशं प्र पद्येमृतं प्र पद्ये मृतकोशं प्र पद्ये, चतुर्जालं ब्रह्मकोशँ यं मृत्यु र्नाव पश्यति तं प्र पद्ये देवा न्प्र पद्ये देवपुरं प्र पद्ये, परीवृतो वरीवृतो ब्रह्मणा वर्मणाह न्तेजसा कश्यपस्य यस्मै नम, स्तच्छिरो धर्मो मूर्धानं ब्रह्मोत्तरा हनु र्यज्ञोधरा विष्णुर्‌ हृदय सँवथ्सर प्रजनन मश्विनौ पूर्वपादा वत्रि र्मध्यं मित्रावरुणा वपरपादा वग्नि पुच्छस्य प्रथमङ्काण्ड न्तत इन्द्र स्तत प्रजापति रभयञ्चतुर्थ, स वा एष दिव्य श्शाक्वर श्शिशुमार स्त ह य एवँ वेदापपुनर्मृत्यु ञ्जयति, जयति स्वर्गँ लोक, न्नाध्वनि प्रमीयते नाग्नौ प्रमीयते नाप्सु प्रमीयते नानपत्य प्रमीयते लघ्वान्नो भवति,  ध्रुव स्त्वमसि ध्रुवस्यक्षितमसि त्वं भूताना मधिपतिरसि त्वं भूताना श्रेष्ठोसि त्वां भूतान्युप पर्यावर्तन्ते नमस्ते नम स्सर्वन्ते नमो नम श्शिशुकुमाराय नमः।। 23।। ।19। स्वा।का। 8 दिगुपस्थान मन्त्राः 1 (एकोनुवाकः 1)    नम प्राच्यै दिशे याश्च देवता एतस्यां प्रति वस न्त्येताभ्यश्च नमो  नमो दक्षिणायै दिशे याश्च देवता एतस्यां प्रति वस न्त्येताभ्यश्च नमो  नम प्रतीच्यै दिशे याश्च देवता एतस्यां प्रति वस न्त्येताभ्यश्च नमो  नम उदीच्यै दिशे याश्च देवता एतस्यां प्रति वस न्त्येताभ्यश्च नमो  नम ऊर्ध्वायै दिशे याश्च देवता एतस्यां प्रति वस न्त्येताभ्यश्च नमो  नमोधरायै दिशे याश्च देवता एतस्यां प्रति वस न्त्येताभ्यश्च नमो  नमो वान्तरायै दिशे याश्च देवता एतस्यां प्रति वस न्त्येताभ्यश्च नमो  नमो गङ्गायमुनयो र्मध्ये ये वसन्ति ते मे प्रसन्नात्मान श्चिरञ्जीवितँ वर्धयन्ति नमो गङ्गायमुनयो र्मुनिभ्यश्च नमो नमो गङ्गायमुनयो र्मुनिभ्यश्च नमः।। 24।।  20। (सह रक्षासि यद्देवा स्सप्तदश यददीव्य न्पञ्चदशायुष्टे चतुस्त्रिश द्वैश्वानराय षड्विशति र्वातरशना ह कूश्माण्डै रजान् ह पञ्च ब्रह्मयज्ञेन ग्रामे मध्यन्दिने तस्य वै मेघ स्तस्य वै द्वौ रिच्यते दुहे ह कतिधावकीर्णी भू र्नम प्राच्यै विशतिः। 20। सह ब्रह्मयज्ञेन विशतिः।। 20।। सह मुनिभ्यश्च नमः।)  ओम्। नमो ब्रह्मणे नमो अस्त्वग्नये नम पृथिव्यै नम ओषधीभ्यः। नमो वाचे नमो वाचस्पतये नमो विष्णवे बृहते करोमि।। ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।। आरण्यके तृतीय प्रपाठकः प्रा।का।3 होतृ मन्त्राः (त्रयोदशानुवाकाः 13) आ। का।8 चातुर्होत्रिय चयन मन्त्राश्च  ओम्।। तच्छँयो रावृणीमहे। गातुँ यज्ञाय। गातुँ यज्ञपतये। दैवी स्वस्ति रस्तु नः। स्वस्ति र्मानुषेभ्यः। ऊर्ध्व ञ्जिगातु भेषजम्। शन्नो अस्तु द्विपदे। शञ्चतुष्पदे।  ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।।    चित्ति स्स्रुक्। चित्त माज्यम्। वाग्वेदिः। आधीतं बर्‌हिः। केतो अग्निः। विज्ञात मग्निः। वाक्पतिर्‌ होता। मन उपवक्ता। प्राणो हविः। सामाध्वर्युः। (दश होतारः)  वाचस्पते विधे नामन्न्। विधेम ते नाम। विधेस्त्व मस्माक न्नाम। वाचस्पति स्सोमं पिबतु। आस्मासु नृम्ण न्धाथ्स्वाहा।। 1।। (ग्रहभागः) (अध्वर्यु पञ्च च। 1।)    पृथिवी होता। द्यौ रध्वर्युः। रुद्रोग्नीत्। बृहस्पति रुपवक्ता। (चतुर्‌होतारः)  वाचस्पते वाचो वीर्येण। सम्भृततमेनायक्ष्यसे। यजमानाय वार्यम्। आ सुव स्करस्मै। वाचस्पति स्सोमं पिबति। जजन दिन्द्र मिन्द्रियाय स्वाहा।। 2।। (ग्रहभागः) (पृथिवी होता दश। 2।)    अग्निर्‌ होता। अश्विनाध्वर्यू। त्वष्टाग्नीत्। मित्र उपवक्ता। (पञ्च होतारः)  सोम स्सोमस्य पुरोगाः। शुक्र श्शुक्रस्य पुरोगाः। श्रातास्त इन्द्र सोमाः। वातापेर्‌ हवनश्श्रुत स्स्वाहा।। 3।। (ग्रहभागः) (अग्निर्‌होताष्टौ। 3।)    सूर्यन्ते चक्षुः। वातं प्राणः। द्यां पृष्ठम्। अन्तरिक्ष मात्मा। अङ्गै र्यज्ञम्। पृथिवी शरीरैः। (षड्ढोतारः - पशुबन्धे)  वाचस्पतेच्छिद्रया वाचा। अच्छिद्रया जुह्वा। दिवि देवावृध होत्रा मेरयस्व स्वाहा।। 4।। (ग्रहभागः) (सूर्यन्ते नव। 4।)    महाहविर्‌ होता। सत्यहवि रध्वर्युः। अच्युतपाजा अग्नीत्। अच्युतमना उपवक्ता। अनाधृष्यश्चाप्रतिधृष्यश्च यज्ञस्याभिगरौ। अयास्य उद्गाता। (सप्त होतारः)  वाचस्पते हृद्विधे नामन्न्। विधेम ते नाम। विधेस्त्व मस्माक न्नाम। वाचस्पति स्सोम मपात्। मा दैव्य स्तन्तु श्छेदि मा मनुष्यः। नमो दिवे। नम पृथिव्यै स्वाहा।। (ग्रहभागः) (अपा त्त्रीणि च। 5।)    वाग्घोता। दीक्षा पत्नी। वातोध्वर्युः। आपोभिगरः। मनो हविः। तपसि जुहोमि। (षड्ढोतारः- चातुर्होत्रिये)  भूर्भुव स्सुवः। ब्रह्म स्वयम्भु। ब्रह्मणे स्वयम्भुवे स्वाहा।। 6।। (ग्रहभागः) (वाग्घोता नव। 6।)    ब्राह्मण एकहोता। स यज्ञः। स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। यज्ञश्च मे भूयात्।।  अग्नि र्द्विहोता। स भर्ता। स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। भर्ता च मे भूयात्।।  पृथिवी त्रिहोता। स प्रतिष्ठा।। 7।।  स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। प्रतिष्ठा च मे भूयात्।।  अन्तरिक्ष ञ्चतुर्‌होता। स विष्ठाः। स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। विष्ठाश्च मे भूयात्।।  वायु पञ्चहोता। स प्राणः। स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। प्राणश्च मे भूयात्।। 8।।   चन्द्रमा ष्षड्ढोता। स ऋतू न्कल्पयाति। स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। ऋतवश्च मे कल्पन्ताम्।।  अन्न सप्तहोता। स प्राणस्य प्राणः। स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। प्राणस्य च मे प्राणो भूयात्।।  द्यौ रष्टहोता। सोनाधृष्यः।। 9।।  स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। अनाधृष्यश्च भूयासम्।।  आदित्यो नवहोता। स तेजस्वी। स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। तेजस्वी च भूयासम्।।  प्रजापति र्दशहोता। स इद सर्वम्। स मे ददातु प्रजां पशू न्पुष्टिँ यशः। सर्वञ्च मे भूयात्।। 10।। (प्रतिष्ठा प्राणश्च मे भूया दनाधृष्य स्सर्वञ्च मे भूयात्। 7। ब्राह्मणो यज्ञोग्नि र्भर्ता पृथिवी प्रतिष्ठान्तरिक्षँ विष्ठा वायु प्राण श्चन्द्रमा ऋतू नन्न स प्राणस्य प्राणो द्यौरनाधृष्य आदित्य स्स तेजस्वी प्रजापति स्स इद सर्व सर्वञ्च मे भूयात्।। )    अग्नि र्यजुर्भिः।  सविता स्तोमैः।  इन्द्र उक्थामदैः।  मित्रावरुणा वाशिषा।  अङ्गिरसो धिष्णियै रग्निभिः।  मरुत स्सदोहविर्धानाभ्याम्।  आप प्रोक्षणीभिः।  ओषधयो बर्‌हिषा।  अदिति र्वेद्या।  सोमो दीक्षया।। 11।।   त्वष्टेध्मेन।  विष्णु र्यज्ञेन।  वसव आज्येन।  आदित्या दक्षिणाभिः।  विश्वे देवा ऊर्जा।  पूषा स्वगाकारेण।  बृहस्पति पुरोधया।  प्रजापति रुद्गीथेन।  अन्तरिक्षं पवित्रेण।  वायु पात्रैः।  अह श्रद्धया।। 12।। (दीक्षया पात्रै रेकञ्च। 8।)    सेनेन्द्रस्य।  धेना बृहस्पतेः।  पथ्या पूष्णः।  वाग्वायोः।  दीक्षा सोमस्य।  पृथिव्यग्नेः।  वसूना ङ्गायत्री।  रुद्राणा न्त्रिष्टुक्।  आदित्याना ञ्जगती।  विष्णो रनुष्टुक्।। 13।।   वरुणस्य विराट्।  यज्ञस्य पङ्क्तिः।  प्रजापते रनुमतिः।  मित्रस्य श्रद्धा।  सवितु प्रसूतिः।  सूर्यस्य मरीचिः।  चन्द्रमसो रोहिणी।  ऋषीणा मरुन्धती।  पर्जन्यस्य विद्युत्।  चतस्रो दिशः।  चतस्रोवान्तरदिशाः।  अहश्च रात्रिश्च।  कृषिश्च वृष्टिश्च।  त्विषि श्चापचितिश्च।  आप श्चौषधयश्च।  ऊर्क्च सूनृता च देवानां पत्नयः।। 14।। (अनुष्टुग्दिश ष्षट्च। 9।)     देवस्य त्वा सवितु प्रसवे। अश्विनो र्बाहुभ्याम्। पूष्णो हस्ताभ्यां प्रति गृह्णामि। राजा त्वा वरुणो नयतु देवि दक्षिणे- ग्नये हिरण्यम्।-तेनामृतत्व मश्याम्। वयो दात्रे। मयो मह्य मस्तु प्रतिग्रहीत्रे। क इदङ्कस्मा अदात्। काम कामाय। कामो दाता।। 15।।  काम प्रतिग्रहीता। काम समुद्र माविश। कामेन त्वा प्रतिगृह्णामि। कामैतत्ते। एषा ते काम दक्षिणा। उत्तानस्त्वाङ्गीरस प्रतिगृह्णातु।।  -- सोमाय वासः--।  -- रुद्राय गाम्--।  -- वरुणायाश्वम्--।  -- प्रजापतये पुरुषम्।। 16।।   -- मनवे तल्पम्।  -- त्वष्ट्रेजाम्--।  -- पूष्णेविम्।-- निर्‌ऋत्या अश्वतरगर्दभौ--।-- हिमवतो हस्तिनम्।  -- गन्धर्वाफ्सराभ्य स्स्रगलङ्करणे--।  -- विश्वेभ्यो देवेभ्यो धान्यम्।  -- वाचेन्नम्।  -- ब्रह्मण ओदनम्--।  -- समुद्रायापः --।। 17।।   -- उत्तानायाङ्गीरसायानः --।  -- वैश्वानराय रथम् --।  वैश्वानर प्रत्नथा नाक मारुहत्। दिव पृष्ठं भन्दमान स्सुमन्मभिः। स पूर्वव ज्जनय ज्जन्तवे धनम्। समान मज्मा परियाति जागृविः।।  --राजा त्वा वरुणो नयतु देवि दक्षिणे- वैश्वानराय रथम्।- तेनामृतत्व मश्याम्। वयो दात्रे। मयो मह्य मस्तु प्रतिग्रहीत्रे।। 18।।  क इदङ्कस्मा अदात्। काम कामाय। कामो दाता। काम प्रतिग्रहीता। काम समुद्र माविश। कामेन त्वा प्रति गृह्णामि। कामैतत्ते। एषा ते काम दक्षिणा। उत्तानस्त्वाङ्गीरस प्रति गृह्णातु।। 19।। (दाता पुरुष माप प्रतिग्रहीत्रे नव च। 10।)    सुवर्णङ्घर्मं परिवेद वेनम्। इन्द्रस्यात्मान न्दशधा चरन्तम्। अन्त स्समुद्रे मनसा चरन्तम्। ब्रह्मान्वविन्द द्दशहोतार मर्णे।।  अन्त प्रविष्ट श्शास्ता जनानाम्। एक स्स न्बहुधा विचारः।।  शत शुक्राणि यत्रैकं भवन्ति। सर्वे वेदा यत्रैकं भवन्ति। सर्वे होतारो यत्रैकं भवन्ति। स मानसीन आत्मा जनानाम्।। 20।।   अन्त प्रविष्ट श्शास्ता जनाना सर्वात्मा। सर्वा प्रजा यत्रैकं भवन्ति। चतुर्‌होतारो यत्र सम्पदङ्गच्छन्ति देवैः। स मानसीन आत्मा जनानाम्। (दश होतृ हृदय मन्त्रः)  ब्रह्मेन्द्र मग्नि ञ्जगत प्रतिष्ठाम्। दिव आत्मान सवितारं बृहस्पतिम्। चतुर्‌होतारं प्रदिशोनुकॢप्तम्। वाचो वीर्य न्तपसान्वविन्दत्।।  अन्तप्रविष्ट ङ्कर्तार मेतम्। त्वष्टार रूपाणि विकुर्वन्तँ विपश्चिम्।। 21।।  अमृतस्य प्राणँ यज्ञ मेतम्। चतुर्‌होतृणा मात्मान ङ्कवयो निचिक्युः।।  अन्तप्रविष्टङ्कर्तार मेतम्। देवानां बन्धु निहितङ्गुहासु। अमृतेन कॢप्तँ यज्ञ मेतम्। चतुर्‌होतृणा मात्मान ङ्कवयो निचिक्युः। (चतुर्‌होतृ हृदय मन्त्रः)  शत न्नियुत परिवेद विश्वा विश्ववारः। विश्वमिदँ वृणाति। इन्द्रस्यात्मा निहित पञ्चहोता। अमृत न्देवाना मायु प्रजानाम्।। 22।।   इन्द्र राजान सवितार मेतम्। वायो रात्मानङ्कवयो निचिक्युः। रश्मि रश्मीनां मध्ये तपन्तम्। ऋतस्य पदे कवयो निपान्ति।।  य आण्डकोशे भुवनं बिभर्ति। अनिर्भिण्ण स्सन्नथ लोकान् विचष्टे। यस्याण्डकोश शुष्म माहु प्राण मुल्बम्। तेन कॢप्तोमृतेनाहमस्मि। (पञ्चहोतृ हृदय मन्त्रः)  सुवर्णङ्कोश रजसा परीवृतम्। देवानाँ वसुधानीँ विराजम्।। 23।।  अमृतस्य पूर्णा न्तामु कलाँ विचक्षते। पाद षड्ढोतु र्न किलाविविथ्से।।  येनर्तव पञ्चधोतकॢप्ताः। उतवा षड्धा मनसोत कॢप्ताः। त षड्ढोतार मृतुभि कल्पमानम्। ऋतस्य पदे कवयो नि पान्ति।।  अन्तप्रविष्ट ङ्कर्तार मेतम्। अन्त श्चन्द्रमसि मनसा चरन्तम्। सहैव सन्तन्न वि जानन्ति देवाः। इन्द्रस्यात्मान शतधा चरन्तम्।। 24।। (षड्ढोतृ हृदय मन्त्रः)  इन्द्रो राजा जगतो य ईशे। सप्तहोता सप्तधा विकॢप्तः।।  परेण तन्तुं परिषिच्यमानम्। अन्तरादित्ये मनसा चरन्तम्। देवाना हृदयं ब्रह्मान्वविन्दत्।।  ब्रह्मैतद्ब्रह्मण उज्जभार। अर्क श्चोतन्त सरिरस्य मध्ये।।  आ यस्मिन्थ्सप्त पेरवः। मेहन्ति बहुला श्रियम्। बह्वश्वा मिन्द्र गोमतीम्।। 25।।   अच्युतां बहुला श्रियम्। स हरि र्वसुवित्तमः। पेरु रिन्द्राय पिन्वते।।  बह्वश्वा मिन्द्र गोमतीम्। अच्युतां बहुला श्रियम्। मह्य मिन्द्रो नि यच्छतु।।  शत शता अस्य युक्ता हरीणाम्। अर्वाङायातु वसुभी रश्मि रिन्द्रः। प्रमहमाणो बहुला श्रियम्। रश्मि रिन्द्र स्सविता मे नियच्छतु।। 26।।   घृत न्तेजो मधुम दिन्द्रियम्। मय्यय मग्नि र्दधातु।।  हरि पतङ्ग पटरी सुपर्णः। दिविक्षयो नभसा य एति। स न इन्द्र कामवर न्ददातु।।  पञ्चार ञ्चक्रं परिवर्तते पृथु। हिरण्यज्योति स्सरिरस्य मध्ये। अजस्र ञ्ज्योति र्नभसा सर्पदेति। स न इन्द्र कामवर न्ददातु।।  सप्त युञ्जन्ति रथ मेकचक्रम्।। 27।।  एको अश्वो वहति सप्तनामा। त्रिनाभिचक्र मजर मनर्वम्। येनेमा विश्वा भुवनानि तस्थुः।।  भद्रं पश्यन्त उपसेदु रग्रे। तपो दीक्षा मृषय स्सुवर्विदः। ततः~ क्षत्रं बल मोजश्च जातम्। तदस्मै देवा अभि सन्नमन्तु।।  श्वेत रश्मिं बोभुज्यमानम्। अपा न्नेतारं भुवनस्य गोपाम्। इन्द्र न्निचिक्यु परमे व्योमन्न्।। 28।।   रोहिणी पिङ्गला एकरूपाः। क्षरन्ती पिङ्गला एकरूपाः। शत सहस्राणि प्रयुतानि नाव्यानाम्।।  अयँ य श्श्वेतो रश्मिः। परि सर्व मिद ञ्जगत्। प्रजां पशू न्धनानि। अस्माक न्ददातु।।  श्वेतो रश्मि परि सर्वं बभूव। सुवन्मह्यं पशून् विश्वरूपान्।।  पतङ्ग मक्त मसुरस्य मायया।। 29।।  हृदा पश्यन्ति मनसा मनीषिणः। समुद्रे अन्त कवयो विचक्षते। मरीचीनां पद मिच्छन्ति वेधसः।।  पतङ्गो वाचं मनसा बिभर्ति। ताङ्गन्धर्वोवद द्गर्भे अन्तः। तान्द्योतमाना स्वर्यं मनीषाम्। ऋतस्य पदे कवयो निपान्ति।।  ये ग्राम्या पशवो विश्वरूपाः। विरूपा स्सन्तो बहुधैकरूपाः। अग्निस्ता अग्रे प्र मुमोक्तु देवः।। 30।।  प्रजापति प्रजया सँविदानः।।  वीत स्तुकेस्तुके। युव मस्मासु नि यच्छतम्। प्रप्र यज्ञपति न्तिर।।  ये ग्राम्या पशवो विश्वरूपाः। विरूपा स्सन्तो बहुधैकरूपाः। तेषा सप्ताना मिह रन्तिरस्तु। रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय।।  य आरण्या पशवो विश्वरूपाः। विरूपा स्सन्तो बहुधैकरूपाः।। 31।।  वायु स्ता अग्रे प्र मुमोक्तु देवः। प्रजापति प्रजया सँविदानः।।  इडायै सृप्त ङ्घृतव च्चराचरम्। देवा अन्वविन्द न्गुहा हितम्।।  य आरण्या पशवो विश्वरूपाः। विरूपा स्सन्तो बहुधैकरूपाः। तेषा सप्ताना मिह रन्ति रस्तु। रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय।। 32।। (सप्त होतृ हृदय मन्त्रः) (आत्मा जनानाँ विकुर्वन्तँ विपश्चिं प्रजानाँ वसुधानीँ विराज ञ्चरन्त ङ्गोमतीं मे नियच्छ त्वेकचक्रँ व्योम न्मायया देव एकरूपा अष्टौ च। 11।)    सहस्रशीर्‌षा पुरुषः। सहस्राक्ष स्सहस्रपात्। स भूमिँ विश्वतो वृत्वा। अत्यतिष्ठ द्दशाङ्गुलम्।।  पुरुष एवेद सर्वम्। यद्भूतँ यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्येशानः। यदन्नेनातिरोहति।।  एतावानस्य महिमा। अतो ज्यायाश्च पूरुषः।। 33।।  पादोस्य विश्वा भूतानि। त्रिपादस्यामृत न्दिवि।।  त्रिपादूर्ध्व उदै त्पुरुषः। पादोस्येहाभवा त्पुनः। ततो विष्वङ्व्यक्रामत्। साशनानशने अभि।।  तस्मा द्विराडजायत। विराजो अधि पूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत। पश्चाद्भूमि मथो पुरः।। 34।।   यत्पुरुषेण हविषा। देवा यज्ञ मतन्वत। वसन्तो अस्यासीदाज्यम्। ग्रीष्म इध्म श्शरद्धविः।।  सप्तास्यास न्परिधयः। त्रिस्सप्त समिध कृताः। देवा यद्यज्ञ न्तन्वानाः। अबध्न न्पुरुषं पशुम्।।  तँ यज्ञं बर्‌हिषि प्रौक्षन्न्। पुरुष ञ्जात मग्रतः।। 35।।  तेन देवा अयजन्त। साध्या ऋषयश्च ये।।  तस्माद्यज्ञा थ्सर्वहुतः। सम्भृतं पृषदाज्यम्। पशू स्ताश्चक्रे वायव्यान्। आरण्या न्ग्राम्याश्च ये।।  तस्माद्यज्ञा थ्सर्वहुतः। ऋच स्सामानि जज्ञिरे। छन्दासि जज्ञिरे तस्मात्। यजु स्तस्मा दजायत।। 36।।   तस्मादश्वा अजायन्त। ये के चोभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात्। तस्मा ज्जाता अजावयः।।  यत् पुरुषँ व्यदधुः। कतिधा व्यकल्पयन्न्। मुख ङ्किमस्य कौ बाहू। कावूरू पादा वुच्येते।।  ब्राह्मणोस्य मुख मासीत्। बाहू राजन्य कृतः।। 37।।  ऊरू तदस्य यद्वैश्यः। पद्भ्या शूद्रो अजायत।।  चन्द्रमा मनसो जातः। चक्षो स्सूर्यो अजायत। मुखा दिन्द्र श्चाग्निश्च। प्राणा द्वायु रजायत।।  नाभ्या आसी दन्तरिक्षम्। शीर्ष्णो द्यौ स्समवर्तत। पद्भ्यां भूमि र्दिश श्श्रोत्रात्। तथा लोका अकल्पयन्न्।। 38।।   वेदाह मेतं पुरुषं महान्तम्। आदित्यवर्ण न्तमसस्तु पारे। सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरः। नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते।।  धाता पुरस्ता द्यमुदाजहार। शक्र प्र विद्वान् प्रदिश श्चतस्रः। तमेवँ विद्वा नमृत इह भवति। नान्य पन्था अयनाय विद्यते।।  यज्ञेन यज्ञ मयजन्त देवाः। तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमान स्सचन्ते। यत्र पूर्वे साध्या स्सन्ति देवाः।। 39।। (पूरुष पुरोग्रतोजायत कृतोकल्पय न्नासन्द्वे च। 12। ज्याया नधि पूरुषः। अन्यत्र पुरुषः।)    अद्भ्य स्सम्भूत पृथिव्यै रसाच्च। विश्वकर्मण स्समवर्तताधि। तस्य त्वष्टा विदध द्रूप मेति। तत्पुरुषस्य विश्व माजान मग्रे।।  वेदाह मेतं पुरुषं महान्तम्। आदित्यवर्ण न्तमस परस्तात्। तमेवँ विद्वा नमृत इह भवति। नान्य पन्था विद्यतेयनाय।।  प्रजापति श्चरति गर्भे अन्तः। अजायमानो बहुधा वि जायते।। 40।।  तस्य धीरा परिजानन्ति योनिम्। मरीचीनां पद मिच्छन्ति वेधसः।।  यो देवेभ्य आतपति। यो देवानां पुरोहितः। पूर्वो यो देवेभ्यो जातः। नमो रुचाय ब्राह्मये।।  रुचं ब्राह्म ञ्जनयन्तः। देवा अग्रे तदब्रुवन्न्। यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्। तस्य देवा असन् वशे।।  ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ। अहोरात्रे पार्श्वे। नक्षत्राणि रूपम्। अश्विनौ व्यात्तम्। इष्टं मनिषाण। अमुं मनिषाण। सर्वं मनिषाण।। 41।। (जायते वशे सप्त च। 13।) वै।का। 9 सूक्तमन्त्राः 2 (द्वावनुवाकौ 2)  भर्ता सन्भ्रियमाणो बिभर्ति। एको देवो बहुधा निविष्टः। यदा भार न्तन्द्रयते स भर्तुम्। निधाय भारं पुन रस्त मेति।।  तमेव मृत्यु ममृत न्तमाहुः। तं भर्तार न्तमु गोप्तार माहुः। स भृतो भ्रियमाणो बिभर्ति। य एनँ वेद सत्येन भर्तुम्।।  सद्यो जात मुत जहात्येषः। उतो जरन्त न्न जहात्येकम्।। 42।।  उतो बहूनेक मह र्जहार। अतन्द्रो देव स्सदमेव प्रार्थः।।  यस्तद्वेद यत आबभूव। सन्धाञ्च या सन्दधे ब्रह्मणैषः। रमते तस्मिन्नुत जीर्णे शयाने। नैन ञ्जहा त्यहस्सु पूर्व्येषु।।  त्वामापो अनु सर्वा श्चरन्ति जानतीः। वथ्सं पयसा पुनानाः। त्वमग्नि हव्यवाह समिन्थ्से। त्वं भर्ता मातरिश्वा प्रजानाम्।। 43।।   त्वँ यज्ञ स्त्वमु वेवासि सोमः। तव देवा हव मायन्ति सर्वे। त्वमेकोसि बहू ननु प्रविष्टः। नमस्ते अस्तु सुहवो म एधि।।  नमो वामस्तु शृणुत हवं मे। प्राणापाना वजिर सञ्चरन्तौ। ह्वयामि वां ब्रह्मणा तूर्त मेतम्। यो मा न्द्वेष्टि तञ्जहितँ युवाना।।  प्राणापानौ सँविदानौ जहितम्। अमुष्या सुनामा सङ्गसाथाम्।। 44।।  तं मे देवा ब्रह्मणा सँविदानौ। वधाय दत्त न्तमह हनामि।।  असज्जजान सत आबभूव। यँ य ञ्जजान स उ गोपो अस्य। यदा भार न्तन्द्रयते स भर्तुम्। परास्य भारं पुन रस्तमेति।।  तद्वै त्वं प्राणो अभवः। महा न्भोग प्रजापतेः। भुज करिष्यमाणः। यद्देवा न्प्राणयो नव।। 45।। (एकं प्रजाना ङ्गसाथा न्नव। 14।)    हरि हरन्त मनुयन्ति देवाः। विश्वस्येशानँ वृषभं मतीनाम्। ब्रह्म सरूप मनु मेद मागात्। अयनं मा विवधी र्वि क्रमस्व।।  मा छिदो मृत्यो मा वधीः। मा मे बलँ वि वृहो मा प्रमोषीः। प्रजां मा मे रीरिष आयु रुग्र। नृचक्षसन्त्वा हविषा विधेम।।  सद्य श्चकमानाय। प्रवेपानाय मृत्यवे।। 46।।  प्रास्मा आशा अशृण्वन्न्। कामेनाजनय न्पुनः।।  कामेन मे काम आगात्। हृदयाद्धृदयं मृत्योः। यदमीषा मद प्रियम्। तदैतूप मामभि।।  परं मृत्यो अनु परेहि पन्थाम्। यस्ते स्व इतरो देवयानात्। चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि। मा न प्रजा रीरिषो मोत वीरान्।।  प्र पूर्व्यं मनसा वन्दमानः। नाधमानो वृषभ ञ्चर्‌षणीनाम्। य प्रजाना मेकराण्मानुषीणाम्। मृत्युँ यजे प्रथमजामृतस्य।। 47।। (मृत्यवे वीरा श्चत्वारि च। 15।) सौ।का।2 ग्रह मन्त्राः (एकोवाकः 1)    तरणि र्विश्वदर्‌शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य। विश्व माभासि रोचनम्।।  उपयामगृहीतोसि सूर्याय त्वा भ्राजस्वत  एष ते योनि स्सूर्याय त्वा भ्राजस्वते।। 48।।  16। आ।का।5 अग्निचयन मन्त्राः 3 (त्रयोनुवाकाः)    आप्यायस्व मदिन्तम सोम विश्वाभि रूतिभिः। भवा न स्सप्रथस्तमः।। 49।।  17।    ईयुष्टेये पूर्वतरा मपश्य न्व्युच्छन्ती मुषसं मर्त्यासः। अस्माभि रूनु प्रतिचक्ष्याभू दो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यान्।। 50।।  18।    ज्योतिष्मतीन्त्वा सादयामि  ज्योतिष्कृतन्त्वा सादयामि  ज्योतिर्विदन्त्वा सादयामि  भास्वतीन्त्वा सादयामि  ज्वलन्तीन्त्वा सादयामि  मल्मलाभवन्तीन्त्वा सादयामि  दीप्यमानान्त्वा सादयामि  रोचमानान्त्वा सादया म्यजस्रान्त्वा सादयामि  बृहज्ज्योतिष न्त्वा सादयामि  बोधयन्तीन्त्वा सादयामि  जाग्रतीन्त्वा सादयामि।। 51।।  19। वै।का। 13 अश्वमेध मन्त्राः 14 (द्वावनुवाकौ 2)    प्रयासाय स्वाहा यासाय स्वाहा  वियासाय स्वाहा  सँयासाय स्वाहो द्यासाय स्वाहा वयासाय स्वाहा  शुचे स्वाहा  शोकाय स्वाहा  तप्यत्वै स्वाहा  तपते स्वाहा  ब्रह्महत्यायै स्वाहा  सर्वस्मै स्वाहा।। 52।। 20।    चित्त सन्तानेन  भवँ यक्ना  रुद्र न्तनिम्ना  पशुपति स्थूलहृदये नाग्नि हृदयेन  रुद्रँ लोहितेन  शर्वं मतस्नाभ्यां  महादेव मन्तपार्श्वे नौषिष्ठहन शिङ्गीनिकोश्याभ्याम्।। 53।। 21। (चित्ति पृथिव्यग्नि स्सूर्यन्ते चक्षु र्महाहविर्‌होता वाग्घोता ब्राह्मण एकहोताग्नि र्यजुर्भि स्सेनेन्द्रस्य देवस्य सुवर्णङ्घर्म सहस्रशीर्‌षाद्भ्यो भर्ता हरि न्तरणि राप्यायस्वेयुष्टे ये ज्योतिष्मतीं प्रयासाय चित्त मेकविशतिः। 21। चित्ति रग्नि र्यजुर्भि रन्त प्रविष्ट प्रजापति स्तस्य धीरा ज्योतिष्मती न्त्रिपञ्चाशत्। चित्ति श्शिङ्गीनिकोश्याभ्याम्।) ओम्।। तच्छँयो रावृणीमहे। गातुँ यज्ञाय। गातुँ यज्ञपतये। दैवी स्वस्ति रस्तु नः। स्वस्ति र्मानुषेभ्यः। ऊर्ध्व ञ्जिगातु भेषजम्। शन्नो अस्तु द्विपदे। शञ्चतुष्पदे।  ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।। आरण्यके चतुर्थ प्रपाठकः (प्रवर्ग्य मन्त्रः) सौ।का।7 शुक्रिय मन्त्राः 1 (द्विचत्वारिंशदनुवाकाः 42) (ओं नमोनुमदन्तु।। ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।। )    नमो वाचे या चोदिता या चानुदिता तस्यै वाचे नमो नमो वाचे नमो वाचस्पतये, नम ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यो, मा मा मृषयो मन्त्रकृतो मन्त्रपतय परा दु- र्माह मृषी न्मन्त्रकृतो मन्त्रपती न्परादाँ, वैश्वदेवीँ वाचमुद्यास शिवा मदस्ताञ्जुष्टा न्देवेभ्य,  श्शर्म मे द्यौश्शर्म पृथिवी शर्म विश्वमिद ञ्जगत्। शर्म चन्द्रश्च सूर्यश्च शर्म ब्रह्म प्रजापती।  भूतँ वदिष्ये भुवनँ वदिष्ये तेजो वदिष्ये यशो वदिष्ये तपो वदिष्ये ब्रह्म वदिष्ये सत्यँ वदिष्ये - तस्मा अह मिद मुपस्तरण मुपस्तृण उपस्तरणं मे प्रजायै पशूनां भूया दुपस्तरणमहं प्रजायै पशूनां भूयासं  प्राणापानौ मृत्योर्मा पातं प्राणापानौ मा मा हासिष्टं  मधु मनिष्ये मधु जनिष्ये मधु वक्ष्यामि मधु वदिष्यामि मधुमती न्देवेभ्यो वाच मुद्यास शुश्रूषेण्यां मनुष्येभ्य स्तं मा देवा अवन्तु शोभायै पितरोनुमदन्तु।।  ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।। 1।। 1।    युञ्जते मन उत युञ्जते धियः। विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः। वि होत्रा दधे वयुनावि देक इत्। मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः।।  देवस्य त्वा सवितु प्रसवे। अश्विनो र्बाहुभ्याम्। पूष्णो हस्ताभ्या माददे।।  अब्भ्रिरसि नारिरसि। अध्वरकृद्देवेभ्यः।।  उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते।। 2।।  देवयन्त स्त्वेमहे। उप प्र यन्तु मरुत स्सुदानवः। इन्द्र प्राशु र्भवा सचा।।  प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः। प्रदेव्येतु सूनृता। अच्छा वीर न्नर्यं पङ्क्तिराधसम्। देवा यज्ञ न्नयन्तु नः।।  देवी द्यावापृथिवी अनु मे मसाथाम्।  ऋद्ध्यास मद्य।  मुखस्य शिरः।। 3।।   मखाय त्वा।  मखस्य त्वा शीर्ष्णे।  इयत्यग्र आसीः।  ऋद्ध्यास मद्य।  मखस्य शिरः।  मखाय त्वा।  मखस्य त्वा शीर्ष्णे।  देवी र्वम्री रस्य भूतस्य प्रथमजा ऋतावरीः।  ऋद्ध्यास मद्य।  मखस्य शिरः।। 4।।   मखाय त्वा।  मखस्य त्वा शीर्ष्णे।  इन्द्रस्यौजोसि।  ऋद्ध्यास मद्य।  मखस्य शिरः।  मखाय त्वा।  मखस्य त्वा शीर्ष्णे।  अग्निजा असि प्रजापते रेतः।  ऋद्ध्यास मद्य।  मखस्य शिरः।। 5।।   मखाय त्वा।  मखस्य त्वा शीर्ष्णे।  आयु र्धेहि प्राण न्धेहि। अपान न्धेहि व्यान न्धेहि। चक्षु र्धेहि श्रोत्र न्धेहि। मनो धेहि वाच न्धेहि। आत्मान न्धेहि प्रतिष्ठा न्धेहि। मा न्धेहि मयि धेहि।।  मधु त्वा मधुला करोतु।  मखस्य शिरोसि।। 6।।   यज्ञस्य पदे स्थः।  गायत्रेण त्वा छन्दसा करोमि।  त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा करोमि।  जागतेन त्वा छन्दसा करोमि।  मखस्य रास्नासि।  अदितिस्ते बिल ङ्गृह्णातु। पाङ्क्तेन छन्दसा।  सूर्यस्य हरसा श्राय।  मखोसि।। 7।। (पते शिर ऋतावरीर्‌ ऋद्ध्यास मद्य मखस्य शिर शिर श्शिरोसि नव च। 2। इयति देवी रिन्द्रस्यौजो स्यग्निजा अस्यायुर्धेहि प्राणं पञ्च।)    वृष्णो अश्वस्य निष्पदसि। वरुणस्त्वा धृतव्रत आधूपयतु। मित्रावरुणयो र्ध्रुवेण धर्मणा।।  अर्चिषे त्वा।  शोचिषे त्वा।  ज्योतिषे त्वा।  तपसे त्वा।  अभीमं महिना दिवम्। मित्रो बभूव सप्रथाः। उत श्रवसा पृथिवीम्।। 8।।   मित्रस्य चर्‌षणीधृतः। श्रवो देवस्य सानसिम्। द्युम्न ञ्चित्रश्रवस्तमम्।  सिद्ध्यै त्वा।  देवस्त्वा सवितोद्वपतु। सुपाणि स्स्वङ्गुरिः। सुबाहु रुत शक्त्या।।  अपद्यमान पृथिव्याम्। आशा दिश आ पृण। उत्तिष्ठ बृह न्भव।। 9।।  ऊर्ध्व स्तिष्ठ ध्रुवस्त्वम्।।  सूर्यस्य त्वा चक्षुषान्वीक्षे। ऋजवे त्वा। साधवे त्वा। सुक्षित्यै त्वा भूत्यै त्वा।  इद मह ममु मामुष्यायणँ विशा पशुभि र्ब्रह्मवर्चसेन पर्यूहामि।  गायत्रेण त्वा छन्दसाच्छृणद्मि।  त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसाच्छृणद्मि।  जागतेन त्वा छन्दसाच्छृणद्मि।  छृणत्तु त्वा वाक्।  छृणत्तु त्वोर्क्।  छृणत्तु त्वा हविः।  छृन्धि वाचम्।  छृन्ध्यूर्जम्।  छृन्धि हविः।  देव पुरश्चर सघ्यासन्त्वा।। 10।। (पृथिवीं भव वाख्षट्च। 3।)    ब्रह्म न्प्रवर्ग्येण प्र चरिष्यामः। होत र्घर्म मभिष्टुहि। अग्नीद्रौहिणौ पुरोडाशा वधिश्रय। प्रतिपस्थात र्विहर। प्रस्तोत स्सामानि गाय।।  यजुर्युक्त सामभि राक्तखन्त्वा। विश्वैर्देवै रनुमतं मरुद्भिः। दक्षिणाभि प्रततं पारयिष्णुम्। स्तुभो वहन्तु सुमनस्यमानम्। स नो रुच न्धेह्यहृणीयमानः। भूर्भुवस्सुवः। ओमिन्द्रवन्त प्र चरत।। 11।। (अहृणीयमानो द्वे च। 4।)    ब्रह्म न्प्रचरिष्यामः। होत र्घर्म मभिष्टुहि।  यमाय त्वा मखाय त्वा। सूर्यस्य हरसे त्वा।  प्राणाय स्वाहा  व्यानाय स्वाहा पानाय स्वाहा।  चक्षुषे स्वाहा  श्रोत्राय स्वाहा।  मनसे स्वाहा  वाचे सरस्वत्यै स्वाहा।  दक्षाय स्वाहा  क्रतवे स्वाहा।  ओजसे स्वाहा  बलाय स्वाहा।  देवस्त्वा सविता मध्वानक्तु।। 12।।   पृथिवी न्तपस स्त्रायस्व।  अर्चिरसि शोचिरसि ज्योतिरसि तपोसि।  स सीदस्व महा असि। शोचस्व देववीतमः। वि धूम मग्ने अरुषं मियेध्य। सृज प्रशस्त दर्‌शतम्।।  अञ्जन्ति यं प्रथयन्तो न विप्राः। वपावन्त न्नाग्निना तपन्तः। पितुर्न पुत्र उपसि प्रेष्ठः। आ घर्मो अग्नि मृतय न्नसादीत्।। 13।।   अनाधृष्या पुरस्तात्। अग्ने राधिपत्ये। आयुर्मे दाः।  पुत्रवती दक्षिणतः। इन्द्रस्याधिपत्ये। प्रजां मे दाः।  सुषदा पश्चात्। देवस्य सवितु राधिपत्ये। प्राणं मे दाः।  आश्रुति रुत्तरतः।। 14।।  मित्रावरुणयो राधिपत्ये। श्रोत्रं मे दाः।  विधृति रुपरिष्टात्। बृहस्पते राधिपत्ये। ब्रह्म मे दाः क्षत्त्रं मे दाः। तेजो मे धा वर्चो मे धाः। यशो मे धा स्तपो मे धाः। मनो मे धाः।  मनो रश्वासि भूरिपुत्त्रा। विश्वाभ्यो मा नाष्ट्राभ्य पाहि।। 15।।  सूपसदा मे भूया मा मा हिसीः।।  तपोष्वग्ने अन्तरा अमित्रान्। तपाशस मररुष परस्य। तपा वसो चिकितानो अचित्तान्। वि ते तिष्ठन्ता मजरा अयासः।।  चितस्स्थ परिचितः। स्वाहा मरुद्भि परि श्रयस्व।  मा असि।  प्रमा असि।  प्रतिमा असि।। 16।।   सं मा असि।  विमा असि।  उन्मा असि।  अन्तरिक्षस्या न्तर्धि रसि।  दिवन्तपस स्त्रायस्व।  आभि र्गीभि र्यदतो न ऊनम्। आ प्यायय हरिवो वर्धमानः। यदा स्तोतृभ्यो महि गोत्रा रुजासि। भूयिष्ठभाजो अध ते स्याम।।  शुक्रन्ते अन्य द्यजतन्ते अन्यत्।। 17।।  विषुरूपे अहनी द्यौ रिवासि। विश्वा हि माया अवसि स्वधावः। भद्रा ते पूषन्निह रातिरस्तु।।  अर्‌ह न्बिभर्‌षि सायकानि धन्व। अर्‌ह न्निष्कँ यजतँ विश्वरूपम्। अर्‌ह न्निद न्दयसे विश्व मब्भुवम्। न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति।।  गायत्रमसि।  त्रैष्टुभमसि।  जागतमसि।  मधु मधु मधु।। 18।। (अनक्त्वसादी दुत्तरत पाहि प्रतिमा असि यजतन्ते अन्य ज्जागत मस्येकञ्च। 5।)    दश प्राची र्दश भासि दक्षिणा। दश प्रतीची र्दश भास्युदीचीः। दशोर्ध्वा भासि सुमनस्यमानः। स नो रुच न्धेह्यहृणीयमानः।।  अग्निष्ट्वा वसुभि पुरस्ता द्रोचयतु गायत्रेण छन्दसा। स मा रुचितो रोचय।।  इन्द्रस्त्वा रुद्रै र्दक्षिणतो रोचयतु त्रैष्टुभेन छन्दसा। स मा रुचितो रोचय।।  वरुणस्त्वादित्यै पश्चाद्रोचयतु जागतेन छन्दसा। स मा रुचितो रोचय।। 19।।   द्युतानस्त्वा मारुतो मरुद्भि रुत्तरतो रोचय त्वानुष्टुभेन छन्दसा। स मा रुचितो रोचय।।  बृहस्पतिस्त्वा विश्वै र्देवै रुपरिष्टाद्रोचयतु पाङ्क्तेन छन्दसा। स मा रुचितो रोचय।।  रोचित स्त्वन्देवघर्म देवेष्वसि। रोचिषीयाहं मनुष्येषु।  सम्राड्घर्म रुचित स्त्व न्देवेष्वायुष्मा स्तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यसि।  रुचितोहं मनुष्येष्वायुष्मा स्तेजस्वी ब्रह्मवर्चसी भूयासम्।  रुगसि। रुचं मयि धेहि।। 20।।  मयि रुक्।  दश पुरस्ता द्रोचसे। दश दक्षिणा। दश प्रत्यङ्ङ्। दशोदङ्ङ्। दशोर्ध्वो भासि सुमनस्यमानः। स न स्सम्राडिष मूर्ज न्धेहि। वाजी वाजिने पवस्व। रोचितो घर्मो रुचीय।। 21।। (रोचय धेहि नव च। 6।)    अपश्यङ्गोपा मनिपद्यमानम्। आ च परा च पथिभि श्चरन्तम्। स सद्ध्रीची स्स विषूची र्वसानः। आवरीवर्ति भुवनेष्वन्तः।।  अत्र प्रावीः। मधु माध्वीभ्यां मधु माधूचीभ्याम्। अनु वा न्देववीतये।।  समग्नि रग्निना गत। सन्देवेन सवित्रा। ससूर्येण रोचते।। 22।।   स्वाहा समग्नि स्तपसा गत। सन्देवेन सवित्रा। ससूर्येणारोचिष्ट।  धर्ता दिवो वि भासि रजसः। पृथिव्या धर्ता। उरो रन्तरिक्षस्य धर्ता। धर्ता देवो देवानाम्। अमर्त्य स्तपोजाः।।  हृदे त्वा मनसे त्वा। दिवे त्वा सूर्याय त्वा।। 23।।  ऊर्ध्व मिम मध्वर ङ्कृधि। दिवि देवेषु होत्रा यच्छ।।  विश्वासां भुवां पते। विश्वस्य भुवनस्पते। विश्वस्य मनसस्पते। विश्वस्य वचसस्पते। विश्वस्य तपसस्पते। विश्वस्य ब्रह्मणस्पते।।  देवश्रू स्त्वन्देवघर्म देवा न्पाहि।  तपोजाँ वाच मस्मे नियच्छ देवायुवम्।। 24।।   गर्भो देवानाम्।  पिता मतीनाम्।  पति प्रजानाम्।  मति कवीनाम्।  सन्देवो देवेन सवित्रायतिष्ट। ससूर्येणारुक्त।  आयुर्दा स्त्वमस्मभ्य ङ्घर्म वर्चोदा असि।  पिता नोसि पिता नो बोध।  आयुर्धा स्तनूधा पयोधाः। वर्चोदा वरिवोदा द्रविणोदाः।। 25।।  अन्तरिक्षप्र उरो र्वरीयान्। अशीमहि त्वा मा मा हिसीः।  त्वमग्ने गृहपति र्विशामसि। विश्वासां मानुषीणाम्। शतं पूर्भि र्यविष्ठ पाह्यहसः। समेद्धार शत हिमाः। तन्द्राविण हार्दिवानम्। इहैव रातयस्सन्तु।।  त्वष्टीमती ते सपेय। सुरेता रेतो दधाना। वीरँ विदेय तव सन्दृशि। माह रायस्पोषेण वि योषम्।। 26।। (रोचते सूर्याय त्वा देवायुव न्द्रविणोदा दधाना द्वे च। 7।)    देवस्य त्वा सवितु प्रसवे। अश्विनो र्बाहुभ्याम्। पूष्णो हस्ताभ्या माददे।  अदित्यै रास्नासि।  इड एहि।  अदित एहि।  सरस्वत्येहि।  असावेहि।  असावेहि।  असावेहि।। 27।।   अदित्या उष्णीष मसि।  वायुरस्यैडः।  पूषा त्वोपाव सृजतु। अश्विभ्यां प्र दापय।  यस्ते स्तन श्शशयो यो मयोभूः। येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि। यो रत्नधा वसुवि द्यस्सुदत्रः। सरस्वति तमिह धातवेकः।।  उस्र घर्म शिष। उस्र घर्मं पाहि।। 28।।  घर्माय शिष।  बृहस्पति स्त्वोप सीदतु।  दानवस्थ्स पेरवः। विष्वग्वृतो लोहितेन।  अश्विभ्यां पिन्वस्व। सरस्वत्यै पिन्वस्व। पूष्णे पिन्वस्व। बृहस्पतये पिन्वस्व। इन्द्राय पिन्वस्व। इन्द्राय पिन्वस्व।। 29।।   गायत्रोसि।  त्रैष्टुभोसि।  जागतमसि।  सहोर्जो भागेनोप मेहि।  इन्द्राश्विना मधुन स्सारघस्य। घर्मं पात वसवो यजता वट्।  स्वाहा त्वा सूर्यस्य रश्मये वृष्टिवनये जुहोमि।  मधु हविरसि।  सूर्यस्य तपस्तप।  द्यावापृथिवीभ्यान्त्वा परि गृह्णामि।। 30।।   अन्तरिक्षेण त्वोप यच्छामि।  देवानान्त्वा पितृणा मनुमतो भर्तु शकेयम्।  तेजोसि। तेजोनु प्रेहि। दिविस्पृङ्मा मा हिसीः। अन्तरिक्षस्पृङ्मा मा हिसीः। पृथिविस्पृङ्मा मा हिसीः। सुवरसि सुवर्मे यच्छ। दिवँ यच्छ दिवो मा पाहि।। 31।। (एहि पाहि पिन्वस्व गृह्णामि नव च। 8।)    समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा। सलिलाय त्वा वाताय स्वाहा। अनाधृष्याय त्वा वाताय स्वाहा। अप्रतिधृष्याय त्वा वाताय स्वाहा। अवस्यवे त्वा वाताय स्वाहा। दुवस्वते त्वा वाताय स्वाहा। शिमिद्वते त्वा वाताय स्वाहा। अग्नये त्वा वसुमते स्वाहा। सोमाय त्वा रुद्रवते स्वाहा। वरुणाय त्वादित्यवते स्वाहा।। 32।।  बृहस्पतये त्वा विश्वदेव्यावते स्वाहा। सवित्रे त्वर्भुमते विभुमते प्रभुमते वाजवते स्वाहा। यमाय त्वाङ्गिरस्वते पितृमते स्वाहा। विश्वा आशा दक्षिणसत्। विश्वान्देवा नयाडिह। स्वाहाकृतस्य घर्मस्य। मधो पिबत मश्विना। स्वाहाग्नये यज्ञियाय। शँ यजुर्भिः। अश्विना घर्मं पात हार्दिवानम्।। 33।।  अहर्दिवाभि रूतिभिः। अनु वा न्द्यावापृथिवी मसाताम्। स्वाहेन्द्राय। स्वाहेन्द्रा वट्। घर्ममपात मश्विना हार्दिवानम्। अहर्दिवाभि रूतिभिः। अनु वा न्द्यावापृथिवी अमसाताम्। तं प्राव्यँ यथा वट्। नमो दिवे। नम पृथिव्यै।। 34।।  दिविधा इमँ यज्ञम्। यज्ञमिम न्दिविधाः। दिव ङ्गच्छ। अन्तरिक्ष ङ्गच्छ। पृथिवी ङ्गच्छ। पञ्च प्रदिशो गच्छ। देवा न्घर्मपा न्गच्छ। पितॄ न्घर्मपा न्गच्छ।। 35।। (आदित्यवते स्वाहा हार्दिवानं पृथिव्या अष्टौ च। 9।)    इषे पीपिहि। ऊर्जे पीपिहि। ब्रह्मणे पीपिहि। क्षत्राय पीपिहि। अद्भ्य पीपिहि। ओषधीभ्य पीपिहि। वनस्पतिभ्य पीपिहि। द्यावापृथिवीभ्यां पीपिहि। सुभूताय पीपिहि। ब्रह्मवर्चसाय पीपिहि।। 36।।  यजमानाय पीपिहि। मह्य ञ्ज्यैष्ठ्याय पीपिहि। त्विष्यै त्वा। द्युम्नाय त्वा। इन्द्रियाय त्वा भूत्यै त्वा। धर्मासि सुधर्मा मे न्यस्मे। ब्रह्माणि धारय। क्षत्राणि धारय। विश न्धारय। नेत्त्वा वात स्स्कन्दयात्।। 37।।  अमुष्य त्वा प्राणे सादयामि। अमुना सह निरर्थ ङ्गच्छ। योस्मा न्द्वेष्टि। यञ्च वय न्द्विष्मः। पूष्णे शरसे स्वाहा। ग्रावभ्यस्स्वाहा। प्रतिरेभ्य स्स्वाहा। द्यावापृथिवीभ्या स्वाहा। पितृभ्यो घर्मपेभ्य स्स्वाहा। रुद्राय रुद्रहोत्रे स्वाहा।। 38।।  अह र्ज्योति केतुना जुषताम्। सुज्योति र्ज्योतिषा स्वाहा। रात्रि र्ज्योति केतुना जुषताम्। सुज्योति र्ज्योतिषा स्वाहा। अपीपरो माह्नो रात्रियै मा पाहि। एषा ते अग्ने समित्। तया समिध्यस्व। आयुर्मे दाः। वर्चसा माञ्जीः।। अपीपरो मा रात्रिया अह्नो मा पाहि।। 39।।  एषा ते अग्ने समित्। तया समिध्यस्व। आयुर्मे दाः। वर्चसा माञ्जीः। अग्नि र्ज्योति र्ज्योति रग्निस्स्वाहा। सूर्यो ज्योति र्ज्योति स्सूर्य स्वाहा। भूस्स्वाहा। हुत हविः। मधु हविः। इन्द्रतमेग्नौ। पिता नोसि मा मा हिसीः। अश्याम ते देव घर्म। मधुमतो वाजवत पितुमतः। अङ्गिरस्वत स्स्वधाविनः। अशीमहि त्वा मा मा हिसीः। स्वाहा त्वा सूर्यस्य रश्मिभ्यः। स्वाहा त्वा नक्षत्रेभ्यः।। 40।। (ब्रह्मवर्चसाय पीपिहि स्कन्दया द्रुद्राय रुद्रहोत्रे स्वाहाह्नो मा पाह्यग्नौ सप्त च। 10।)    घर्म या ते दिवि शुक्। या गायत्रे छन्दसि। या ब्राह्मणे। या हविर्धाने। तान्त एतेनाव यजे स्वाहा।।  घर्म या तेन्तरिक्षे शुक्। या त्त्रैष्टुभे छन्दसि। या राजन्ये। याग्नीद्ध्रे। तान्त एतेनाव यजे स्वाहा।। 41।।   घर्म या ते पृथिव्या शुक्। या जागते छन्दसि। या वैश्ये। या सदसि। तान्त एतेनाव यजे स्वाहा।  अनु नोद्यानुमतिः ।  अन्विदनुमते त्वम्  ।  दिवस्त्वा परस्पायाः। अन्तरिक्षस्य तनुव पाहि। पृथिव्यास्त्वा धर्मणा।। 42।।  वय मनु क्रामाम सुविताय नव्यसे।।  ब्रह्मणस्त्वा परस्पायाः। क्षत्त्रस्य तनुव पाहि। विशस्त्वा धर्मणा। वय मनु क्रामाम सुविताय नव्यसे।।  प्राणस्य त्वा परस्पायै। चक्षुष स्तनुव पाहि। श्रोत्रस्य त्वा धर्मणा। वय मनु क्रामाम सुविताय नव्यसे।।  वल्गुरसि शँयुधायाः।। 43।।  शिशु र्जनधायाः।  शञ्च वक्षि परि च वक्षि।  चतुस्स्रक्ति र्नाभिर्‌ ऋतस्य।  सदो विश्वायु श्शर्म सप्रथाः।  अप द्वेषो अप ह्वरः। अन्यद्व्रतस्य सश्चिम।।  घर्मैतत्तेन्न मेतत्पुरीषम्। तेन वर्धस्व चाच प्यायस्व। वर्धिषीमहि च वयम्। आ च प्यासिषीमहि।। 44।।   रन्ति र्नामासि दिव्यो गन्धर्वः। तस्य ते पद्वद्धविर्धानम्। अग्नि रध्यक्षाः। रुद्रोधिपतिः।  समह मायुषा। सं प्राणेन। सँ वर्चसा। सं पयसा। सङ्गौपत्येन। स रायस्पोषेण।। 45।।   व्यसौ। योस्मा न्द्वेष्टि। यञ्च वय न्द्विष्मः।।  अचिक्रद द्वृषा हरिः। महा न्मित्रो न दर्‌शतः। स सूर्येण रोचते।।  चिदसि समुद्रयोनिः। इन्दु र्दक्ष श्श्येन ऋतावा। हिरण्यपक्ष श्शकुनो भुरण्युः। महान्थ्सधस्थे ध्रुव आ निषत्तः।। 46।।  नमस्ते अस्तु मा मा हिसीः।।  विश्वावसु सोमगन्धर्वम्। आपो ददृशुषीः। तदृतेनाव्यायन्। तदन्ववैत्। इन्द्रो रारहाण आसाम्। परि सूर्यस्य परिधी रपश्यत्।  विश्वावसु रभि तन्नो गृणातु। दिव्यो गन्धर्वो रजसो विमानः। यद्वा घा सत्य मुत यन्न विद्म।। 47।।  धियो हिन्वानो धिय इन्नो अव्यात्।।  सस्नि मविन्द च्चरणे नदीनाम्। अपावृणो द्दुरो अश्मव्रजानाम्। प्रासा ङ्गन्धर्वो अमृतानि वोचत्। इन्द्रो दक्षं परिजाना दहीनम्।।  एतत्त्व न्देव घर्म देवो देवानुपागाः।  इद महं मनुष्यो मनुष्यान्। सोमपीथानु मेहि। सह प्रजया सह रायस्पोषेण।।  सुमित्रा न आप ओषधय स्सन्तु।। 48।।  दुर्मित्रा स्तस्मै भूयासुः। योस्मा न्द्वेष्टि। यञ्च वय न्द्विष्मः।  उद्वयन्तमसस्परि ।  उदुत्य   ञ्चित्रम् ।  इम मूषु त्य मस्मभ्य सनिम्। गायत्र न्नवीयासम्। अग्ने देवेषु प्रवोचः।। 49।। (याग्नीद्ध्रे तान्त एतेनाव यजे स्वाहा धर्मणा शँयुधाया प्यासिषीमहि पोषेण निषत्तो विद्म सन्त्वष्टौ च। 11।)    महीनां पयोसि विहित न्देवत्रा।  ज्योतिर्भा असि वनस्पतीना मोषधीना रसः।  वाजिनन्त्वा वाजिनोव नयामः। ऊर्ध्वं मन स्सुवर्गम्।। 50।। 12।    अस्का न्द्यौ पृथिवीम्। अस्कानृषभो युवा गाः। स्कन्नेमा विश्वा भुवना। स्कन्नो यज्ञ प्रजनयतु। अस्का नजनि प्राजनि। आस्कन्ना ज्जायते वृषा। स्कन्ना त्प्रजनिषीमहि।। 51।। 13।    या पुरस्ता- द्विद्यु दापतत्। तान्त एतेनावयजे स्वाहा।  या दक्षिणतः--।  या पश्चात्--।  योत्तरतः--।  योपरिष्टा- द्विद्युदापतत्। तान्त एतेनाव यजे स्वाहा।। 52।। 14।    प्राणाय स्वाहा  व्यानाय स्वाहा पानाय स्वाहा।  चक्षुषे स्वाहा  श्रोत्राय स्वाहा।  मनसे स्वाहा  वाचे सरस्वत्यै स्वाहा।। 53।।  15।    पूष्णे स्वाहा  पूष्णे शरसे स्वाहा।  पूष्णे प्रपथ्याय स्वाहा  पूष्णे नरन्धिषाय स्वाहा।  पूष्णेङ्घृणये स्वाहा  पूष्णे नरुणाय स्वाहा।  पूष्णे साकेताय स्वाहा।। 54।।  16।    उदस्य शुष्मा द्भानुर्नार्त र्बिभर्ति। भारं पृथिवी न भूम। प्रशुक्रैतु देवी मनीषा। अस्म थ्सुतष्टो रथो न वाजी। अर्चन्त एके महि साम मन्वत। तेन सूर्य मधारयन्न्। तेन सूर्य मरोचयन्न्। घर्म श्शिर स्तदय मग्निः। पुरीषमसि सम्प्रियं प्रजया पशुभि र्भुवत्। प्रजापतिस्त्वा सादयतु। तया देवतयाङ्गिरस्वद्ध्रुवा सीद।। 55।। 17।    यास्ते अग्न आर्द्रा योनयो या कुलायिनीः। ये ते अग्न इन्दवो या उ नाभयः। यास्ते अग्ने तनुव ऊर्जो नाम। ताभि स्त्व मुभयीभि स्सँविदानः। प्रजाभि रग्ने द्रविणेह सीद। प्रजापतिस्त्वा सादयतु। तया देवतयाङ्गिरस्व द्ध्रुवा सीद।। 56।। 18।    अग्निरसि वैश्वानरोसि। सँवथ्सरोसि परिवथ्सरोसि। इदावथ्सरो सीदुवथ्सरोसि। इद्वथ्सरोसि वथ्सरोसि। तस्य ते वसन्त श्शिरः। ग्रीष्मो दक्षिण पक्षः। वर्‌षा पुच्छम्। शर दुत्तर पक्षः। हेमन्तो मध्यम्। पूर्वपक्षा श्चितयः।। 57।।  अपरपक्षा पुरीषम्। अहोरात्राणीष्टकाः। तस्य ते मासा श्चार्धमासाश्च कल्पन्ताम्। ऋतवस्ते कल्पन्ताम्। सँवथ्सरस्ते कल्पताम्। अहोरात्राणि ते कल्पन्ताम्। एति प्रेति वीति समित्युदिति। प्रजापतिस्त्वा सादयतु। तया देवतयाङ्गिरस्वद्ध्रुव स्सीद।। 58।। (चितयो नव च। 19।)    भू  र्भुव  स्सुवः।  ऊर्ध्व ऊषुण ऊतये ।  ऊर्ध्वो न पाह्यहसः ।  विधु न्दद्राण समने बहूनाम्। युवान सन्तं पलितो जगार। देवस्य पश्य काव्यं महित्वा द्याममार। सह्यस्समान।।  यदृते चिदभिश्रिषः। पुरा जर्तृभ्य आतृदः। सन्धाता सन्धिं मघवा पुरोवसुः।। 59।।  निष्कर्ता विह्रुतं पुनः।  पुनरूर्जा   सह रय्या ।  मा नो घर्म व्यथितो वि व्यथो नः। मा न पर मधरं मा रजोनैः। मोष्वस्मा स्तमस्यन्त राधाः। मा रुद्रियासो अभिगु र्वृधा नः।।  मा न क्रतुभिर्‌ हीडितेभि रस्मान्। द्विषा सुनीते मा परादाः। मा नो रुद्रो निर्‌ऋति र्मा नो अस्ता। मा द्यावापृथिवी हीडिषाताम्।। 60।।   उप नो मित्रावरुणा विहावतम्। अन्वादीध्याथा मिह न स्सखाया। आदित्यानां प्रसितिर्‌ हेतिः। उग्रा शतापाष्ठा घविषा परिणो वृणक्तु।।  इमं मे वरुण   तत्त्वा यामि ।  त्वन्नो अग्ने  स त्वन्नो अग्ने ।  त्वमग्ने अयासि ।  उद्वय न्तमसस्परि ।  उदुत्य  ञ्चित्रम् ।  वय स्सुपर्णाः ।। 61।। (पुरोवसुर्‌ हीडिषाता सुपर्णाः। 20।)    भूर्भुवस्सुवः।  मयि त्यदिन्द्रियं महत्। मयि दक्षो मयि क्रतुः। मयि धायि सुवीर्यम्। त्रिशुग्घर्मो वि भातु मे।।  आकूत्या मनसा सह। विराजा ज्योतिषा सह। यज्ञेन पयसा सह। ब्रह्मणा तेजसा सह। क्षत्त्रेण यशसा सह। सत्येन तपसा सह। तस्य दोह मशीमहि। तस्य सुम्न मशीमहि। तस्य भक्ष मशीमहि। तस्य त इन्द्रेण पीतस्य मधुमतः। उपहूत.स्योपहूतो भक्षयामि।। 62।। (यशसा सह षट्च। 21।)    यास्ते अग्ने घोरास्तनुवः। क्षुच्च तृष्णा च। अस्नुक्चानाहुतिश्च। अशनया च पिपासा च। सेदिश्चामतिश्च। एतास्ते अग्ने घोरा स्तनुवः। ताभि रमुङ्गच्छ। योस्मा न्द्वेष्टि। यञ्च वय न्द्विष्मः।। 63।। 22।    स्निक्च स्नीहितिश्च स्निहितिश्च। उष्णा च शीता च। उग्रा च भीमा च। सदाम्नी सेदिरनिरा। एतास्ते अग्ने घोरा स्तनुवः। ताभिरमु ङ्गच्छ। योस्मा न्द्वेष्टि। यञ्च वय न्द्विष्मः।। 64।। 23।    धुनिश्च ध्वान्तश्च ध्वनश्च ध्वनयश्च। निलिम्पश्च विलिम्पश्च विक्षिपः।। 65।। 24।    उग्रश्च धुनिश्च ध्वान्तश्च ध्वनश्च ध्वनयश्च। सहसह्वाश्च सहमानश्च सहस्वाश्च सहीयाश्च। एत्य प्रेत्य विक्षिपः।। 66।। 25।    अहोरात्रे त्वोदीरयताम्। अर्घमासा स्त्वोदीञ्जयन्तु। मासास्त्वा श्रपयन्तु। ऋतवस्त्वा पचन्तु। सँवथ्सरस्त्वा हन्त्वसौ।। 67।। 26।    खट्  फ ड्जहि।  छिन्धी  भिन्धी  हन्धी  कट्। - इति वाचः क्रूराणि।। 68।। 27।    विगा इन्द्र विचरन्थ्स्पाशयस्व। स्वपन्त मिन्द्र पशुमन्त मिच्छ। वज्रेणामुं बोधय दुर्विदत्रम्। स्वपतोस्य प्र हर भोजनेभ्यः।।  अग्ने अग्निना सँ वदस्व। मृत्यो मृत्युना सँ वदस्व। नमस्ते अस्तु भगवः।।  सकृत्ते अग्ने नमः। द्विस्ते नमः। त्रिस्ते नमः। चतुस्ते नमः। पञ्चकृत्वस्ते नमः। दशकृत्वस्ते नमः। शतकृत्वस्ते नमः। आसहस्रकृत्वस्ते नमः। अपरिमितकृत्वस्ते नमः। नमस्ते अस्तु मा मा हिसीः।। 69।। (त्रिस्ते नमस्सप्त च। 28।)    असृङ्मुखो रुधिरेणाव्यक्तः। यमस्य दूत श्श्श्वपा द्विधावसि। गृद्ध्र स्सुपर्ण कुणप न्निषेवसे। यमस्य दूत प्रहितो भवस्य चोभयोः।। 70।। 29।    यदेतद्वृकसो भूत्वा। वाग्देव्यभिरायसि। द्विषन्तं मेभि राय। तं मृत्यो मृत्यवे नय। स आर्त्यार्ति मार्छतु।। 71।। 30।  यदीषितो यदि वा स्वकामी। भयेडको वदति वाच मेताम्। तामिन्द्राग्नी ब्रह्मणा सँविदानौ। शिवा मस्मभ्यङ्कृणुत ङ्गृहेषु।। 72।। 31।  दीर्घमुखि दुर्‌हणु। मा स्म दक्षिणतो वदः। यदि दक्षिणतो वदा द्द्विषन्तं मेव बाधासै।। 73।। 32।    इत्था दुलूक आपप्तत्। हिरण्याक्षो अयोमुखः। रक्षसा न्दूत आगतः। तमितो नाशयाग्ने।। 74।। 33।    यदेतद्भूता न्यन्वाविश्य। दैवीँ वाचँ वदसि। द्विषतो न परा वद। तान्मृत्यो मृत्यवे नय। त आर्त्यार्ति मार्छन्तु। अग्निनाग्नि स्सँ वदताम्।। 75।। 34।    प्रसार्य सक्थ्यौ पतसि। सव्य मक्षि निपेपि च। मेहकस्य च नाममत्।। 76।। 35।    अत्रिणा त्वा क्रिमे हन्मि। कण्वेन जमदग्निना। विश्वावसो र्ब्रह्मणा हतः। क्रिमीणा राजा। अप्येषा स्थपतिर्‌ हतः। अथो माताथो पिता। अथो स्थूरा अथो क्षुद्राः। अथो कृष्णा अथो श्वेताः। अथो आशातिका हताः। श्वेताभि स्सह सर्वे हताः।। 77।। 36।    आहरावद्य। शृतस्य हविषो यथा। तथ्सत्यम्। यदमुँ यमस्य जम्भयोः। आ दधामि तथा हि तत्। खण्फण्‌म्रसि।। 78।। 37।    ब्रह्मणा त्वा शपामि। ब्रह्मणस्त्वा शपथेन शपामि। घोरेण त्वा भृगूणा ञ्चक्षुषा प्रेक्षे। रौद्रेण त्वाङ्गिरसां मनसा ध्यायामि। अघस्य त्वा धारया विध्यामि। अधरो मत्पद्यस्वासौ।। 79।। 38।    उत्तुद शिमिजावरि। तल्पेजे तल्प उत्तुद। गिरी रनु प्र वेशय। मरीची रुप सन्नुद। यावदित पुरस्ता दुदयाति सूर्यः। तावदितोमु न्नाशय। योस्मा न्द्वेष्टि। यञ्च वय न्द्विष्मः।। 80।। 39।    भूर्भुवस्सुवो भूर्भुवस्सुवो भूर्भुवस्सुवः।  भुवोद्धायि भुवोद्धायि भुवोद्धायि।  नृम्णायि नृम्ण न्नृम्णायि नृम्ण न्नृम्णायि नृम्णम्।  निधाय्यो वायि निधाय्यो वायि निधाय्यो वायि।  ए अस्मे अस्मे।  सुवर्न ज्योतीः।। 81।। 40।    पृथिवी समित्। तामग्नि स्समिन्धे। साग्नि समिन्धे। तामह समिन्धे। सा मा समिद्धा। आयुषा तेजसा। वर्चसा श्रिया। यशसा ब्रह्मवर्चसेन। अन्नाद्येन समिन्ता स्वाहा।।  अन्तरिक्ष समित्।। 82।।  ताँ वायु स्समिन्धे। सा वायु समिन्धे। तामह समिन्धे। सा मा समिद्धा। आयुषा तेजसा। वर्चसा श्रिया। यशसा ब्रह्मवर्चसेन। अन्नाद्येन समिन्ता स्वाहा।।  द्यौस्समित्। तामादित्य स्समिन्धे।। 83।।  सादित्य समिन्धे। तामह समिन्धे। सा मा समिद्धा। आयुषा तेजसा। वर्चसा श्रिया। यशसा ब्रह्मवर्चसेन। अन्नाद्येन समिन्ता स्वाहा।।  प्राजापत्या मे समिदसि सपत्नक्षयणी। भ्रातृव्यहा मेसि स्वाहा।।  अग्ने व्रतपते- व्रत ञ्चरिष्यामि।। 84।।  तच्छकेय न्तन्मे राध्यताम्।  वायो व्रतपत--  आदित्य व्रतपते--।  व्रतानाँ व्रतपते- व्रत ञ्चरिष्यामि। तच्छकेय न्तन्मे राध्यताम्।  द्यौस्समित्। तामादित्य स्समिन्धे। सादित्य समिन्धे। तामह समिन्धे। सा मा समिद्धा। आयुषा तेजसा।। 85।।  वर्चसा श्रिया। यशसा ब्रह्मवर्चसेन। अन्नाद्येन समिन्ता स्वाहा।।  अन्तरिक्ष समित्। ताँ वायु स्समिन्धे। सा वायु समिन्धे। तामह समिन्धे। सा मा समिद्धा। आयुषा तेजसा। वर्चसा श्रिया।। 86।।  यशसा ब्रह्मवर्चसेन। अन्नाद्येन समिन्ता स्वाहा।।  पृथिवी समित्। तामग्नि स्समिन्धे। साग्नि समिन्धे। तामह समिन्धे। सा मा समिद्धा। आयुषा तेजसा। वर्चसा श्रिया। यशसा ब्रह्मवर्चसेन।। 87।।  अन्नाद्येन समिन्ता स्वाहा।।  प्राजापत्या मे समिदसि सपत्नक्षयणी। भ्रातृव्यहा मेसि स्वाहा।।  आदित्य व्रतपते- व्रत मचारिषम्। तदशकन्तन्मे राधि।।  वायो व्रतपते-- ग्ने व्रतपते--।  व्रतानाँ व्रतपते- व्रत मचारिषम्। तदशकन्तन्मे राधि।। 88।। (समिथ्समिन्धे व्रत ञ्चरिष्या म्यायुषा तेजसा वर्चसा श्रिया यशसा ब्रह्मवर्चसेनाष्टौ च। 41।)    शन्नो वात पवतां मातरिश्वा शन्न स्तपतु सूर्यः। अहानि शं भवन्तु न श्श रात्रि प्रति धीयताम्।।  शमुषा नो व्युच्छतु शमादित्य उदेतु नः। शिवा नश्शन्तमा भव सुमृडीका सरस्वति। मा ते व्योम सन्दृशि।।  इडायै वास्त्वसि वास्तुम द्वास्तुमन्तो भूयास्म मा वास्तो श्छिथ्स्मह्यवास्तु स्स भूया द्योस्मा न्द्वेष्टि यञ्च वय न्द्विष्मः।।  प्रतिष्ठासि प्रतिष्ठावन्तो भूयास्म मा प्रतिष्ठाया श्छिथ्स्मह्यप्रतिष्ठ स्स भूया द्योस्मा न्द्वेष्टि यँ च वय न्द्विष्मः।।  आ वात वाहि भेषजँ वि वात वाहि यद्रपः। त्व हि विश्वभेषजो देवाना न्दूत ईयसे।।  द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धो रा परावतः।। 89।।  दक्षं मे अन्य आवातु परान्यो वातु यद्रपः।।  यददो वात ते गृहेमृतस्य निधिर्‌ हितः। ततो नो देहि जीवसे ततो नो धेहि भेषजम्। ततो नो मह आवह-  वात आवातु भेषजम्। शम्भू र्मयोभू र्नो हृदे प्रण आयूषि तारिषत्।।  इन्द्रस्य गृहोसि तन्त्वा प्र पद्ये सगु स्साश्वः। सह यन्मे अस्ति तेन।।  भू प्र पद्ये भुव प्र पद्ये सुव प्र पद्ये भूर्भुवस्सुव प्र पद्ये वायुं प्र पद्ये नार्ता न्देवतां प्र पद्येश्मान माखणं प्रपद्ये प्रजापते र्ब्रह्मकोशं ब्रह्म प्र पद्य ओं प्र पद्ये।।  अन्तरिक्षं म उर्वन्तरं बृहदग्नय पर्वताश्च यया वात स्स्वस्त्या स्वस्तिमा न्तया स्वस्त्या स्वस्तिमा नसानि।।  प्राणापानौ मृत्योर्मा पातं प्राणापानौ मा मा हासिष्टं  मयि मेधां मयि प्रजां मय्यग्नि स्तेजो दधातु  मयि मेधां मयि प्रजां मयीन्द्र इन्द्रिय न्दधातु  मयि मेधां मयि प्रजां मयि सूर्यो भ्राजो दधातु।। 90।।   द्युभि रक्तुभि परि पात मस्मा नरिष्टेभि रश्विना सौभगेभिः। तन्नो मित्रो वरुणो मा महन्ता मदिति स्सिन्धु पृथिवी उत द्यौः।।  कया न श्चित्र आ भुव दूती सदावृध स्सखा। कया शचिष्ठया वृता।।  कस्त्वा सत्यो मदानां महिष्ठो मथ्सदन्धसः। दृढा चिदारुजे वसु।।  अभीषुण स्सखीना मविता जरितॄणाम्। शतं भवास्यूतिभिः।।  वयस्सुपर्णा उपसेदु रिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः। अप ध्वान्त मूर्णुहि पूर्धि चक्षु र्मुमुग्ध्यस्मा न्निधयेव बद्धान्।। 91।।   शन्नो देवी रभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शँ यो रभि स्रवन्तु नः।।  ईशाना वार्याणा ङ्क्षयन्ती श्चर्‌षणीनाम्। अपो याचामि भेषजम्।।  सुमित्रा न आप ओषधय स्सन्तु दुर्मित्रा स्तस्मै भूयासु र्योस्मा न्द्वेष्टि यँ च वय न्द्विष्मः।  आपो हिष्ठा मयोभुव स्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे।।  यो व श्शिवतमो रस स्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।।  तस्मा अर ङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ।। 92।।  आपो जनयथा चनः।।  पृथिवी शान्ता साग्निना शान्ता सा मे शान्ता शुच शमयतु।।  अन्तरिक्ष शान्त न्तद्वायुना शान्त न्तन्मे शान्त शुच शमयतु।।  द्यौश्शान्ता सादित्येन शान्ता सा मे शान्ता शुच शमयतु।।  पृथिवी शान्ति रन्तरिक्ष शान्ति र्द्यौश्शान्ति र्दिश श्शान्ति रवान्तरदिशा श्शान्ति रग्नि श्शान्ति र्वायु श्शान्ति रादित्य श्शान्ति श्चन्द्रमा श्शान्ति र्नक्षत्राणि शान्ति राप श्शान्ति रोषधय श्शान्ति र्वनस्पतय श्शान्तिर्गौ श्शान्ति रजा शान्ति रश्व श्शान्ति पुरुषश्शान्ति र्ब्रह्म शान्ति र्ब्राह्मणश्शान्ति श्शान्तिरेव शान्ति श्शान्ति र्मे अस्तु शान्तिः।  तयाह शान्त्या सर्वशान्त्या मह्य न्द्विपदे चतुष्पदे च शान्ति ङ्करोमि शान्ति र्मे अस्तु शान्तिः।।  एह श्रीश्च ह्रीश्च धृतिश्च तपो मेधा प्रतिष्ठा श्रद्धा सत्य न्धर्म श्चैतानि मोत्तिष्ठन्त मनूत्तिष्ठन्तु मा मा श्रीश्च ह्रीश्च धृतिश्च तपो मेधा प्रतिष्ठा श्रद्धा सत्य न्धर्म श्चैतानि मा मा हासिषुः।।  उदायुषा स्वायुषोदोषधीना रसेनोत्पर्जन्यस्य शुष्मेणोदस्था ममृता अनु।।  तच्चक्षु र्देवहितं पुरस्ता च्छुक्र मुच्चरत्।  पश्येम शरद श्शत  ञ्जीवेम शरद श्शत  न्नन्दाम शरद श्शतं  मोदाम शरद श्शतं  भवाम शरद श्शत  शृणवाम शरद श्शतं  प्र ब्रवाम शरद श्शत  मजीता स्स्याम शरद श्शत  ञ्ज्योक्च सूर्यन्दृशे।।  य उदगा न्महतोर्णवा द्विभ्राजमान स्सरिरस्य मध्या थ्समा वृषभो लोहिताक्ष स्सूर्यो विपश्चि न्मनसा पुनातु।।  ब्रह्मण श्चोतन्यसि ब्रह्मण आणी स्थो ब्रह्मण आवपनमसि धारितेयं पृथिवी ब्रह्मणा मही धारित मेनेन महदन्तरिक्ष न्दिव न्दाधार पृथिवी सदेवाँ यदहँ वेद तदह न्धारयाणि मा मद्वेदोधि विस्रसत्।।  मेधामनीषे मा विशता समीची भूतस्य भवस्यावरुध्यै सर्वमायु रयाणि सर्वमायु रयाणि।।  आभि र्गीर्भि र्यदतो न ऊन माप्यायय हरिवो वर्धमानः। यदा स्तोतृभ्यो महि गोत्रा रुजासि भूयिष्ठभाजो अध ते स्याम।।  ब्रह्म प्रावादिष्म तन्नो मा हासीत्।।  ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।। 93।। (परावतो दधातु बद्धा ञ्जिन्वथ दृशे सप्त च। 42।) (नमो युञ्जते वृष्णो अश्वस्य ब्रह्म न्प्रवर्ग्येण ब्रह्म न्प्रचरिष्यामो दश प्राची रपश्य ङ्गोपा न्देवस्य समुद्रायेषे पीपिहि घर्म या ते महीना ञ्चत्वार्यस्कान् या पुरस्ताथ्सप्तसप्त प्राणाय त्रीणि पूष्णे चत्वार्युदस्यैकादश यास्ते सप्ताग्नि र्ध्रुव स्सीदैकान्न विशति र्भूरूर्ध्व स्त्रिश,द्भू र्मयि षोडश, यास्ते घोरा नव, स्निक्चाष्टौ, धुनिश्च द्वे, उग्रश्च त्रीण्यहोरात्रे पञ्च, खट्त्रीणि, विगा स्सप्तदशासृङ्मुख श्चत्वारि यदेतद्वृकस पञ्च यदीषित श्चत्वारि, दीर्घमुखि त्रीणीत्था चत्वारि, यदेतद्भूतानि षट्प्रसार्य त्रीण्यत्रिणा दशाहरावद्य, ब्रह्मणा षट्‌थ्षडुत्तुदाष्टौ, भूष्षट् पृथिव्यष्टषष्टि श्शन्न स्सप्तपञ्चाश द्द्विचत्वारिशत्। 43। युञ्जते ब्रह्म न्प्र चरिष्यामो पश्य ङ्गोपा समुद्राय वय मनु क्रामाम पूष्णे धुनिश्च यदेत द्भूतानि तच्छकेय मष्टाशीतिः। नमो वाचे ब्रह्म न्प्रवर्ग्येण मयि रुगन्तरिक्षेण घर्म या ते दिविशु गस्कान्द्यौ पृथिवी मुप नो मित्रावरुणा यदेत द्वृकसो भूर्भुवस्सुव र्द्युभि स्त्रिनवतिः।। 93।। युञ्जते मनो मा हासीत्।) ओं शान्तिश्शान्तिः। आरण्यके पञ्चम प्रपाठकः सौ।का। 7 शुक्रिय (प्रवर्ग्य) ब्राह्मणम् (शन्न स्तन्नो मा हासीत्। ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।। )   देवा वै सत्र मासत। ऋद्धिपरिमितँ यशस्कामाः। तेब्रुवन्न्। यन्न प्रथमँ यश ऋच्छात्। सर्वेषान्न स्त थ्सहासदिति। तेषा ङ्कुरुक्षेत्रँ वेदि रासीत्। तस्यै खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत्। तूर्घ्न मुत्तरार्धः। परीण ज्जघनार्धः। मरव उत्करः।। 1।।  तेषां मखँ वैष्णवँ यश आर्छत्। तन्न्यकामत। तेनापाक्रामत्। तन्देवा अन्वायन्न्। यशोवरुरुथ्समानाः। तस्यान्वागतस्य। सव्या द्धनु रजायत। दक्षिणा दिषवः। तस्मा दिषुधन्वं पुण्यजन्म। यज्ञजन्मा हि।। 2।।  तमेक सन्तम्। बहवो नाभ्यधृष्णुवन्न्। तस्मा देकमिषुधन्विनम्। बहवोनिषुधन्वा नाभि धृष्णुवन्ति। सोस्मयत। एकं मा सन्तं बहवो नाभ्यधर्‌षिषुरिति। तस्य सिष्मियाणस्य तेजोपाक्रामत्। तद्देवा ओषधीषु न्यमृजुः। ते श्यामाका अभवन्न्। स्मयाका वै नामैते।। 3।।  तथ्स्मयाकाना स्मयाकत्वम्। तस्मा द्दीक्षितेनापिगृह्य स्मेतव्यम्। तेजसो धृत्यै। स धनु प्रतिष्कभ्यातिष्ठत्। ता उपदीका अब्रुवन्वरँ वृणामहै। अथ व इम रन्धयाम। यत्र क्व च खनाम। तदपोभि तृणदामेति। तस्मादुपदीका यत्र क्व च खनन्ति। तदपोभि तृन्दन्ति।। 4।।  वारेवृत ह्यासाम्। तस्य ज्या मप्यादन्न्। तस्य धनु र्विप्रवमाण शिर उदवर्तयत्। तद्द्यावापृथिवी अनु प्रावर्तत। यत्प्रावर्तत। तत्प्रवर्ग्यस्य प्रवर्ग्यत्वम्। यद्घ्राँ ‘4’ इत्यपतत्। तद्घर्मस्य घर्मत्वम्। महतो वीर्य मपप्त दिति। तन्महावीरस्य महावीरत्वम्।। 5।।  यदस्या स्समभरन्न्। तथ्सम्राज्ञ स्सम्राट्त्वम्। तस्तृत न्देवता स्त्रेधा व्यगृह्णत। अग्नि प्रातस्सवनम्। इन्द्रो माध्यन्दिन सवनम्। विश्वे देवा स्तृतीयसवनम्। तेनापशीर्ष्णा यज्ञेन यजमानाः। नाशिषोवारुन्धत। न सुवर्गँ लोक मभ्यजयन्न्। ते देवा अश्विनावब्रुवन्न्।। 6।।  भिषजौ वै स्थः। इदँ यज्ञस्य शिर प्रति धत्तमिति। तावब्रूताँ वरँ वृणावहै। ग्रह एव नावत्रापि गृह्यतामिति। ताभ्या मेत माश्विन मगृह्णन्न्। तावेत द्यज्ञस्य शिर प्रत्यधत्ताम्। यत्प्रवर्ग्यः। तेन सशीर्ष्णा यज्ञेन यजमानाः। अवाशिषो रुन्धत। अभि सुवर्गँ लोक मजयन्न्। यत्प्रवर्ग्यं प्रवृणक्ति। यज्ञस्यैव तच्छिर प्रति दधाति। तेन सशीर्ष्णा यज्ञेन यजमानः। अवाशिषो रुन्धे। अभि सुवर्गँ लोक ञ्जयति। तस्मादेष आश्विनप्रवया इव। यत्प्रवर्ग्यः।। 7।। (उत्करो ह्येते तृन्दन्ति महावीरत्व मब्रुव न्नजय‘2‘न्थ्सप्त च। 1।)   सावित्र ञ्जुहोति प्रसूत्यै। चतुर्गृहीतेन जुहोति। चतुष्पाद पशवः। पशूनेवाव रुन्धे। चतस्रो दिशः। दिक्ष्वेव प्रति तिष्ठति। छन्दासि देवेभ्योपाक्रामन्न्। न वोभागानि हव्यँ वक्ष्याम इति। तेभ्य एत च्चतुर्गृहीत मधारयन्न्। पुरोनुवाक्यायै याज्यायै।। 8।।  देवतायै वषट्काराय। यच्चतुर्गृहीत ञ्जुहोति। छन्दास्येव तत्प्रीणाति। तान्यस्य प्रीतानि देवेभ्यो हव्यँ वहन्ति। ब्रह्मवादिनो वदन्ति। होतव्य न्दीक्षितस्य गृहा ‘3’ इ न होतव्या ‘3’ मिति। हविर्वै दीक्षितः। यज्जुहुयात्। हविष्कृतँ यजमान मग्नौ प्र दध्यात्। यन्न जुहुयात्।। 9।।  यज्ञपरु रन्तरियात्। यजुरेव वदेत्। न हविष्कृतँ यजमान मग्नौ प्रदधाति। न यज्ञपरु रन्तरेति। गायत्री छन्दास्यत्यमन्यत। तस्यै वषट्कारोभ्यय्य शिरोच्छिनत्। तस्यै द्वेधा रस परापतत्। पृथिवी मर्ध प्राविशत्। पशूनर्धः। य पृथिवीं प्राविशत्।। 10।।  स खदिरोभवत्। य पशून्। सोजाम्। यत्खादिर्यभ्रि र्भवति। छन्दसामेव रसेन यज्ञस्य शिर स्सं भरति। यदौदुम्बरी। ऊर्ग्वा उदुम्बरः। ऊर्जैव यज्ञस्य शिरस्सं भरति। यद्वैणवी। तेजो वै वेणुः।। 11।।  तेजसैव यज्ञस्य शिर स्सं भरति। यद्वैकङ्कती। भा एवाव रुन्धे। देवस्य त्वा सवितु प्रसव इत्यभ्रि मादत्ते प्रसूत्यै। अश्विनो र्बाहुभ्या मित्याह। अश्विनौ हि देवाना मध्वर्यू आस्ताम्। पूष्णो हस्ताभ्या मित्याह यत्यै। वज्र इव वा एषा। यदब्भ्रिः। अब्भ्रिरसि नारि रसीत्याह शान्त्यै।। 12।।  अध्वरकृ द्देवेभ्य इत्याह। यज्ञो वा अध्वरः। यज्ञकृ द्देवेभ्य इति वावैतदाह। उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पत इत्याह। ब्रह्मणैव यज्ञस्य शिरोच्छैति। प्रैतु ब्रह्मणस्पति रित्याह। प्रेत्यैव यज्ञस्य शिरोच्छैति। प्रदेव्येतु सूनृतेत्याह। यज्ञो वै सूनृता। अच्छा वीर न्नर्यं पङ्क्तिराधस मित्याह।। 13।।  पाङ्क्तो हि यज्ञः। देवा यज्ञ न्नयन्तु न इत्याह। देवानेव यज्ञनिय कुरुते। देवी द्यावापृथिवी अनु मे मसाथा मित्याह। आभ्या मेवानुमतो यज्ञस्य शिर स्सं भरति। ऋध्यास मद्य मखस्य शिर इत्याह। यज्ञो वै मखः। ऋद्ध्यास मद्य यज्ञस्य शिर इति वावैतदाह। मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्याह। निर्दिश्यैवैन द्धरति।। 14।।  त्रिर्‌हरति। त्रय इमे लोकाः। एभ्य एव लोकेभ्यो यज्ञस्य शिरस्सं भरति। तूष्णीञ्चतुर्थ हरति। अपरिमिता देव यज्ञस्य शिरस्सं भरति। मृत्खनादग्रे हरति। तस्मा न्मृत्खन करुण्यतमः। इयत्यग्र आसी रित्याह। अस्यामेवाछम्बट्कारँ यज्ञस्य शिरस्सं भरति। ऊर्जँ वा एत रसं पृथिव्या उपदीका उद्दिहन्ति।। 15।।  यद्वल्मीकम्। यद्वल्मीकवपा सम्भारो भवति। ऊर्जमेव रसं पृथिव्या अव रुन्धे। अथो श्रोत्रमेव। श्रोत्र ह्येत त्पृथिव्याः। यद्वल्मीकः। अबधिरो भवति। य एवँ वेद। इन्द्रो वृत्राय वज्र मुदयच्छत्। स यत्रयत्र पराक्रमत।। 16।।  तन्नाध्रियत। स पूतीकस्तम्बे पराक्रमत। सोद्ध्रियत। सोब्रवीत्। ऊतिँ वै मेधा इति। तदूतीकाना मूतीकत्वम्। यदूतीका भवन्ति। यज्ञायैवोति न्दधति। अग्निजा असि प्रजापते रेत इत्याह। य एव रस पशू न्प्राविशत्।। 17।।  तमेवाव रुन्धे। पञ्चैते सम्भारा भवन्ति। पाङ्क्तो यज्ञः। यावानेव यज्ञः। तस्य शिरस्सं भरति। यद्ग्राम्याणां पशूना ञ्चर्मणा सम्भरेत्। ग्राम्या न्पशू न्छुचार्पयेत्। कृष्णाजिनेन सं भरति। आरण्यानेव पशू न्छुचार्पयति। तस्माथ्समावत्पशूनां प्रजायमानानाम्।। 18।।  आरण्या पशव कनीयासः। शुचा ह्यृताः। लोमत स्सं भरति। अतो ह्यस्य मेध्यम्। परिगृह्यायन्ति। रक्षसा मपहत्यै। बहवो हरन्ति। अपचिति मेवास्मि न्दधति। उद्धते सिकतोपोप्ते परिश्रिते नि दधति शान्त्यै। मदन्तीभि रुप सृजति।। 19।।  तेज एवास्मि न्दधाति। मधु त्वा मधुला करोत्वित्याह। ब्रह्मणैवास्मि न्तेजो दधाति। यद्ग्राम्याणां पात्राणां कपालै स्ससृजेत्। ग्राम्याणि पात्राणि शुचार्पयेत्। अर्मकपालै स्स सृजति। एतानि वा अनुपजीवनीयानि। तान्येव शुचार्पयति। शर्कराभि स्स सृजति धृत्यै। अथो शन्त्वाय। अजलोमै स्ससृजति। एषा वा अग्ने प्रिया तनूः। यदजा। प्रिययैवैन न्तनुवा ससृजति। अथो तेजसा। कृष्णाजिनस्य लोमभि स्स सृजति। यज्ञो वै कृष्णाजिनम्। यज्ञेनैव यज्ञ स सृजति।। 20।। (याज्यायै न जुहुया दविश द्वेणु श्शान्त्यै पङ्क्तिराधसमित्याह हरति दिहन्ति पराक्रमताविश त्प्रजायमानाना सृजति शन्त्वायाष्टौ च। 2।)   परिश्रिते करोति। ब्रह्मवर्चसस्य परिगृहीत्यै। न कुर्व न्नभि प्राण्यात्। यत्कुर्व न्नभिप्राण्यात्। प्राणा न्छुचार्पयेत्। अपहाय प्राणिति। प्राणाना ङ्गोपीथाय। न प्रवर्ग्य ञ्चादित्य ञ्चान्तरेयात्। यदन्तरेयात्। दुश्चर्मा स्यात्।। 21।।  तस्मा न्नान्तराय्यम्। आत्मनो गोपीथाय। वेणुना करोति। तेजो वै वेणुः। तेज प्रवर्ग्यः। तेजसैव तेज स्समर्धयति। मखस्य शिरोसीत्याह। यज्ञो वै मखः। तस्यैतच्छिरः। यत्प्रवर्ग्यः।। 22।।  तस्मा देवमाह। यज्ञस्य पदे स्थ इत्याह। यज्ञस्य ह्येते पदे। अथो प्रतिष्ठित्यै। गायत्रेण त्वा छन्दसा करोमीत्याह। छन्दोभि रेवैन ङ्करोति। त्र्युद्धि ङ्करोति। त्रय इमे लोकाः। एषाँ लोकाना माप्त्यै। छन्दोभि करोति।। 23।।  वीर्यँ वै छन्दासि। वीर्येणैवैन ङ्करोति। यजुषा बिल ङ्करोति व्यावृत्त्यै। इयन्त ङ्करोति। प्रजापतिना यज्ञमुखेन संमितम्। इयन्त ङ्करोति। यज्ञपरुषा संमितम्। इयन्त ङ्करोति। एतावद्वै पुरुषे वीर्यम्। वीर्यसम्मितम्।। 24।।  अपरिमित ङ्करोति। अपरिमितस्यावरुद्ध्यै। परिग्रीव ङ्करोति धृत्यै। सूर्यस्य हरसा श्रायेत्याह। यथायजु रेवैतत्। अश्वशकेन धूपयति। प्राजापत्यो वा अश्व स्सयोनित्वाय। वृष्णो अश्वस्य निष्पदसीत्याह। असौ वा आदित्यो वृषाश्वः। तस्य छन्दासि निष्पत्।। 25।।  छन्दोभि रेवैन न्धूपयति। अर्चिषे त्वा शोचिषे त्वेत्याह। तेज एवास्मि न्दधाति। वारुणोभीद्धः। मैत्रियोपैति शान्त्यै। सिद्ध्यै त्वेत्याह। यथायजु रेवैतत्। देवस्त्वा सवितोद्वपत्वित्याह। सवितृप्रसूत एवैनं ब्रह्मणा देवताभि रुद्वपति। अपद्यमान पृथिव्या माशा दिश आ पृणेत्याह।। 26।।  तस्मादग्नि स्सर्वा दिशोनु वि भाति। उत्तिष्ठ बृहन्भवोर्ध्व स्तिष्ठ ध्रुवस्त्व मित्याह प्रतिष्ठित्यै। ईश्वरो वा एषोन्धो भवितोः। य प्रवर्ग्य मन्वीक्षते। सूर्यस्य त्वा चक्षुषान्वीक्ष इत्याह। चक्षुषो गोपीथाय। ऋजवे त्वा साधवे त्वा सुक्षित्यै त्वा भूत्यै त्वेत्याह। इयँ वा ऋजुः। अन्तरिक्ष साधु। असौ सुक्षितिः।। 27।।  दिशो भूतिः। इमानेवास्मै लोका न्कल्पयति। अथो प्रतिष्ठित्यै। इद मह ममु मामुष्यायणँ विशा पशुभि र्ब्रह्मवर्चसेन पर्यूहामीत्याह। विशैवैनं पशुभि र्ब्रह्मवर्चसेन पर्यूहति। विशेति राजन्यस्य ब्रूयात्। विशैवैनं पर्यूहति। पशुभिरिति वैश्यस्य। पशुभिरेवैनं पर्यूहति। असुर्यं पात्र मनाच्छृण्णम्।। 28।।  आच्छृणत्ति। देवत्राकः। अजक्षीरेणा च्छृणत्ति। परमँ वा एतत्पयः। यदजक्षीरम्। परमेणैवैनं पयसाच्छृणत्ति। यजुषा व्यावृत्यै। छन्दोभिराच्छृणत्ति। छन्दोभिर्वा एष क्रियते। छन्दोभि रेव छन्दास्याच्छृणत्ति। छृन्धि वाच मित्याह। वाच मेवाव रुन्धे। छृन्ध्यूर्ज मित्याह। ऊर्ज मेवाव रुन्धे। छृन्धि हविरित्याह। हवि रेवाकः। देव पुरश्चर सघ्यास न्त्वेत्याह। यथायजु रेवैतत्।। 29।। (स्याद्यत्प्रवर्ग्य श्छन्दोभि करोति वीर्यसम्मित ञ्छन्दासि निष्पत्पृणेत्याह सुक्षिति रनाच्छृण्ण ञ्छन्दा स्याच्छृणत्त्यष्टौ च। 3।)   ब्रह्म न्प्र चरिष्यामो होत र्घर्म मभिष्टुहीत्याह। एष वा एतर्‌हि बृहस्पतिः। यद्ब्रह्मा। तस्मा एव प्रतिप्रोच्य प्र चरति। आत्मनोनार्त्यै। यमाय त्वा मखाय त्वेत्याह। एता वा एतस्य देवताः। ताभि रेवैन समर्धयति। मदन्तीभि प्रोक्षति। तेज एवास्मि न्दधाति।। 30।।  अभिपूर्वं प्रोक्षति। अभिपूर्व मेवास्मि न्तेजो दधाति। त्रि प्रोक्षति। त्र्यावृद्धि यज्ञः। अथो मेध्यत्वाय। होतान्वाह। रक्षसा मपहत्यै। अनवानम्। प्राणाना सन्तत्यै। त्रिष्टुभ स्सती र्गायत्री रिवान्वाह।। 31।।  गायत्रो हि प्राणः। प्राणमेव यजमाने दधाति। सन्तत मन्वाह। प्राणाना मन्नाद्यस्य सन्तत्यै। अथो रक्षसा मपहत्यै। यत्परिमिता अनुब्रूयात्। परिमित मव रुन्धीत। अपरिमिता अन्वाह। अपरिमित स्यावरुद्ध्यै। शिरो वा एतद्यज्ञस्य।। 32।।  यत्प्रवर्ग्यः। ऊर्ङ्मुञ्जाः। यन्मौञ्जो वेदो भवति। ऊर्जैव यज्ञस्य शिर स्समर्धयति। प्राणाहुती र्जुहोति। प्राणानेव यजमाने दधाति। सप्त जुहोति। सप्त वै शीर्‌षण्या प्राणाः। प्राणा नेवास्मि न्दधाति। देवस्त्वा सविता मध्वानक्त्वित्याह।। 33।।  तेजसैवैन मनक्ति। पृथिवी न्तपस स्त्रायस्वेति हिरण्य मुपास्यति। अस्या अनतिदाहाय। शिरो वा एतद्यज्ञस्य। यत्प्रवर्ग्यः। अग्नि स्सर्वा देवताः। प्रलवा नादीप्योपास्यति। देवतास्वेव यज्ञस्य शिर प्रति दधाति। अप्रतिशीर्णाग्रं भवति। एतद्बर्‌हि र्ह्येषः।। 34।।  अर्चिरसि शोचिरसीत्याह। तेज एवास्मि न्ब्रह्मवर्चस न्दधाति। स सीदस्व महा असीत्याह। महान् ह्येषः। ब्रह्मवादिनो वदन्ति। एते वाव त ऋत्विजः। ये दर्‌शपूर्णमासयोः। अथ कथा होता यजमानायाशिषो नाशास्त इति। पुरस्तादाशी खलु वा अन्यो यज्ञः। उपरिष्टादाशी रन्यः।। 35।।  अनाधृष्या पुरस्ता दिति यदेतानि यजूष्याह। शीर्‌षत एव यज्ञस्य यजमान आशिषोव रुन्धे। आयु पुरस्तादाह। प्रजा न्दक्षिणतः। प्राणं पश्चात्। श्रोत्र मुत्तरतः। विधृति मुपरिष्टात्। प्राणानेवास्मै समीचो दधाति। ईश्वरो वा एष दिशोनून्मदितोः। यन्दिशोनु व्यास्थापयन्ति।। 36।।  मनो रश्वासि भूरि पुत्रेतीमा मभि मृशति। इयँ वै मनो रश्वा भूरिपुत्रा। अस्यामेव प्रतितिष्ठ त्यनुन्मादाय। सूपसदा मे भूया मा मा हिसी रित्याहाहिसायै। चितस्स्थ्स परिचित इत्याह। अपचिति मेवास्मि न्दधाति। शिरो वा एत द्यज्ञस्य। यत्प्रवर्ग्यः। असौ खलु वा आदित्य प्रवर्ग्यः। तस्य मरुतो रश्मयः।। 37।।  स्वाहा मरुद्भि परि श्रयस्वेत्याह। अमु मेवादित्य रश्मिभि पर्यूहति। तस्मा दसावादित्योमुष्मि न्लोके रश्मिभि पर्यूढः। तस्माद्राजा विशा पर्यूढः। तस्माद्ग्रामणी स्सजातै पर्यूढः। अग्ने स्सृष्टस्य यतः। विकङ्कतं भा आर्च्छत्। यद्वैकङ्कता परिधयो भवन्ति। भा एवाव रुन्धे। द्वादश भवन्ति।। 38।।  द्वादश मासा स्सँवथ्सरः। सँवथ्सर मेवाव रुन्धे। अस्ति त्रयोदशो मास इत्याहुः। यत्त्रयोदश परिधि र्भवति। तेनैव त्रयोदशं मास मव रुन्धे। अन्तरिक्षस्यान्तर्धि रसीत्याह व्यावृत्त्यै। दिव न्तपस स्त्रायस्वे त्युपरिष्टा द्धिरण्य मधि नि दधाति। अमुष्या अनतिदाहाय। अथो आभ्यामेवैन मुभयत परि गृह्णाति। अर्‌ह न्बिभर्‌षि सायकानि धन्वेत्याह।। 39।।  स्तौत्येवैन मेतत्। गायत्रमसि त्रैष्टुभमसि जागत मसीति धवित्राण्या दत्ते। छन्दोभि रेवैनान्या दत्ते। मधु मध्विति धूनोति। प्राणो वै मधु। प्राणमेव यजमाने दधाति। त्रि परि यन्ति। त्रिवृद्धि प्राणः। त्रि परि यन्ति। त्र्यावृद्धि यज्ञः।। 40।।  अथो रक्षसा मपहत्यै। त्रि पुन परि यन्ति। षट्‌थ्सं पद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठन्ति। यो वै घर्मस्य प्रिया न्तनुव माक्रामति। दुश्चर्मा वै स भवति। एष ह वा अस्य प्रिया न्तनुव मा क्रामति। यस्त्रि परीत्य चतुर्थं पर्येति। एता ह वा अस्योग्रदेवो राजनि राचक्राम।। 41।।  ततो वै स दुश्चर्माभवत्। तस्मात्त्रि परीत्य न चतुर्थं परीयात्। आत्मनो गोपीथाय। प्राणा वै धवित्राणि। अव्यतिषङ्ग न्धून्वन्ति। प्राणाना मव्यतिषङ्गाय कॢप्त्यै। विनिषद्य धून्वन्ति। दिक्ष्वेव प्रति तिष्ठन्ति। ऊर्ध्व न्धून्वन्ति। सुवर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। सर्वतो धून्वन्ति। तस्मादय सर्वत पवते।। 42।। (दधातीवान्वाह यज्ञस्याहैष उपरिष्टादाशी रन्यो व्यास्थापयन्ति रश्मयो भवन्ति धन्वेत्याह यज्ञ श्चक्राम समष्ट्यै द्वे च। 4।)   अग्निष्ट्वा वसुभि पुरस्ता द्रोचयतु गायत्रेण छन्दसेत्याह। अग्निरेवैनँ वसुभि पुरस्ता द्रोचयति गायत्रेण छन्दसा। स मा रुचितो रोचयेत्याह। आशिष मेवैता माशास्ते। इन्द्रस्त्वा रुद्रैर्दक्षिणतो रोचयतु त्रैष्टुभेन छन्दसेत्याह। इन्द्र एवैन रुद्रै र्दक्षिणतो रोचयति त्रैष्टुभेन छन्दसा। स मा रुचितो रोचयेत्याह। आशिष मेवैता माशास्ते। वरुणस्त्वा दित्यै पश्चा द्रोचयतु जागतेन छन्दसेत्याह। वरुण एवैन मादित्यै पश्चा द्रोचयति जागतेन छन्दसा।। । 43।।  स मा रुचितो रोचयेत्याह। आशिष मेवैता माशास्ते। द्युतानस्त्वा मरुतो मरुद्भि रुत्तरतो रोचय त्वानुष्टुभेन छन्दसेत्याह। द्युतान एवैनं मारुतो मरुद्भि रुत्तरतो रोचय त्यानुष्टुभेन छन्दसा। स मा रुचितो रोचयेत्याह। आशिष मेवैता माशास्ते। बृहस्पतिस्त्वा विश्वै र्देवै रुपरिष्टा द्रोचयतु पाङ्क्तेन छन्दसेत्याह। बृहस्पति रेवैनँ विश्वै र्देवै रुपरिष्टा द्रोचयति पाङ्क्तेन छन्दसा। स मा रुचितो रोचयेत्याह। आशिष मेवैता माशास्ते।। 44।।  रोचित स्त्वन्देव घर्म देवेष्वसीत्याह। रोचितो ह्येष देवेषु। रोचिषीयाहं मनुष्येष्वित्याह। रोचत एवैष मनुष्येषु। सम्राड्घर्म रुचितस्त्व न्देवेष्वायुष्मा स्तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यसीत्याह। रुचितो ह्येष देवेष्वायुष्मा स्तेजस्वी ब्रह्मवर्चसी। रुचितोहं मनुष्येष्वायुष्मा स्तेजस्वी ब्रह्मवर्चसी भूयासमित्याह। रुचित एवैष मनुष्येष्वायुष्मा स्तेजस्वी ब्रह्मवर्चसी भवति। रुगसि रुचं मयि धेहि मयि रुगित्याह। आशिष मेवैतामाशास्ते। तँ यदेतै र्यजुर्भि ररोचयित्वा।  रुचितो घर्म - इति प्रब्रूयात्। अरोचुकोध्वर्यु स्स्यात्। अरोचुको यजमानः। अथ यदेन मेतै र्यजुर्भी रोचयित्वा। रुचितो घर्म इति प्राह। रोचुकोध्वर्यु र्भवति। रोचुको यजमानः।। 45।। (पश्चाद्रोचयति जागतेन छन्दसा स मा रुचितो रोचयेत्याहा शिष मेवैता माशास्ते शास्तेष्टौ च। 5।)   शिरो वा एतद्यज्ञस्य। यत्प्रवर्ग्यः। ग्रीवा उपसदः। पुरस्ता दुपसदां प्रवर्ग्यं प्र वृणक्ति। ग्रीवास्वेव यज्ञस्य शिर प्रति दधाति। त्रि प्र वृणक्ति। त्रय इमे लोकाः। एभ्य एव लोकेभ्यो यज्ञस्य शिरोव रुन्धे। षट्थ्सं पद्यन्ते। षड्वा ऋतवः।। 46।।  ऋतुभ्य एव यज्ञस्य शिरोव रुन्धे। द्वादशकृत्व प्र वृणक्ति। द्वादश मासा स्सँवथ्सरः। सँवथ्सरादेव यज्ञस्य शिरोव रुन्धे। चतुर्विशति स्सं पद्यन्ते। चतुर्विशति रर्धमासाः। अर्धमासेभ्य एव यज्ञस्य शिरोव रुन्धे। अथो खलु। सकृदेव प्रवृज्यः। एक हि शिरः।। 47।।  अग्निष्टोमे प्र वृणक्ति। एतावान् वै यज्ञः। यावा नग्निष्टोमः। यावानेव यज्ञः। तस्य शिर प्रति दधाति। नोक्थ्ये प्र वृञ्ज्यात्। प्रजा वै पशव उक्थानि। यदुक्थ्ये प्रवृञ्ज्यात्। प्रजां पशूनस्य निर्दहेत्। विश्वजिति सर्वपृष्ठे प्र वृणक्ति।। 48।।  पृष्ठानि वा अच्युत ञ्च्यावयन्ति। पृष्ठै रेवास्मा अच्युत ञ्च्यावयित्वाव रुन्धे। अपश्य ङ्गोपामित्याह। प्राणो वै गोपाः। प्राणमेव प्रजासु वि यातयति। अपश्य ङ्गोपा मित्याह। असौ वा आदित्यो गोपाः। स हीमा प्रजा गोपायति। तमेव प्रजाना ङ्गोप्तार ङ्कुरुते। अनिपद्यमान मित्याह।। 49।।  न ह्येष निपद्यते। आ च परा च पथिभि श्चरन्त मित्याह। आ च ह्येष परा च पथिभि श्चरति। स सद्ध्रीची स्सविषूची र्वसान इत्याह। सद्ध्रीचीश्च ह्येष विषूचीश्च वसान प्रजा अभि विपश्यति। आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्त रित्याह। आ ह्येष वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः। अत्र प्रावी र्मधु माध्वीभ्यां मधु माधूचीभ्या मित्याह। वासन्तिका वेवास्मा ऋतू कल्पयति। समग्नि रग्निना गतेत्याह।। 50।।  ग्रैष्मा वेवास्मा ऋतू कल्पयति। समग्नि रग्निना गतेत्याह। अग्निर्ह्येवैषोग्निना सङ्गच्छते। स्वाहा समग्नि स्तपसा गतेत्याह। पूर्वमेवोदितम्। उत्तरेणाभि गृणाति। धर्ता दिवो विभासि रजस पृथिव्या इत्याह। वार्‌षिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। हृदे त्वा मनसे त्वेत्याह। शारदा वेवास्मा ऋतू कल्पयति।। 51।।  दिवि देवेषु होत्रा यच्छेत्याह। होत्राभि रेवेमा न्लोका न्थ्सदधाति। विश्वासां भुवां पत इत्याह। हैमन्तिका वेवास्मा ऋतू कल्पयति। देवश्रू स्त्व न्देव घर्म देवा न्पाहीत्याह। शैशिरावेवास्मा ऋतू कल्पयति। तपोजाँ वाच मस्मे नियच्छ देवायुव मित्याह। या वै मेध्या वाक्। सा तपोजाः। तामेवाव रुन्धे।। 52।।  गर्भो देवाना मित्याह। गर्भो ह्येष देवानाम्। पिता मतीना मित्याह। प्रजा वै मतयः। तासामेष एव पिता। यत्प्रवर्ग्यः। तस्मा देवमाह। पति प्रजाना मित्याह। पति र्ह्येष प्रजानाम्। मति कवीना मित्याह।। 53।।  मति र्ह्येष कवीनाम्। सन्देवो देवेन सवित्रा यतिष्ट स सूर्येणारुक्तेत्याह। अमुञ्चैवादित्यं प्रवर्ग्यञ्च सशास्ति। आयुर्दास्त्व मस्मभ्य ङ्घर्म वर्चोदा असीत्याह। आशिष मेवैता माशास्ते। पिता नोसि पिता नो बोधेत्याह। बोधय त्येवैनम्। नवैतेवकाशा भवन्ति। पत्नियै दशमः। नव वै पुरुषे प्राणाः।। 54।।  नाभि र्दशमी। प्राणानेव यजमाने दधाति। अथो दशाक्षरा विराट्। अन्नँ विराट्। विराजैवान्नाद्य मव रुन्धे। यज्ञस्य शिरोच्छिद्यत। तद्देवा होत्राभि प्रत्यदधुः। ऋत्विजो वेक्षन्ते। एता वै होत्राः। होत्राभिरेव यज्ञस्य शिर प्रति दधाति।। 55।।  रुचित मवेक्षन्ते। रुचिताद्वै प्रजापति प्रजा असृजत। प्रजाना सृष्ट्यै। रुचित मवेक्षन्ते। रुचिताद्वै पर्जन्यो वर्‌षति। वर्‌षुक पर्जन्यो भवति। सं प्रजा एधन्ते। रुचित मवेक्षन्ते। रुचितँ वै ब्रह्मवर्चसम्। ब्रह्मवर्चसिनो भवन्ति।। 56।।  अधीयन्तोवेक्षन्ते। सर्वमायु र्यन्ति। न पत्न्यवेक्षेत। यत्पत्न्यवेक्षेत। प्र जायेत। प्रजा न्त्वस्यै निर्दहेत्। यन्नावेक्षेत। न प्रजायेत। नास्यै प्रजा न्निर्दहेत्। तिरस्कृत्य यजु र्वाचयति। प्र जायते। नास्यै प्रजा न्निर्दहति। त्वष्टीमती ते सपेयेत्याह। सपाद्धि प्रजा प्रजायन्ते।। 57।। (ऋतवो हि शिर स्सर्वपृष्ठे प्र वृणक्त्यनिपद्यमान मित्याह गतेत्याह शारदावेवास्मा ऋतू कल्पयति रुन्धे कवीना मित्याह प्राणा प्रति दधाति भवन्ति वाचयति चत्वारि च। 6।)   देवस्य त्वा सवितु प्रसव इति रशना मा दत्ते प्रसूत्यै। अश्विनो र्बाहुभ्या मित्याह। अश्विनौ हि देवाना मध्वर्यू आस्ताम्। पूष्णो हस्ताभ्या मित्याह यत्यै। आददेदित्यै रास्नासीत्याह यजुष्कृत्यै। इड एह्यदित एहि सरस्वत्येहीत्याह। एतानि वा अस्यै देवनामानि। देवनामै रेवैना मा ह्वयति। असा वे.ह्यसा वे.ह्यसा वेहीत्याह। एतानि वा अस्यै मनुष्यनामानि।। 58।।  मनुष्यनामै रेवैना मा ह्वयति। षट्थ्सं पद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभि रेवैना माह्वयति। अदित्या उष्णीष मसीत्याह। यथायजु रेवैतत्। वायुरस्यैड इत्याह। वायुदेवत्यो वै वथ्सः। पूषा त्वोपावसृज त्वित्याह। पौष्णा वै देवतया पशवः।। 59।।  स्वयैवैन न्देवतयोपावसृजति। अश्विभ्यां प्रदापयेत्याह। अश्विनौ वै देवानां भिषजौ। ताभ्या मेवास्मै भेषज ङ्करोति। यस्ते स्तन श्शशय इत्याह। स्तौत्येवैनाम्। उस्र घर्म शिषोस्र घर्मं पाहि घर्माय शिषेत्याह। यथा ब्रूया दमुष्मै देहीति। तादृगेव तत्। बृहस्पति स्त्वोपसीद त्वित्याह।। 60।।  ब्रह्म वै देवानां बृहस्पतिः। ब्रह्मणैवैना मुप सीदति। दानवस्स्थ पेरव इत्याह। मेध्या नेवैना न्करोति। विष्वग्वृतो लोहितेनेत्याह व्यावृत्त्यै। अश्विभ्यां पिन्वस्व सरस्वत्यै पिन्वस्व पूष्णे पिन्वस्व बृहस्पतये पिन्वस्वेत्याह। एताभ्यो ह्येषा देवताभ्य पिन्वते। इन्द्राय पिन्वस्वेन्द्राय पिन्वस्वेत्याह। इन्द्रमेव भागधेयेन समर्धयति। द्विरिन्द्रायेत्याह।। 61।।  तस्मादिन्द्रो देवतानां भूयिष्ठभाक्तमः। गायत्रोसि त्रैष्टुभोसि जागतमसीति शफोपयमा नादत्ते। छन्दोभि रेवैना नादत्ते। सहोर्जो भागेनोपमेहीत्याह। ऊर्ज एवैनं भाग मकः। अश्विनौ वा एतद्यज्ञस्य शिर प्रतिदधता वब्रूताम्। आवाभ्यामेव पूर्वाभ्याँ वषट्क्रियाता इति। इन्द्राश्विना मधुन स्सारघस्येत्याह। अश्विभ्या मेव पूर्वाभ्याँ वषट्करोति। अथो अश्विनावेव भागधेयेन समर्धयति।। 62।।  घर्मं पात वसवो यजता वडित्याह। वसूनेव भागधेयेन समर्धयति। यद्वषट्कुर्यात्। यातयामास्य वषट्कारस्स्यात्। यन्न वषट्कुर्यात्। रक्षासि यज्ञ हन्युः। वडित्याह। परोक्षमेव वषट्करोति। नास्य यातयामा वषट्कारो भवति। न यज्ञ रक्षासि घ्नन्ति।। 63।।  स्वाहा त्वा सूर्यस्य रश्मये वृष्टिवनये जुहोमीत्याह। यो वा अस्य पुण्यो रश्मिः। स वृष्टिवनिः। तस्मा एवैन ञ्जुहोति। मधु हविरसीत्याह। स्वदयत्येवैनम्। सूर्यस्य तप स्तपेत्याह। यथायजु रेवैतत्। द्यावापृथिवीभ्यान्त्वा परि गृह्णामीत्याह। द्यावापृथिवीभ्या मेवैनं परि गृह्णाति।। 64।।  अन्तरिक्षेण त्वोप यच्छा मीत्याह। अन्तरिक्षेणैवैन मुप यच्छति। न वा एतं मनुष्यो भर्तु मर्‌हति। देवानान्त्वा पितृणा मनुमतो भर्तु शकेय मित्याह। देवैरेवैनं पितृभि रनुमत आदत्ते। वि वा एन मेत दर्धयन्ति। यत्पश्चात्प्रवृज्य पुरो जुह्वति। तेजोसि तेजोनु प्रेहीत्याह। तेज एवास्मि न्दधाति। दिविस्पृङ्मा मा हिसी रन्तरिक्षस्पृङ्मा मा हिसी पृथिविस्पृङ्मा मा हिसी रित्याहाहिसायै।। 65।।  सुवरसि सुवर्मे यच्छ दिवँ यच्छ दिवो मा पाहीत्याह। आशिष मेवैता माशास्ते। शिरो वा एतद्यज्ञस्य। यत्प्रवर्ग्यः। आत्मा वायुः। उद्यत्य वातनामान्याह। आत्मन्नेव यज्ञस्य शिर प्रति दधाति। अनवानम्। प्राणाना सन्तत्यै। पञ्चाह।। 66।।  पाङ्क्तो यज्ञः। यावानेव यज्ञः। तस्य शिर प्रति दधाति। अग्नये त्वा वसुमते स्वाहेत्याह। असौ वा आदित्योग्नि र्वसुमान्। तस्मा एवैन ञ्जुहोति। सोमाय त्वा रुद्रवते स्वाहेत्याह। चन्द्रमा वै सोमो रुद्रवान्। तस्मा एवैन ञ्जुहोति। वरुणाय त्वादित्यवते स्वाहेत्याह।। 67।।  अप्सु वै वरुण आदित्यवान्। तस्मा एवैन ञ्जुहोति। बृहस्पतये त्वा विश्वदेव्यावते स्वाहेत्याह। ब्रह्म वै देवानां बृहस्पतिः। ब्रह्मण एवैन ञ्जुहोति। सवित्रे त्वर्भुमते विभुमते प्रभुमते वाजवते स्वाहेत्याह। सँवथ्सरो वै सवितर्भुमान् विभुमा न्प्रभुमान् वाजवान्। तस्मा एवैन ञ्जुहोति। यमाय त्वाङ्गिरस्वते पितृमते स्वाहेत्याह। प्राणो वै यमोङ्गिरस्वा न्पितृमान्।। 68।।  तस्मा एवैन ञ्जुहोति। एताभ्य एवैन न्देवताभ्यो जुहोति। दश सं पद्यन्ते। दशाक्षरा विराट्। अन्नँ विराट्। विराजैवान्नाद्य मवरुन्धे। रौहिणाभ्याँ वै देवा स्सुवर्गँ लोक मायन्न्। तद्रौहिणयो रौहिणत्वम्। यद्रौहिणौ भवतः। रौहिणाभ्यामेव तद्यजमान स्सुवर्गँ लोकमेति। अहर्जोति केतुना जुषता सुज्योति र्ज्योतिषा स्वाहा रात्रि र्ज्योति केतुना जुषता सुज्योति र्ज्योतिषा स्वाहेत्याह। आदित्यमेव तदमुष्मि न्लोकेह्ना परस्ता द्दाधार। रात्रिया अवस्तात्। तस्मा दसावादित्योमुष्मि न्लोके होरात्राभ्या न्धृतः।। 69।।(मनुष्यनामानि पशव स्सीद त्वित्याहेन्द्रायेत्या. हार्धयति घ्नन्ति गृह्णात्यहिसायै पञ्चाहादित्यवते स्वाहेत्याह पितृमानेति चत्वारि च। 7।)   विश्वा आशा दक्षिणसदित्याह। विश्वानेव देवा न्प्रीणाति। अथो दुरिष्ट्या एवैनं पाति। विश्वा न्देवा नयाडिहेत्याह। विश्वानेव देवा न्भागधेयेन समर्धयति। स्वाहाकृतस्य घर्मस्य मधो पिबत मश्विनेत्याह। अश्विना वेव भागधेयेन समर्धयति। स्वाहाग्नये यज्ञियाय शँ यजुर्भि रित्याह। अभ्येवैन ङ्घारयति। अथो हविरेवाकः।। 70।।  अश्विना घर्मं पात हार्दिवान महर्दिवाभि रूतिभि रित्याह। अश्विना वेव भागधेयेन समर्धयति। अनु वान्द्यावापृथिवी मसाता मित्याहानुमत्यै। स्वाहेन्द्राय स्वाहेन्द्रा वडित्याह। इन्द्राय हि पुरो हूयते। आश्राव्याह-  घर्मस्य यजे-ति। वषट्कृते जुहोति। रक्षसा मपहत्यै। अनु यजति स्वगाकृत्यै। घर्म मपात मश्विनेत्याह।। 71।।  पूर्वमेवोदितम्। उत्तरेणाभि गृणाति। अनु वा न्द्यावापृथिवी अमसाता मित्याहानुमत्यै। तं प्राव्यँ यथावण्णमो दिवे नम पृथिव्या इत्याह। यथायजु रेवैतत्। दिविधा इमँ यज्ञँ यज्ञ मिम न्दिविधा इत्याह। सुवर्ग मेवैनँ लोक ङ्गमयति। दिव ङ्गच्छान्तरिक्ष ङ्गच्छ पृथिवी ङ्गच्छेत्याह। एष्वेवैनँ लोकेषु प्रतिष्ठापयति। पञ्च प्रदिशो गच्छेत्याह।। 72।।  दिक्ष्वेवैनं प्रतिष्ठापयति। देवा न्घर्मपा न्गच्छ पितॄ न्घर्मपा न्गच्छेत्याह। उभयेष्वेवैनं प्रतिष्ठापयति। यत्पिन्वते। वर्‌षुक पर्जन्यो भवति। तस्मा त्पिन्वमान पुण्यः। यत्प्राङ्पिन्वते। तद्देवानाम्। यद्दक्षिणा। तत्पितृणाम्।। 73।।  यत्प्रत्यक्। तन्मनुष्याणाम्। यदुदङ्ङ्। तद्रुद्राणाम्। प्राञ्च मुदञ्चं पिन्वयति। देवत्राकः। अथो खलु। सर्वा अनु दिश पिन्वयति। सर्वा दिश स्समेधन्ते। अन्तपरिधि पिन्वयति।। 74।।  तेजसोस्कन्दाय। इषे पीपिह्यूर्जे पीपिहीत्याह। इषमेवोर्जँ यजमाने दधाति। यजमानाय पीपिहीत्याह। यजमानायैवैता माशिषमा शास्ते। मह्य ञ्ज्यैष्ठ्याय पीपिहीत्याह। आत्मन एवैता माशिष माशास्ते। त्विष्यै त्वा द्युम्नाय त्वेन्द्रियाय त्वा भूत्यै त्वेत्याह। यथायजु रेवैतत्। धर्मासि सुधर्मा मे न्यस्मे ब्रह्माणि धारयेत्याह।। 75।।  ब्रह्मन्नेवैनं प्रतिष्ठापयति। नेत्त्वा वात स्स्कन्दयादिति यद्यभिचरेत्। अमुष्य त्वा प्राणे सादयाम्यमुना सह निरर्थ ङ्गच्छेति ब्रूया द्यन्द्विष्यात्। यमेव द्वेष्टि। तेनैन सह निरर्थ ङ्गमयति। पूष्णे शरसे स्वाहेत्याह। या एव देवता हुतभागाः। ताभ्य एवैन ञ्जुहोति। ग्रावभ्य स्स्वाहेत्याह। या एवान्तरिक्षे वाचः।। 76।।  ताभ्य एवैन ञ्जुहोति। प्रतिरेभ्य स्स्वाहेत्याह। प्राणा वै देवा प्रतिराः। तेभ्य एवैन ञ्जुहोति। द्यावापृथिवीभ्या स्वाहेत्याह। द्यावापृथिवीभ्या मेवैन ञ्जुहोति। पितृभ्यो घर्मपेभ्य स्स्वाहेत्याह। ये वै यज्वानः। ते पितरो घर्मपाः। तेभ्य एवैन ञ्जुहोति।। 77।।  रुद्राय रुद्रहोत्रे स्वाहेत्याह। रुद्रमेव भागधेयेन समर्धयति। सर्वत स्समनक्ति। सर्वत एव रुद्र न्निरवदयते। उदञ्च न्निरस्यति। एषा वै रुद्रस्य दिक्। स्वायामेव दिशि रुद्र न्निरवदयते। अप उप स्पृशति मेध्यत्वाय। नान्वीक्षेत। यदन्वीक्षेत।। 78।।  चक्षुरस्य प्रमायुक स्यात्। तस्मा न्नान्वीक्ष्यः। अपीपरो माह्नो रात्रियै मा पाह्येषा ते अग्ने समित्तया समिध्यस्वायुर्मे दा वर्चसा माञ्जी रित्याह। आयु रेवास्मिन्वर्चो दधाति। अपीपरो मा रात्रिया अह्नो मा पाह्येषा ते अग्ने समित्तया समिध्यस्वायुर्मे दा वर्चसा माञ्जीरित्याह। आयु रेवास्मिन्वर्चो दधाति। अग्नि र्ज्योति र्ज्योति रग्नि स्स्वाहा सूर्यो ज्योति र्ज्योति स्सूर्य स्स्वाहेत्याह। यथायजु रेवैतत्। ब्रह्मवादिनो वदन्ति। होतव्य मग्निहोत्राँ ‘3‘ न होतव्या ‘3‘ मिति।। 79।।  यद्यजुषा जुहुयात्। अयथापूर्व माहुती जुहुयात्। यन्न जुहुयात्। अग्नि परा भवेत्। भूस्स्वाहेत्येव होतव्यम्। यथापूर्व माहुती जुहोति। नाग्नि पराभवति। हुत हवि र्मधु हविरित्याह। स्वदय त्येवैनम्। इन्द्रतमेग्ना वित्याह।। 80।।  प्राणो वा इन्द्रतमोग्निः। प्राण एवैन मिन्द्रतमेग्नौ जुहोति। पिता नोसि मा मा हिसी रित्याहाहिसायै। अश्याम ते देवघर्म मधुमतो वाजवत पितुमत इत्याह। आशिष मेवैता माशास्ते। स्वधाविनोशीमहि त्वा मा मा हिसी रित्याहाहिसायै। तेजसा वा एते व्यृध्यन्ते। ये प्रवर्ग्येण चरन्ति। प्राश्ञ्चन्ति। तेज एवात्म न्दधते।। 81।।  सँवथ्सरन्न मास मश्ञ्चीयात्। न रामा मुपेयात्। न मृन्मयेन पिबेत्। नास्य राम उच्छिष्टं पिबेत्। तेज एव तथ्सश्यति। देवासुरा स्सँयत्ता आसन्न्। ते देवा विजय मुपयन्तः। विभ्राजि सौर्ये ब्रह्म सन्न्यदधत। यत्किञ्च दिवाकीर्त्यम्। तदेते नैव व्रतेनागोपायत्। तस्मा देतद्र्वत ञ्चार्यम्। तेजसो गोपीथाय। तस्मा देतानि यजूषि विभ्राज स्सौर्यस्येत्याहुः। स्वाहा त्वा सूर्यस्य रश्मिभ्य इति प्रात स्स सादयति। स्वाहा त्वा नक्षत्रेभ्य इति सायम्। एता वा एतस्य देवताः। ताभिरेवैन समर्धयति।। 82।। (अक रश्विनेत्याह प्रदिशो गच्छेत्याह पितृणा मन्तपरिधि पिन्वयति धारयेत्याह वाचो घर्मपा स्तेभ्य एवैन ञ्जुहोत्यन्वीक्षेत होतव्या ‘3’ मित्यग्ना वित्याह दधते गोपाय थ्सप्त च। 8।)   घर्म या ते दिवि शुगिति तिस्र आहुती र्जुहोति। छन्दोभि रेवास्यैभ्यो लोकेभ्य श्शुच मव यजते। इयत्यग्रे जुहोति। अथेयत्यथेयति। त्रय इमे लोकाः। एभ्य एव लोकेभ्य श्शुच मव यजते। अनुनो द्यानुमति रित्याहानुमत्यै। दिवस्त्वा परस्पाया इत्याह। दिव एवेमा न्लोका न्दाधार। ब्रह्मणस्त्वा परस्पाया इत्याह।। 83।।  एष्वेव लोकेषु प्रजा दाधार। प्राणस्य त्वा परस्पाया इत्याह। प्रजास्वेव प्राणा न्दाधार। शिरो वा एतद्यज्ञस्य। यत्प्रवर्ग्यः। असौ खलु वा आदित्य प्रवर्ग्यः। तँ यद्दक्षिणा प्रत्यञ्च मुदञ्च मुद्वासयेत्। जिह्मँ यज्ञस्य शिरो हरेत्। प्राञ्च मुद्वासयति। पुरस्तादेव यज्ञस्य शिर प्रति दधाति।। 84।।  प्राञ्च मुद्वासयति। तस्मा दसावादित्य पुरस्ता दुदेति। शफोपयमा न्धवित्राणि धृष्टी इत्यन्ववहरन्ति। सात्मान मेवैन सतनु ङ्करोति। सात्मा मुष्मि न्लोके भवति। य एवँ वेद। औदुम्बराणि भवन्ति। ऊर्ग्वा उदुम्बरः। ऊर्ज मेवाव रुन्धे। वर्त्मना वा अन्वित्य।। 85।।  यज्ञ रक्षासि जिघासन्ति। साम्ना प्रस्तोता न्ववैति। साम वै रक्षोहा। रक्षसा मपहत्यै। त्रिर्निधन मुपैति। त्रय इमे लोकाः। एभ्य एव लोकेभ्यो रक्षास्यप हन्ति। पुरुषपुरुषो निधन मुपैति। पुरुषपुरुषो हि रक्षस्वी। रक्षसा मपहत्यै।। 86।।  यत्पृथिव्या मुद्वासयेत्। पृथिवी शुचार्पयेत्। यदफ्सु। अप श्शुचार्पयेत्। यदोषधीषु। ओषधी श्शुचार्पयेत्। यद्वनस्पतिषु। वनस्पती न्छुचार्पयेत्। हिरण्य न्निधायोद्वासयति। अमृतँ वै हिरण्यम्।। 87।।  अमृत एवैनं प्रतिष्ठापयति। वल्गुरसि शँयुधाया इति त्रि परिषिञ्च न्पर्येति। त्रिवृद्वा अग्निः। यावा नेवाग्निः। तस्य शुच शमयति। त्रि पुन पर्येति। षट्‌थ्सं पद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभि रेवास्य शुच शमयति। चतुस्स्रक्ति र्नाभिर्‌ ऋतस्येत्याह।। 88।।  इयँ वा ऋतम्। तस्या एष एव नाभिः। यत्प्रवर्ग्यः। तस्मा देवमाह। सदो विश्वायु रित्याह। सदो हीयम्। अप द्वेषो अप ह्वर इत्याह भ्रातृव्यापनुत्यै। घर्मैतत्तेन्न मेतत्पुरीष मिति दध्ना मधुमिश्रेण पूरयति। ऊर्ग्वा अन्नाद्य न्दधि। ऊर्जैवैन मन्नाद्येन समर्धयति।। 89।।  अनशनायुको भवति। य एवँ वेद। रन्ति र्नामासि दिव्यो गन्धर्व इत्याह। रूप मेवास्यैत न्महिमान रन्तिं बन्धुताँ व्याचष्टे। समह मायुषा सं प्राणेनेत्याह। आशिष मेवैता माशास्ते। व्यसौ योस्मा न्द्वेष्टि यञ्च वय न्द्विष्म इत्याह। अभिचार एवास्यैषः। अचिक्रद द्वृषा हरि रित्याह। वृषा ह्येषः।। 90।।  वृषा हरिः। महा न्मित्रो न दर्‌शत इत्याह। स्तौत्येवैन मेतत्। चिदसि समुद्रयोनि रित्याह। स्वामेवैनँ योनिङ्गमयति। नमस्ते अस्तु मा मा हिसी रित्याहाहिसायै। विश्वावसु सोमगन्धर्व मित्याह। यदेवास्य क्रियमाणस्यान्तर्यन्ति। तदेवास्यैतेना प्याययति। विश्वावसु रभितन्नो गृणात्वित्याह।। 91।।  पूर्वमेवोदितम्। उत्तरेणाभि गृणाति। धियो हिन्वानो धिय इन्नो अव्यादित्याह। ऋतू नेवास्मै कल्पयति। प्रासा ङ्गन्धर्वो अमृतानि वोचदित्याह। प्राणा वा अमृताः। प्राणा नेवास्मै कल्पयति। एतत्त्व न्देव घर्म देवो देवा नुपागा इत्याह। देवो ह्येष सन्देवा नुपैति। इद महं मनुष्यो मनुष्यानित्याह।। 92।।  मनुष्यो हि। एष सन्मनुष्या नुपैति। ईश्वरो वै प्रवर्ग्य मुद्वासयन्न्। प्रजां पशू न्थ्सोमपीथ मनूद्वास स्सोमपीथानु मेहि। सह प्रजया सह राय स्पोषेणेत्याह। प्रजामेव पशून्थ्सोमपीथ मात्म न्धत्ते। सुमित्रा न आप ओषधय स्सन्त्वित्याह। आशिष मेवैता माशास्ते। दुर्मित्रा स्तस्मै भूयासु र्योस्मा न्द्वेष्टि यँ च वय न्द्विष्म इत्याह। अभिचार एवास्यैषः। प्र वा एषोस्माल्लोका च्च्यवते। य प्रवर्ग्य मुद्वासयति। उदुत्य ञ्चित्रमिति सौरीभ्या मृग्भ्यां पुनरेत्य गार्‌हपत्ये जुहोति। अयँ वै लोको गार्‌हपत्यः। अस्मिन्नेव लोके प्रतितिष्ठति। असौ खलु वा आदित्य स्सुवर्गो लोकः। यथ्सौरी भवतः। तेनैव सुवर्गा ल्लोकान्नैति।। 93।। (ब्रह्मणस्त्वा परस्पाया इत्याह दधात्यन्वित्य रक्षस्वी रक्षसा मपहत्यै वै हिरण्य माहार्धयति ह्येष गृणा त्वित्याह मनुष्या नित्याहास्यैषोष्टौ च। 9।)   प्रजापतिँ वै देवा श्शुक्रं पयोदुह्रन्न्। तदेभ्यो न व्यभवत्। तदग्नि र्व्यकरोत्। तानि शुक्रियाणि सामान्यभवन्न्। तेषाँ यो रसोत्यक्षरत्। तानि शुक्रयजूष्यभवन्न्। शुक्रियाणाँ वा एतानि शुक्रियाणि। सामपयसँ वा एतयो रन्यत्। देवाना मन्यत्पयः। यद्गो पयः।। 94।।  तत्साम्न पयः। यदजायै पयः। तद्देवानां पयः। तस्माद्यत्रै र्यजुर्भि श्चरन्ति। तत्पयसा चरन्ति। प्रजापति मेव तद्देवा न्पयसा न्नाद्येन समर्धयन्ति। एष हत्वै साक्षात्प्रवर्ग्यं भक्षयति। यस्यैवँविदुष प्रवर्ग्य प्रवृज्यते। उत्तरवेद्या मुद्वसाये त्तेजस्कामस्य। तेजो वा उत्तरवेदिः।। 95।।  तेज प्रवर्ग्यः। तेजसैव तेज स्समर्धयति। उत्तरवेद्या मुद्वासये दन्नकामस्य। शिरो वा एतद्यज्ञस्य। यत्प्रवर्ग्यः। मुख मुत्तरवेदिः। शीर्ष्णैव मुख सन्दधात्यन्नाद्याय। अन्नाद एव भवति। यत्र खलु वा एतमुद्वासितँ वयासि पर्यासते। परि वै ता समां प्रजा वयास्यासते।। 96।।  तस्मा दुत्तरवेद्या मेवोद्वासयेत्। प्रजाना ङ्गोपीथाय। पुरो वा पश्चा द्वोद्वासयेत्। पुरस्ताद्वा एतज्ज्योति रुदेति। तत्पश्चा न्निम्रोचति। स्वामेवैनँ योनि मनूद्वासयति। अपां मध्य उद्वासयेत्। अपाँ वा एतन्मध्या ज्ज्योति रजायत। ज्योति प्रवर्ग्यः। स्व एवैनँ योनौ प्रतिष्ठापयति।। 97।।  यन्द्विष्यात्। यत्र स स्यात्। तस्या न्दिश्युद्वासयेत्। एष वा अग्नि र्वैश्वानरः। यत्प्रवर्ग्यः। अग्निनैवैनँ वैश्वानरेणाभि प्र वर्तयति। औदुम्बर्या शाखाया मुद्वासयेत्। ऊर्ग्वा उदुम्बरः। अन्नं प्राणः। शुग्घर्मः।। 98।।   इदमह ममुष्या मुष्यायणस्य शुचा प्राण मपि दहामी- त्याह। शुचैवास्य प्राण मपि दहति। ताजगार्ति मार्छति। यत्र दर्भा उपदीकसन्ततास्स्युः। तदुद्वासये द्वृष्टिकामस्य। एता वा अपा मनूज्झावर्यो नाम। यद्दर्भाः। असौ खलु वा आदित्य इतो वृष्टि मुदीरयति। असा वेवास्मा आदित्यो वृष्टि न्नि यच्छति। ता आपो नियता धन्वना यन्ति।। 99।। (गो पय उत्तरवेदिरासते स्थापयति घर्मो यन्ति। 10।)   प्रजापति स्सम्भ्रियमाणः। सम्राट्‌थ्सम्भृतः। घर्म प्रवृक्तः। महावीर उद्वासितः। असौ खलु वावैष आदित्यः। यत्प्रवर्ग्यः। स एतानि नामान्यकुरुत। य एवँ वेद। विदुरेन न्नाम्ना। ब्रह्मवादिनो वदन्ति।। 100।।  यो वै वसीयासँ यथानाम मुपचरति। पुण्यार्तिँ वै स तस्मै कामयते। पुण्यार्तिमस्मै कामयन्ते। य एवँ वेद। तस्मादेवँ विद्वान्। घर्म इति दिवाचक्षीत। सम्राडिति नक्तम्। एते वा एतस्य प्रिये तनुवौ। एते अस्य प्रिये नामनी। प्रिययैवैन न्तनुवा।। 101।।  प्रियेण नाम्ना समर्धयति। कीर्तिरस्य पूर्वा गच्छति जनता मायतः। गायत्री देवेभ्योपाक्रामत्। तान्देवा प्रवर्ग्येणैवानु व्यभवन्न्। प्रवर्ग्येणाप्नुवन्न्। यच्चतुर्विशतिकृत्व प्रवर्ग्यं प्रवृणक्ति। गायत्रीमेव तदनु विभवति। गायत्री माप्नोति। पूर्वास्य जनँ यत कीर्ति र्गच्छति। वैश्वदेव स्ससन्नः।। 102।।  वसव प्रवृक्तः। सोमोभिकीर्यमाणः। आश्विन पयस्यानीयमाने। मारुत क्वथन्न्। पौष्ण उदन्तः। सारस्वतो विष्यन्दमानः। मैत्र श्शरो गृहीतः। तेज उद्यतो वायुः। ह्रियमाण प्रजापतिः। हूयमानो वाग्घुतः।। 103।।  असौ खलु वावैष आदित्यः। यत्प्रवर्ग्यः। स एतानि नामान्यकुरुत। य एवँ वेद। विदु रेन न्नाम्ना। ब्रह्मवादिनो वदन्ति। यन्मृन्मय माहुति न्नाश्च्ञुतेथ। कस्मा देषोश्च्ञुत इति। वागेष इति ब्रूयात्। वाच्येव वाच न्दधाति।। 104।।  तस्मादश्च्ञुते। प्रजापति र्वा एष द्वादशधा विहितः। यत्प्रवर्ग्यः। यत्प्रागवकाशेभ्यः। तेन प्रजा असृजत। अवकाशै र्देवासुरा नसृजत। यदूर्ध्व मवकाशेभ्यः। तेनान्न मसृजत। अन्नं प्रजापतिः। प्रजापति र्वावैषः।। 105।। (वदन्ति तनुवा ससन्नो हूयमानो वाग्घुतो दधात्येषः। 11।)   सविता भूत्वा प्रथमेह न्प्रवृज्यते। तेन कामा एति। यद्द्वितीयेह न्प्रवृज्यते। अग्नि र्भूत्वा देवानेति। यत्तृतीयेह न्प्रवृज्यते। वायु र्भूत्वा प्राणानेति। यच्चतुर्थेह न्प्रवृज्यते। आदित्यो भूत्वा रश्मीनेति। यत्पञ्चमेह न्प्रवृज्यते। चन्द्रमा भूत्वा नक्षत्राण्येति।। 106।।  यत्षष्ठेह न्प्रवृज्यते। ऋतु र्भूत्वा सँवथ्सर मेति। यथ्सप्तमेह न्प्रवृज्यते। धाता भूत्वा शक्वरीमेति। यदष्टमेह न्प्रवृज्यते। बृहस्पति र्भूत्वा गायत्रीमेति। यन्नवमेह न्प्रवृज्यते। मित्रो भूत्वा त्रिवृत इमा न्लोकानेति। यद्दशमेह न्प्रवृज्यते। वरुणो भूत्वा विराजमेति।। 107।।  यदेकादशेह न्प्रवृज्यते। इन्द्रो भूत्वा त्रिष्टुभमेति। यद्द्वादशेह न्प्रवृज्यते। सोमो भूत्वा सुत्यामेति। यत्पुरस्ता दुपसदां प्रवृज्यते। तस्मादित पराङमू न्लोका स्तपन्नेति। यदुपरिष्टा दुपसदां प्रवृज्यते। तस्मा दमुतोर्वाङिमा न्लोका स्तपन्नेति। य एवँ वेद। ऐव तपति।। 108।। (नक्षत्राण्येति विराजमेति तपति। 12।) (देवा वै सत्र सावित्रं परिश्रिते ब्रह्म न्प्रचरिष्यामोग्निष्ट्वा शिरो ग्रीवा देवस्य रशनाँ विश्वा आशा घर्म या ते प्रजापति शुक्रं प्रजापति स्सम्भ्रियमाण स्सविता भूत्वा द्वादश ।12। देवा वै सत्र स खदिर परिश्रिते भिपूर्व मथो रक्षसां ग्रैष्मा वेवास्मै ब्रह्म वै देवाना मश्विना घर्मं पातं प्राणो वै वृषा हरि र्यो वै वसीयासँ यथानाम मष्टोत्तरशतम्। 108। देवा वै सत्र मैव तपति।) शन्न स्तन्नो मा हासीत्।। ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।। आरण्यके षष्ठ प्रपाठकः प्रा।का।5 पितृमेध मन्त्राः (द्वादशानुवाकाः 11)  ओम्। सन्त्वा सिञ्चामि यजुषा प्रजा मायु र्धनञ्च। ओं शान्ति श्शान्ति श्शान्तिः।।    परेयुवासं प्रवतो महीरनु बहुभ्य पन्था मनपस्पशानम्। वैवस्वत सङ्गमन ञ्जनानाँ यम राजान हविषा दुवस्यत।।  इदन्त्वा वस्त्रं प्रथमन्न्वाग न्नपैतदूह यदिहाबिभ पुरा। इष्टापूर्त मनु सं पश्य दक्षिणाँ यथा ते दत्तं बहुधा विबन्धुषु।।  इमौ युनज्मि ते वह्नी असुनीथाय वोढवे। याभ्याँ यमस्य सादन सुकृता ञ्चापि गच्छतात्।।  पूषा त्वेतश्च्यावयतु प्रविद्वा ननष्टपशु र्भुवनस्य गोपाः। स त्वैतेभ्य परि ददा त्पितृभ्योग्नि र्देवेभ्य स्सुविदत्रेभ्यः।।  पूषेमा आशा अनुवेद सर्वास्सो अस्मा अभयतमेन नेषत्। स्वस्तिदा अघृणि स्सर्ववीरोप्रयुच्छ न्पुर एतु प्रविद्वान्।। 1।।   आयु र्विश्वायु परिपासति त्वा पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात्। यत्रासते सुकृतो यत्र ते ययु स्तत्र त्वा देव स्सविता दधातु।।  भुवनस्य पत इद हविः। अग्नये रयिमते स्वाहा।।  पुरुषस्य सयावर्यपे दघानि मृज्महे। यथा नो अत्र नापर पुरा जरस आयति।।  पुरुषस्य सयावरि वि ते प्राण मसिस्रसम्। शरीरेण मही मिहि स्वधयेहि पितॄ नुप प्रजयास्मा निहावह।।  मैवं मास्ता प्रियेह न्देवी सती पितृलोकँ यदैषि। विश्वावारा नभसा सँव्यय न्त्युभौ नो लोकौ पयसाभ्याववृथ्स्व।। 2।।   इयन्नारी पतिलोकँ वृणाना नि पद्यत उप त्वा मर्त्य प्रेतम्। विश्वं पुराण मनु पालयन्ती तस्यै प्रजा न्द्रविण ञ्चेह धेहि।।  उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोक मितासु मेत मुपशेष एहि। हस्तग्राभस्य दिधिषो स्त्वमेत त्पत्यु र्जनित्व मभि सम्बभूव।।  सुवर्ण हस्ता दाददाना मृतस्य श्रियै ब्रह्मणे तेजसे बलाय। अत्रैव त्व मिह वय सुशेवा विश्वास्पृधो अभिमाती र्जयेम।।  धनुर्‌ हस्ता दाददाना मृतस्य श्रियै क्षत्रायौजसे बलाय। अत्रैव त्वमिह वय सुशेवा विश्वास्पृधो अभिमाती र्जयेम।।  मणि हस्ता दाददाना मृतस्य श्रियै विशे पुष्ट्यै बलाय। अत्रैव त्वमिह वय सुशेवा विश्वास्पृधो अभिमाती र्जयेम।। 3।।   इममग्ने चमसं मा वि जीह्वर प्रियो देवाना मुत सोम्यानाम्। एष यश्चमसो देवपान स्तस्मिन्देवा अमृता मादयन्ताम्।।  अग्नेर्वर्म परिगोभि र्व्ययस्व सं प्रोर्णुष्व मेदसा पीवसा च। नेत्त्वा धृष्णुर्‌ हरसा जर्‌हृषाणो दध द्विधक्ष्य न्पर्यङ्खयातै।।  मैन मग्ने विदहो माभिशोचो मास्य त्वच ञ्चिक्षिपो मा शरीरम्। यदा शृत ङ्करवो जातवेदोथेमेनं प्र हिणुता त्पितृभ्यः।।  शृतँ यदा करसि जातवेदोथेमेनं परि दत्तात्पितृभ्यः। यदा गच्छा त्यसुनीति मेता मथा देवानाँ वशनी र्भवाति।।  सूर्यन्ते चक्षु र्गच्छतु वात मात्मा द्याञ्च गच्छ पृथिवीञ्च धर्मणा। अपो वा गच्छ यदि तत्र ते हित मोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः।।  अजो भाग स्तपसा तन्तपस्व तन्ते शोचि स्तपतु तन्ते अर्चिः। यास्ते शिवा स्तनुवो जातवेद स्ताभि र्वहेम सुकृताँ यत्र लोकाः।।  अयँ वै त्वमस्मादधि त्वमेत दयँ वै तदस्य योनि रसि। वैश्वानर पुत्र पित्रे लोककृ ज्जातवेदो वहेम सुकृताँ यत्र लोकाः।। 4।। (विद्वा नभ्याववृथ्स्वाभिमाती र्जयेम शरीरै श्चत्वारि च। 1।)    य एतस्य पथो गोप्तार स्तेभ्य स्स्वाहा  य एतस्य पथो रक्षितार स्तेभ्य स्स्वाहा  य एतस्य पथोभिरक्षितार स्तेभ्य स्स्वाहा ख्यात्रे स्वाहा पाख्यात्रे स्वाहा भिलालपते स्वाहा पलालपते स्वाहा ग्नये कर्मकृते स्वाहा  यमत्र नाधीम स्तस्मै स्वाहा।।  यस्त इध्म ञ्जभर थ्सिष्विदानो मूर्धानँ वा ततपते त्वाया। दिवो विश्वस्मा त्सीमघायत उरुष्यः।।  अस्मात्त्व मधि जातोसि त्वदय ञ्जायतां पुनः। अग्नये वैश्वानराय सुवर्गाय लोकाय स्वाहा।। 5।। (य एतस्य त्वत्पञ्च। 2)    प्रकेतुना बृहता भात्यग्नि रावि र्विश्वानि वृषभो रोरवीति। दिव श्चिदन्ता दुप मा मुदान डपा मुपस्थे महिषो ववर्ध।।  इदन्त एकं पर ऊत एक न्तृतीयेन ज्योतिषा सँ विशस्व। सँवेशन स्तनुवै चारुरेधि प्रियो देवानां परमे सधस्थे।।  नाके सुपर्ण मुपय त्पतन्त हृदा वेनन्तो अभ्यचक्षत त्वा। हिरण्यपक्षँ वरुणस्य दूतँ यमस्य योनौ शकुनं भुरण्युम्।।  अतिद्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा। अथा पितॄ न्थ्सुविदत्रा अपीहि यमेन ये सधमादं मदन्ति।।  यौ ते श्वानौ यमरक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी नृचक्षसा। ताभ्या राज न्परि देह्येन स्वस्ति चास्मा अनमीवञ्च धेहि।। 6।।   उरुणसा वसुतृपा वुलुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो वशा अनु। तावस्मभ्य न्दृशये सूर्याय पुनर्दत्ता वसुम द्येह भद्रम्।।  सोम एकेभ्य पवते घृतमेक उपासते। येभ्यो मधु प्रधावति ताश्चिदेवापि गच्छतात्।।  ये युध्यन्ते प्रधनेषु शूरासो ये तनुत्यजः। ये वा सहस्र दक्षिणा स्ताश्चिदेवापि गच्छतात्।।  तपसा ये अनाधृष्या स्तपसा ये सुवर्गताः। तपो ये चक्रिरे महत्ता श्चिदेवापि गच्छतात्।।  अश्मन्वती रेवती स्स रभध्व मुत्तिष्ठत प्रतरता सखायः। अत्रा जहाम ये अस न्नशेवा श्शिवान् वय मभि वाजा नुत्तरेम।। 7।।   यद्वै देवस्य सवितु पवित्र सहस्रधारँ वितत मन्तरिक्षे। येनापुना दिन्द्र मनार्त मार्त्यै तेनाहं मा सर्वतनुं पुनामि।।  या राष्ट्रा त्पन्ना दपयन्ति शाखा अभिमृता नृपति मिच्छमानाः। धातु स्ता स्सर्वा पवनेन पूता प्रजयास्मा न्रय्या वर्चसा ससृजाथ।।  उद्वय न्तमस स्परि पश्यन्तो ज्योति रुत्तमम्। देव न्देवत्रा सूर्य मगन्म ज्योति रुत्तमम्।।  धाता पुनातु सविता पुनातु। अग्ने स्तेजसा सूर्यस्य वर्चसा।। 8।। (धेह्युत्तरेमाष्टौ च। 3।)    यन्ते अग्नि ममन्थाम वृषभायेव पक्तवे। इमन्त शमयामसि क्षीरेण चोदकेन च।।  यन्त्वमग्ने समदह स्त्वमु निर्वापया पुनः। क्याम्बू रत्र जायतां पाकदूर्वा व्यल्कशा।।  शीतिके शीतिकावति ह्लादुके ह्लादुकावति। मण्डूक्यासु सङ्गमयेम स्वग्नि शमय।।  शन्ते धन्वन्या आप श्शमु ते सन्त्वनूक्याः। शन्ते समुद्रिया आप श्शमु ते सन्तु वर्ष्याः।।  शन्ते स्रवन्ती स्तनुवे शमुते सन्तु कूप्याः। शन्ते नीहारो वर्‌षतु शमु पृष्वाव शीयताम्।। 9।।   अवसृज पुनरग्ने पितृभ्यो यस्त आहुत श्चरति स्वधाभिः। आयु र्वसान उप यातु शेष सङ्गच्छता न्तनुवा जातवेदः।।  सङ्गच्छस्व पितृभि स्स स्वधाभि स्समिष्टापूर्तेन परमे व्योमन्न्। यत्र भूम्यै वृणसे तत्र गच्छ तत्र त्वा देव स्सविता दधातु।।  यत्ते कृष्ण श्शकुन आतुतोद पिपील स्सर्प उत वा श्वापदः। अग्निष्ट द्विश्वा दनृण ङ्कृणोतु सोमश्च यो ब्राह्मण माविवेश।।  उत्तिष्ठात स्तनुव सम्भरस्व मेह गात्र मवहा मा शरीरम्। यत्र भूम्यै वृणसे तत्र गच्छ तत्र त्वा देव स्सविता दधातु।।  इदन्त एकं पर ऊत एक न्तृतीयेन ज्योतिषा सँ विशस्व। सँवेशन स्तनुवै चारु रेधि प्रियो देवानां परमे सधस्थे।।  उत्तिष्ठ प्रेहि प्रद्रवौक कृणुष्व परमे व्योमन्न्। यमेन त्वँ यम्या सँविदानोत्तम न्नाक मधिरोहेमम्।।  अश्मन्वती रेवती   र्यद्वै देवस्य सवितु पवित्रँ   या राष्ट्रा त्पन्ना   दुद्वय न्तमस स्परि   धाता पुनातु ।  अस्मा त्त्वमधि जातोस्यय न्त्वदधि जायताम्। अग्नये वैश्वानराय सुवर्गाय लोकाय स्वाहा।। 10।। (अव शीयता सधस्थे पञ्च च। 4।)    आ यातु देव स्सुमनाभि रूतिभि र्यमो ह वेह प्रयताभि रक्ता। आ सीदता सुप्रयतेह बर्‌हिष्यूर्जाय जात्यै मम शत्रुहत्यै।।  यमे इव यतमाने यदैतं प्रवां भर न्मानुषा देवयन्तः। आ सीदत स्वमु लोकँ विदाने स्वासस्थे भवत मिन्दवे नः।।  यमाय सोम सुनुत यमाय जुहुता हविः। यम ह यज्ञो गच्छ त्यग्निदूतो अरङ्कृतः।।  यमाय घृतवद्धवि र्जुहोत प्र च तिष्ठत। स नो देवे ष्वायम द्दीर्घ मायु प्र जीवसे।।  यमाय मधुमत्तम राज्ञे हव्य ञ्जुहोतन। इद न्नम ऋषिभ्य पूर्वजेभ्य पूर्वेभ्य पथिकृद्भ्यः।। 11।।   योस्य कौष्ठ्य जगत पार्थिवस्यैक इद्वशी। यमं भङ्ग्यश्रवो गाय यो राजानपरोद्ध्यः।।  यमङ्गाय भङ्ग्यश्रवो यो राजानपरोद्ध्यः। येनापो नद्यो धन्वानि येन द्यौ पृथिवी दृढा।।  हिरण्यकक्ष्या न्थ्सुधुरान् हिरण्याक्षा नयश्शफान्। अश्वा ननश्यतो दानँ यमो राजाभितिष्ठति।।  यमो दाधार पृथिवीँ यमो विश्व मिद ञ्जगत्। यमाय सर्व मि त्तस्थे यत्प्राण द्वायु रक्षितम्।।  यथा पञ्च यथा षड्यथा पञ्च दशर्‌षयः। यमँ यो विद्याथ्स ब्रूया द्यथैकऋषि र्विजानते।। 12।।   त्रिकद्रुकेभि पतति षडुर्वी रेकमि द्बृहत्। गायत्री त्रिष्टुप्छन्दासि सर्वा ता यम आहिता।।  अहरह र्नयमानो गामश्वं पुरुष ञ्जगत्। वैवस्वतो न तृप्यति पञ्चभि र्मानवै र्यमः।।  वैवस्वते विविच्यन्ते यमे राजनि ते जनाः। ये चेह सत्येनेच्छन्ते य उ चानृतवादिनः।।  ते राज न्निह विविच्यन्तेथा यन्ति त्वामुप। देवाश्च ये नमस्यन्ति ब्राह्मणा श्चापचित्यति।।  यस्मि न्वृक्षे सुपलाशे देवै स्सम्पिबते यमः। अत्रा नो विश्पति पिता पुराणा अनु वेनति।। 13।। (पथिकृद्भ्यो विजानतेनु वेनति। 5।)    वैश्वानरे हवि रिद ञ्जुहोमि साहस्र मुथ्स शतधार मेतम्। तस्मि न्नेष पितरं पितामहं प्रपितामहं बिभर त्पिन्वमाने।।  द्रप्स श्चस्कन्द पृथिवी मनु द्या मिमञ्च योनि मनु यश्च पूर्वः। तृतीयँ योनि मनु सञ्चरन्त न्द्रप्स ञ्जुहोम्यनु सप्त होत्राः।।  इम समुद्र शतधार मुथ्सँ व्यच्यमानं भुवनस्य मध्ये। घृत न्दुहाना मदिति ञ्जनायाग्ने मा हिसीः परमे व्योमन्न्।।  अपेत वीत वि च सर्पतातो येत्र स्थ पुराणा ये च नूतनाः। अहोभि रद्भि रक्तुभि र्व्यक्तँ यमो ददा त्ववसान मस्मै।।  सवितैतानि शरीराणि पृथिव्यै मातु रुपस्थ आ दधे। तेभि र्युज्यन्ता मघ्नियाः।। 14।।   शुनँ वाहा श्शुन न्नारा श्शुनङ्कृषतु लाङ्गलम्। शुनँ वरत्रा बध्यन्ता शुन मष्ट्रा मुदिङ्गय शुनासीरा शुन मस्मासु धत्तम्।।  शुनासीरा विमाँ वाचँ यद्दिवि चक्रथु पयः। तेनेमा मुप सिञ्चतम्।।  सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव। यथा न स्सुभगा ससि यथा नस्सुफला ससि।।  सवितैतानि शरीराणि पृथिव्यै मातु रुपस्थ आदधे। तेभि रदिते शं भव।।  विमुच्यध्व मघ्निया देवयाना अतारिष्म तमस स्पारमस्य। ज्योति रापाम सुव रगन्म।। 15।।   प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत उदोषधी र्जिहते पिन्वते सुवः। इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते यत्पर्जन्य पृथिवी रेतसावति।।  यथा यमाय हार्म्य मवप न्पञ्च मानवाः। एवँ वपामि हार्म्यँ यथासाम जीवलोके भूरयः।।  चितस्थ्स परिचित ऊर्ध्वचित श्श्रयध्वं पितरो देवता। प्रजापति र्व स्सादयतु तया देवतया ।।  आप्यायस्व   सन्ते ।। 16।। (अघ्निया अगन्म सप्त च। 6।)    उत्ते तभ्नोमि पृथिवी न्त्वत्परीमँ लोक न्निदध न्मो अह रिषम्। एता स्थूणां पितरो धारयन्तु तेत्रा यम स्सादनात्ते मिनोतु।।  उप सर्प मातरं भूमि मेता मुरुव्यचसं पृथिवी सुशेवाम्। ऊर्णम्रदा युवति र्दक्षिणावत्येषा त्वा पातु निर्‌ऋत्या उपस्थे।।  उच्छ्मञ्चस्व पृथिवि मा विबाधिथा स्सूपायनास्मै भव सूपवञ्चना। माता पुत्रँ यथा सिचाभ्येनं भूमि वृणु।।  उच्छ्मञ्चमाना पृथिवी हि तिष्ठसि सहस्रं मित उप हि श्रयन्ताम्। ते गृहासो मधुश्चुतो विश्वाहास्मै शरणा स्सन्त्वत्र।।  एणी र्धाना हरिणी रर्जुनी स्सन्तु धेनवः। तिलवथ्सा ऊर्ज मस्मै दुहाना विश्वाहा सन्त्वनपस्फुरन्तीः।। 17।।   एषा ते यमसादने स्वधा नि धीयते गृहे। अक्षिति र्नाम ते असौ।।  इदं पितृभ्य प्र भरेम बर्‌हि र्देवेभ्यो जीवन्त उत्तरं भरेम। तत्त्व मा रोहासो मेघ्यो भवँ यमेन त्वँ यम्या सँविदानः।  मा त्वा वृक्षौ सं बाधिष्टां मा माता पृथिवि त्वम्। पितॄन् ह्यत्र गच्छास्येधासँ यमराज्ये।।  मा त्वा वृक्षौ सं बाधेथां मा माता पृथिवी मही। वैवस्वत हि गच्छासि यमराज्ये वि राजसि।।  नळं प्लव मा रोहैत न्नळेन पथोन्विहि। स त्व न्नळप्लवो भूत्वा सन्तर प्रतरोत्तर।। 18।।   सवितैतानि शरीराणि पृथिव्यै मातु रुपस्थ आ दधे। तेभ्य पृथिवि शं भव।।  षड्ढोता सूर्यन्ते चक्षु र्गच्छतु वात मात्मा द्याञ्च गच्छ पृथिवीञ्च धर्मणा। अपो वा गच्छ यदि तत्र ते हित मोषधीषु प्रतितिष्ठा शरीरैः।।  परं मृत्यो अनु परेहि पन्थाँ यस्ते स्व इतरो देवयानात्। चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा न प्रजा रीरिषो मोत वीरान्।।  शँ वात श्श हि ते घृणि श्शमु ते सन्त्वोषधीः। कल्पन्तां मे दिश श्शग्माः।।  पृथिव्यास्त्वा- लोके सादयाम्यमुष्य शर्मासि पितरो देवता। प्रजापतिस्त्वा सादयतु तया देवतया ।।  अन्तरिक्षस्य त्वा--  दिवस्त्वा--  दिशान्त्वा--  नाकस्य त्वा पृष्ठे--  ब्रध्नस्य त्वा विष्टपे-- सादया म्यमुष्य शर्मासि पितरो देवता। प्रजापतिस्त्वा सादयतु तया देवतया ।। 19।। (अनपस्फुरन्ती रुत्तर देवतया द्वे च। 7।)    अपूपवा न्घृतावा श्चरु रेह सीदतूत्तभ्नुव न्पृथिवी न्द्यामुतो परि। योनिकृत पथिकृत स्सपर्यत ये देवाना ङ्घृतभागा इह स्थ। एषा ते यमसादने स्वधा निधीयते गृहेसौ।।  दशाक्षरा- ता रक्षस्व ताङ्गोपायस्व तान्ते परिददामि तस्यान्त्वा मा दभ न्पितरो देवता। प्रजापतिस्त्वा सादयतु तया देवतया ।  अपूपवा ञ्छृतवा--  --न्क्षीरवा --  --न्दधिवा--  --न्मधुमा- श्चरु रेह सीदतूत्तभ्नुव न्पृथिवी न्द्यामुतो परि। योनिकृत पथिकृत स्सपर्यत ये देवाना --शृतभागाः~--क्षीरभागा --  --दधिभागा --  -- मधुभागा इह स्थ। एषा ते यमसादने स्वधा निधीयते गृहेसौ।।  शताक्षरा--  सहस्राक्षरा-- युताक्षरा-- च्युताक्षरा- ता रक्षस्व ताङ्गोपायस्व तान्ते परि ददामि तस्यान्त्वा मा दभ न्पितरो देवता। प्रजापतिस्त्वा सादयतु तया देवतया ।। 20।। (अपूपवा नसौ दश। 8।)    एतास्ते स्वधा अमृता करोमि यास्ते धाना परिकिराम्यत्र। तास्ते यम पितृभि स्सँविदानोत्र धेनू कामदुघा करोतु।।  त्वामर्जुनौषधीनां पयो ब्रह्माण इद्विदुः। तासान्त्वा मध्या दाददे चरुभ्यो अपि धातवे।।  दूर्वाणा स्तम्ब माहरैतां प्रियतमां मम। इमा न्दिशं मनुष्याणां भूयिष्ठानु वि रोहतु।।  काशाना स्तम्ब मा हर रक्षसा मपहत्यै। य एतस्यै दिश पराभव न्नघायवो यथा ते नाभवा न्पुनः।।  दर्भाणा स्तम्ब माहर पितृणा मोषधीं प्रियाम्। अन्वस्यै मूल ञ्जीवा दनु काण्ड मथो फलम्।। 21।।   लोकं पृण   ता अस्य सूददोहसः ।  शँ वात श्श हि ते घृणि श्शमु ते सन्त्वोषधीः। कल्पन्तान्ते दिश स्सर्वाः।।  इदमेव मेतोपरा मार्ति माराम काञ्चन। तथा तदश्विभ्या ङ्कृतं मित्रेण वरुणेन च।।  वरणो वारया दिद न्देवो वनस्पतिः। आर्त्यै निर्‌ऋत्यै द्वेषाच्च वनस्पतिः।।  विधृतिरसि विधारयास्म दघाद्द्वेषासि  शमि शमयास्म दघा द्द्वेषासि  यव यवयास्म दघा द्द्वेषासि।।  पृथिवी ङ्गच्छान्तरिक्ष ङ्गच्छ दिव ङ्गच्छ दिशो गच्छ सुव र्गच्छ सुव र्गच्छ दिशो गच्छ दिव ङ्गच्छान्तरिक्ष ङ्गच्छ पृथिवी ङ्गच्छापो वा गच्छ यदि तत्र ते हित मोषधीषु प्रतितिष्ठा शरीरैः।।  अश्मन्वती रेवती   र्यद्वै देवस्य सवितु पवित्रँ   या राष्ट्रा त्पन्ना   दुद्वय न्तमस स्परि   धाता पुनातु ।। 22।। (अथो फल न्धाता पुनातु। 9।)    आरोहतायु र्जरस ङ्गृणाना अनुपूर्वँ यतमाना यतिष्ट। इह त्वष्टा सुजनिमा सुरत्नो दीर्घमायु करतु जीवसे वः।।  यथाहा न्यनुपूर्वं भवन्ति यथर्तव ऋतुभि र्यन्ति कॢप्ताः। यथा न पूर्व मपरो जहा त्येवा धात रायूषि कल्पयैषाम्।।  न हि ते अग्ने तनुवै क्रूर ञ्चकार मर्त्यः। कपि र्बभस्ति तेजनं पुन र्जरायु गौरिव।।  अप न श्शोशुच दघ मग्ने शुशुद्ध्या रयिम्। अप न श्शोशुच दघं मृत्यवे स्वाहा।।  अनड्वाह मन्वारभामहे स्वस्तये। स न इन्द्र इव देवेभ्यो वह्नि स्संपारणो भव।। 23।।   इमे जीवा विमृतै राववर्ति न्नभू द्भद्रा देवहूति न्नो अद्य। प्राञ्जोगामा नृतये हसाय द्राघीय आयु प्रतरा न्दधानाः।।  मृत्यो पदँ योपयन्तो यदैम द्राघीय आयु प्रतरा न्दधानाः। आप्यायमाना प्रजया धनेन शुद्धा पूता भवथ यज्ञियासः।।  इम ञ्जीवेभ्य परिधि न्दधामि मा नोनुगा दपरो अर्ध मेतम्। शत ञ्जीवन्तु शरद पुरूची स्तिरो मृत्यु न्दद्महे पर्वतेन।।  इमा नारी रविधवा स्सुपत्नी राञ्जनेन सर्पिषा सं मृशन्ताम्। अनश्रवो अनमीवा स्सुशेवा आरोहन्तु जनयो योनि मग्रे।।  यदाञ्जन न्त्रैककुद ञ्जात हिमवत स्परि। तेनामृतस्य मूलेनाराती र्जम्भयामसि।।  यथा त्वमुद्भिनथ्स्योषधे पृथिव्या अधि। एव मिम उद्भिन्दन्तु कीर्त्या यशसा ब्रह्मवर्चसेन।  अजोस्यजास्म दघा द्द्वेषासि  यवोसि यवयास्मदघा द्द्वेषासि।। 24।। (भव जम्भयामसि त्रीणि च। 10।)    अप न श्शोशुच दघमग्ने शुशुद्ध्या रयिम्। अप न श्शोशुच दघम्।।  सुक्षेत्रिया सुगातुया वसूया च यजामहे। अप न श्शोशुच दघम्।।  प्र यद्भन्दिष्ठ एषां प्रास्माकासश्च सूरयः। अप न श्शोशुच दघम्।।  प्र यदग्ने स्सहस्वतो विश्वतो यन्ति सूरयः। अप न श्शोशुच दघम्।।  प्र यत्ते अग्ने सूरयो जायेमहि प्र ते वयम्। अप न श्शोशुच दघम्।। 25।।   त्व हि विश्वतोमुख विश्वत परिभूरसि। अप न श्शोशुच दघम्।।  द्विषो नो विश्वतोमुखाति नावेव पारय। अप न श्शोशुच दघम्।।  स न स्सिन्धु मिव नावयातिपर्‌षा स्वस्तये। अप न श्शोशुच दघम्।।  आप प्रवणादिव यती रपास्मथ्स्यन्दता मघम्। अप न श्शोशुच दघम्।।  उद्वना दुदका नीवापा स्मथ्स्यन्दता मघम्। अप न श्शोशुच दघम्।।  आनन्दाय प्रमोदाय पुन रागा स्वा न्गृहान्। अप न श्शोशुच दघम्।।  न वै तत्र प्र मीयते गौरश्व पुरुष पशुः। यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधि र्जीवनाय क मप न श्शोशुच दघम्।। 26।। (अघ मघ ञ्चत्वारि च। 11।)    अपश्याम युवति माचरन्तीं मृताय जीवां परिणीयमानाम्। अन्धेन या तमसा प्रावृतासि प्राची मवाची मवय न्नरिष्ट्यै।।  मयैतां मास्तां भ्रियमाणा देवी सती पितृलोकँ यदैषि। विश्ववारा नभसा सँव्यय न्त्युभौ नो लोकौ पयसावृणीहि।।  रयिष्ठा मग्निं मधुमन्त मूर्मिण मूर्जस्वन्त न्त्वा पयसोप स सदेम। स रय्या समु वर्चसा सचस्वा न स्स्वस्तये।।  ये जीवा ये च मृता ये जाता ये च जन्त्याः। तेभ्यो घृतस्य धारयितुं मधुधारा व्युन्दती।।  माता रुद्राणा न्दुहिता वसूना स्वसादित्याना ममृतस्य नाभिः। प्रणु वोच ञ्चिकितुषे जनाय मा गा मनागा मदितिँ वधिष्ट।।  पिबतूदक न्तृणा न्यत्तु। ओमुथ्सृजत।। 27।। (वधिष्ट द्वे च। 12। (परेयुवासं प्र विद्वा न्भुवनस्याभ्याववृथ्स्वाजो भागोयँ वै चतुश्चत्वारिश- द्य एतस्य त्वत्पञ्च- प्रकेतुनेदन्ते नाके सुपर्णँ यौ ते ये युध्यन्ते तपसाश्मन्वती रेवती स्स रभध्व मष्टाविशति- र्यन्ते यत्त उत्तिष्ठेदन्त उत्तिष्ठ प्रेह्यश्मन् यद्वा उद्वय मयं पञ्चविशति- रा यातु त्रिश द्वैश्वानरे तस्मि न्द्रप्स इम मपेताहोभि र्युज्यन्ता मघ्निया अदिते पारँ व आ प्यायस्व सप्तविशति- रुत्ते तभ्नो म्यक्षिति स्तेभ्य पृथिवि षड्ढोता परं मे शग्मा पृथिव्या अन्तरिक्षस्य द्वात्रिश दपूपवा नसौ दश शतद-शैता स्ते ते दिश स्सर्वा इद मश्मन्विशति- रारोहत तनुवै क्रूर ञ्चकार पुन र्मृत्यवे मा नोनु गा द्दद्मह इमा नारी परि त्रयोविशति- रप न स्सुक्षेत्रिया प्र यद्भन्दिष्ठ प्रयदग्ने प्र यत्ते अग्ने त्व हि द्विष स्स न स्सिन्धु माप प्रवणा दुद्वना दानन्दाय न वै तत्र यत्रेद ञ्चतुर्विशति- रपश्यामावृणीहि द्वादश द्वादश।। 12।। परेयुवास माया त्वेतास्ते सप्तविशतिः। 27। परेयुवास मो मुथ्सृजत।) ओम्। सन्त्वा सिञ्चामि यजुषा प्रजा मायुर्धनञ्च।। ओं शान्तिश्शान्तिश्शान्तिः। माङ्गलिका मन्त्राः  सुमङ्गलीरियँ वधू रिमा समेत पश्यत। सौभाग्य मस्यै दत्वायाथास्तँ विपरेतन।।  रोचनो रोचमान श्शोभन श्शोभमानः कल्याणः।।  मङ्गलानि भवन्तु।। हरिः ओम्।